मातृभाषा दिवस पर विचार गोष्ठी

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भाषा सदैव सरहदों के पार जाती है l कौन ऐसा है जो शेक्सपियर मिल्टन वाल्मीकि गोर्की चाणक्य बालजाक आदि को नहीं जानता हो और उस दृष्टि से मैं कहूं ललित क

मातृभाषा दिवस पर विचार गोष्ठी

मैं इस विचार गोष्ठी के प्रारंभ में  यूनिवर्सल पैरामेडिकल संस्थान और विशेषकर डॉक्टर हरिसिंह यादव जी का धन्यवाद करता हूं कि उन्होंने मातृभाषा  पर गोष्ठी में  मुझे विचार प्रकट करने का अवसर दिया। मैं आपके ध्यान में यह बात भी लाना चाहूंगा कि नरेंद्र नाथ नाम के युवक जो पहले नास्तिक थे वह अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर के   साथ हुए वार्तालाप के कारण आस्तिक बने और जब वह जगह अंग्रेजी में लिखा हुआ था कि गॉड इज नोव्हेयर तो विवेकानंद जी ने कहा कि मैं इसे इस तरह पढ़ता हूं कि गॉड इज नाउ हीयर। 

मातृभाषा दिवस पर विचार गोष्ठी
इस तरह हम उत्तर देना सीखें, स्वामी विवेकानंद की तरह वार्तालाप कर मेरा इस दृष्टांत को आपके सम्मुख लाने का अभिप्राय केवल यह है  कि समझदारी और परिपक्वता का भाषा में परिचय दें ,भाषा को संयत रखें। हम सब यह जानते हैं कि हमारी   माँ, मातृभूमि और मातृभाषा से बढ़कर कुछ नहीं है  lबच्चों को प्रारंभिक रूप से ही ज्ञान विज्ञान तकनीकी की जानकारी उनकी भाषा में  करा दी जाए तो उसे समझने में बहुत आसानी हो,अगर वही ज्ञान वही विज्ञान व तकनीकी वही जानकारियां किसी विदेशी भाषा के जरिए हमें मिलेंगे तो उस भाषा को सीखने में जो समय लगता है वह कई वर्षों का होता है तो इस तरह हम समय का सदुपयोग भी नहीं  कर पाते हैं, श्रम व साधनों के अपव्यय से बच सकते हैं। हमें छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्श को भी ध्यान में रखना होगा कि हम  स्वाभिमानी बनें,हम कोई भी काम   ऐसा न करें जिस से हम यह हमारे अन्य भाई , किसी की दासता  या किसी की गुलामी स्वीकार करें,  हम स्वाभिमानी बने हम देश के सच्चे द्वारपाल बनें और आपस में सद्भाव और सम्मान रखें परस्पर और परस्पर सम्मान दो बातें ऐसी है कि जो संबंधों में स्टील जैसा आधार बढ़ाती है। 

हमारी भाषा एकदम सरल, और विनीत  हो ,सीधी-सादी भी हो सकती है लेकिन असरदार हो, फिलहाल जो राजनीति प्रेरित भाषा में असभ्यता का दौर चल रहा है वह मैं चाहूंगा मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा ऐसा ना हो। भाषा हमारी किसी भी कार्य क्षेत्र में है, हम  विनीत और और संतुलित हों इससे न केवल समाज सुदृढ़ होगा  अपितु राष्ट्र सशक्त होगा। भाषा में ओज हो ,प्रेरणा हो तो बच्चों को मुसीबत में डटना भी सिखा देगी, हारी हुई बाजी आप  को जिता  देगी  जैसे  नटों का  खेल  व  आखिरी ताना    .....कि ताल भंग न खाय...जैसा कि हम जानते हैं रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोरकी का उपन्यास मां, मां क्रांति   की जनक होती है। 

मैं आपको उदाहरण दूंगा छत्रपति शिवाजी का जिन्होंने अपनी मां को भगवान का रूप माना और वह भगवान का ही रूप है मातृभूमि और मातृभाषा इन का सदैव सम्मान किया जाना चाहिए और यही हमारी संस्कृति की  धुरी है

भाषा की   कोई सरहद नहीं होती l   सरहद से बंधकर रह भी नहीं सकती l  क्या हम सदियों पहले आए  विदेशी  यात्री अलबरूनी को भूल सकते हैं,  क्या हम तमिल में लिखे गए आर के नारायण के मालगुडी डेज को भूल सकते हैं,  क्या हम    मद्रास के वडपलनी नामक स्थान से निकलने वाली पत्रिका चंदा मामा को भूल सकते हैं,  मध्य दिवाली हिंदी फिल्में प्रसाद प्रोडक्शन और जैमिनी प्रोडक्शन की फिल्में बच्चे मन के सच्चे क्या हम इन को   भूल सकते हैं इनका एक ही उत्तर आता है ,कभी नहीं l

भाषा सदैव सरहदों के पार जाती है l कौन ऐसा है जो शेक्सपियर मिल्टन वाल्मीकि  गोर्की   चाणक्य बालजाक आदि को नहीं जानता हो और उस दृष्टि से मैं कहूं ललित कलाएं सर्वश्रेष्ठ है रचनात्मक मनुष्य बनाती है ,  गैर-रचनात्मक होने ही नहीं देती। राजनीति प्रेरित वातावरण में ,   मैं यह पाता  हूँ कि हम जवान के बहुत   कच्चे हो गए हैं अर्थात जबान से बहुत हल्की बातें कर लेते हैं और यह हल्का पर इतना हल्का है कि यह असभ्यता की   मर्यादा तक को जाता है। 

हमें उस दोहे को सदैव याद रखना चाहिए कि बोला हुआ शब्द तलवार जो घाव करता है बोलत वचन संभार 🌹



- क्षेत्रपाल शर्मा, 
पूर्व संयुक्त निदेशक, ई एस आई सी (मु) 
नयी दिल्ली - 21.02.2022

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