खुद बीमार है पहाड़ का अस्पताल

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खुद बीमार है पहाड़ का अस्पताल दलों ने विकास के नाम पर जनता से वोट देने की अपील की थी और जनता का फैसला ईवीएम में बंद हो चुका है.

खुद बीमार है पहाड़ का अस्पताल


स वर्ष के केंद्रीय बजट में ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने पर भी काफी ज़ोर दिया गया है. एक ओर जहां क्रिटिकल केयर अस्पताल खोलने की बात की गई है, वहीं 75 हज़ार नए ग्रामीण हेल्थ सेंटर खोलने की भी घोषणा की गई है. इससे न केवल ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने में सुविधा मिलेगी बल्कि शहर के अस्पतालों पर भी बोझ कम पड़ेगा. दरअसल कोरोना की दूसरी लहर की त्रासदी के बाद से देश में स्वास्थ्य ढांचा को मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है. खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी आवश्यकता ज़्यादा थी, क्योंकि इस दौरान गांवों में अस्पतालों की कमी के कारण शहरों के अस्पतालों पर क्षमता से अधिक भार पड़ा जिससे समूची स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई. 

देश में आज भी ऐसे कई ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां या तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की व्यवस्था नहीं है या फिर है, तो नाममात्र की. जहां केवल भवन होती है, लेकिन न तो चिकित्सक मौजूद होते हैं और न ही दवाइयां उपलब्ध होती हैं. जो स्वयं किसी बीमार से कम नहीं होता है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का कर्मी गांव भी उन्हीं में एक है, जो आज भी अस्पताल की कमी से जूझ रहा है. बागेश्वर जिला से 43 किमी दूर कपकोट विधानसभा अंतर्गत पहाड़ पर बसा यह एक छोटा सा गांव है. प्राकृतिक रूप से सुंदर दिखने वाले इस गांव को देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि यह स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. 

खुद बीमार है पहाड़ का अस्पताल
गांव में अस्पताल की सुविधा नहीं होने के कारण बुज़ुर्ग से लेकर गर्भवती महिलाओं तक को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. रात के समय और बर्फ़बारी के दिनों में यह कठिनाई और भी अधिक बढ़ जाती है. जब आपातकाल स्थिति में गांव में एम्बुलेंस भी नहीं पहुंच पाती है. जिसके कारण लोग मजबूरी में निजी वाहन बुक करते हैं. इन सब में उनका पैसे भी बहुत खर्च हो जाता है. गांव के अधिकतर लोग मेहनत मज़दूरी करके अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं. जो व्यक्ति मजदूरी करके अपने घर वालों का पेट पालता है, जरा आप सोचिए वह कैसे गाड़ी बुक करके अस्पताल तक जा पाएगा? जितनी उनकी महीने की पगार होती है, उतना तो गाड़ी का एक दिन का खर्चा निकल जाता है. ऐसे में गरीब आदमी अपने घर का खर्च चलाएगा या अपने परिजनों का इलाज करवाने गांव से दूर अस्पताल जायेगा.

इस संबंध में एक महिला कमला देवी का कहना है कि गांव में अस्पताल की सुविधा नहीं होने के कारण सबसे बड़ी समस्या गर्भवती महिलाओं को होती है जब अचानक उन्हें प्रसव पीड़ा होती है. गंभीर स्थिति में कई बार उन्हें रातों-रात शहर के अस्पताल में ले जाने की आवश्यकता हो जाती है. यदि गांव के अस्पताल में डॉक्टर, नर्स और कंपाउंडर की नियुक्ति होती तो लोगों को समय रहते स्वास्थ्य सुविधा मिल जाती और कई लोगों की जान बच जाती. वहीं गर्भवती महिलाओं को भी उचित समय पर डॉक्टरी सुविधा उपलब्ध होती जिससे मां और शिशु स्वस्थ रहते. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की सुविधा नहीं होने से केवल महिलाओं को ही नहीं बल्कि आशा कार्यकर्ता को भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. आशा वर्कर पुष्पा देवी का कहना है कि अस्पताल में सुविधा नहीं होने का कारण गर्भवती महिलाओं को कपकोट या बागेश्वर चेकअप के लिए ले जाना पड़ता है. गर्भावस्था में ज्यादा चलना भी ठीक नहीं होता है लेकिन गांव में चिकित्सा की कोई विशेष सुविधा नहीं होने के कारण उन्हें इतनी दूर ले जाना मजबूरी होती है.

वहीं गांव की किशोरियों को भी इसका नुकसान हो रहा है. विशेषकर माहवारी के समय उन्हें कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जिसका उन्हें उचित इलाज नहीं मिल पाता है. नाम नहीं बताने की शर्त पर गांव की एक किशोरी का कहना है कि हर माह उन्हें होने वाली इस कठिनाइयों को सहने पर मजबूर होना पड़ता है, क्योंकि घर वाले भी यह कह कर अस्पताल ले जाने पर मना कर देते हैं कि यह हर महीने का झंझट है. ऐसे में हर माह अस्पताल जाने का कोई औचित्य नहीं है. वहीं एक अन्य किशोरी का कहना है कि कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो हम केवल महिला डॉक्टर के साथ ही साझा करना चाहते हैं, लेकिन यहां तो महिला डॉक्टर की तैनाती की बात तो दूर, अस्पताल की सुविधा भी नहीं है.

गांव के बुज़ुर्गों को भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी से काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. अस्पताल के नहीं होने के कारण न तो उन्हें उचित इलाज की सुविधा मिलती है और न ही समय पर दवा उपलब्ध हो पाती है. इस संबंध में गांव के एक बुजुर्ग अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं कि उम्र अधिक होने के कारण शरीर में दर्द रहता है, जिसकी वजह से उन्हे चलने में दिक्कत होती है, बुढ़ापे में खाना पीने में भी तकलीफ होती है. इसके लिए समय समय पर चेकअप की आवश्यकता है, लेकिन गांव में स्वास्थ्य सुविधा नहीं होने के कारण समय पर अपना इलाज करवाना संभव नहीं है. परिवार की आय इतनी नहीं है कि शहर जाकर उनके इलाज का खर्च वहन कर सके. वहीं सरपंच कौशल्या देवी भी अस्पताल की सुविधा का नहीं होना, गांव की सबसे बड़ी समस्या मानती हैं. वह कहती हैं कि पंचायत इस समस्या की गंभीरता से परिचित है और हमारा प्रयास है कि इसका अति शीघ्र निदान हो. ताकि गांव वाले स्वस्थ रह सकें. 

हाल ही में उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं. सभी दलों ने विकास के नाम पर जनता से वोट देने की अपील की थी और जनता का फैसला ईवीएम में बंद हो चुका है. अब देखना यह है कि आने वाली सरकार कर्मी जैसे राज्य के दूर दराज़ गांवों में स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं पर कितनी गंभीरता से ध्यान देगी. (चरखा फीचर)



- देविका दुबड़िया,
कर्मी, कपकोट,उत्तराखंड

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