हिंदी भाषा की समस्या और समाधान

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हिंदी भाषा की समस्या और समाधान


हिंदी भाषा की समस्या और समाधान हिंदी भाषा की संवैधानिक स्थिति समस्या और समाधान स्वाधीनता प्राप्ति के लिए लड़े गए लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप यह देश आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारतियों ने अपने नए संविधान को स्वीकार किया । संविधान की धारा 343 के अनुसार देवनागरी लिपि मे हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किया गया तथा 351 के अनुसार संघ सरकार पर यह ज़िम्मेदारी डाली गयी कि वह हिन्दी को इस प्रकार विकसित करें कि वह भारत की संस्कृति की वाहक बन जाये । भाषा और संस्कृति के गहन संबंध को स्वीकार करते हुए भारत मे भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन भी किया गया । संविधान मे यह व्यवस्था भी की गयी कि 1965 तक अँग्रेजी का प्रयोग भी राजभाषा के रूप मे रहेगा । संविधान कि धारा 351 मे ही यह व्यवस्था भी की गयी कि हिन्दी का स्वरूप बिगाड़े बिना उसे अन्य भारतीय भाषाओं की शैलियाँ आत्म सात करने मे सक्षम बनाया जाये । स्वाधीनता से पूर्व भी अधिवेशनों मे हिन्दी की राष्ट्र भाषा बनाने का निर्णय ले लिया गया था । हमारे अहिंदी भाषी क्षेत्रों से आने वाले राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी का खुल कर समर्थन किया था । स्वामी दयानन्द सरस्वती , बाल गंगा धर तिलक और महात्मा गांधी ने हिन्दी के प्रयोग पर बल दिया । 

राजभाषा हिन्दी 

हिन्दी को ही राजभाषा ,जन संपर्क की भाषा अथवा राष्ट्र भाषा बनाने का निर्णय क्यों लिया गया ,यह जानना रोचक है । हिन्दी के विरोधियों का कहना है कि तमिल तथा बंगला का साहित्य हिन्दी से कम समृद्ध नहीं है । उनका यह भी कहना है कि हिन्दी मे तकनीकी शब्दों की कमी है । वास्तव मे हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा बनाने के पीछे जो भावना काम कर रही थी वह देश भक्ति की थी । भारत जैसे स्वतंत्र राष्ट्र के पास पंद्रह विकसित आधुनिक भाषाएँ थी इसीलिए एक विदेशी भाषा अर्थात अँग्रेजी की गुलामी करते रहना अनुचित माना गया । भारतीय भाषाओं मे से किसी एक को राष्ट्रभाषा बनाना था और हिन्दी इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त थी । हिन्दी के पक्ष मे जो बात सबसे अधिक कही गयी वह यह थी कि हिन्दी भाषी लोगों की संख्या भारत मे सर्वाधिक थी । बिहार , राजस्थान ,मध्य प्रदेश ,उत्तर प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश ,हरियाणा ,दिल्ली मे तथा इन राज्यों के आसपास की भाषा होने के साथ हिन्दी प्रायः पूरे भारत मे समझी अथवा बोली जाती थी । गुजराती ,मराठी अथवा तमिल ,तेलगु भाषी भी हिन्दी भाषा को समझ लेता है । पच्चीस करोड़ से अधिक लोग इस भाषा को बोलते हैं । हज़ार वर्ष से भी अधिक समय से इस भाषा मे साहित्य सृजन होता आ रहा है । हिन्दी के स्वर्ण काल अर्थात भक्तिकाल मे सूर ,तुलसी ,कबीर ,जायसी और रसखान जैसे महान कवि एक साथ इस भाषा को समृद्ध करते दिखाई पड़े। हिन्दी हमारे स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई का मुख शस्त्र रही और नेताओं की संपर्क भाषा रही । गत 50 वर्षों मे हिन्दी शब्दावली का अभाव नहीं है । हिन्दी की लिपि देवनागरी है जो कि विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि स्वीकार की जाती है । हिन्दी का विरोध राजनीतिक अधिक है तर्क संगत कम । 

हिंदी भाषा की समस्या और समाधान
राष्ट्र भाषा हिन्दी को लागू करने मे सबसे अधिक बाधा अँग्रेजी की रही है । लंबे समय से शासकों की भाषा रहने के कारण आज भी भारत का शासक वर्ग अर्थात उच्चाधिकारी वर्ग अँग्रेजी को अपनी श्रेष्ठता का आधार मानते हैं । आम आदमी को आतंकित करने के लिए अँग्रेजी का प्रयोग करता है । अँग्रेजी को विश्व भाषा घोषित करते हुए अँग्रेजी समर्थक इसके साहित्य और ज्ञान विज्ञान विषयक शब्दावली का भी ढिंढोरा पीटते हैं । अँग्रेजी विश्व भाषा नहीं है क्योंकि भूतपूर्व अँग्रेजी उपनिवेशों मे ही इसका अधिक बोलबाला रहा है अन्य स्थानों पर नहीं । अँग्रेजी बोलने वालों की संख्या , हिन्दी बोलने वालों से कम है । अँग्रेजी का शब्द भंडार विभिन्न भाषाओं से उधार लिया हुआ है । अंग्रेजी की रोमन लिपि अत्यंत अवैज्ञानिक विपन्न है । शुद्ध भाषा शाष्ट्रीय निकष पर अंग्रेजी किसी तरह श्रेष्ठ नहीं ठहरती । यदि एक क्षण के लिए मान भी लिया जाये तो भी इस विदेशी भाषा को ढ़ोना कहाँ तक उचित है । क्या कोई अपनी माँ को इसीलिए छोड़ देता है क्योंकि दूसरे की माँ उससे अधिक सुंदर दिख रही है । अंग्रेजी भाषा से द्वेष की आवश्यकता नहीं है । उसका पठन - पाठन एच्छिक भाषा के रूप मे रहना चाहिए ,अनिवार्य भाषा के रूप 
मे नहीं । 

त्रिभाषा सूत्र 

भारत की भाषा समस्या को त्रिभाषा सूत्र द्वारा सुलझाया गया था । सभी राज्यों मे शिक्षा का माध्यम मातृभाषा के रूप मे हो । अहिंदी भाषी हिन्दी को सीखें और हिन्दी भाषी हिन्दी के साथ साथ किसी एक अन्य भारतीय भाषा को सीखें । अंग्रेजी को एच्छिक भाषा के रूप मे सिखाया जाये । अनेक राज्यों ने उनका पालन नहीं किया । प्रांतीय भाषाओं को हिन्दी से खतरा नहीं होना चाहिए । आज तक उनके विकास मे अंग्रेजी बाधक रही है ,हिन्दी नहीं । 

अहिंदी भाषी क्षेत्रों के लोगों को भय है कि हिन्दी राजभाषा और राष्ट्रभाषा बन जाने से वे सरकारी नौकरियों मे पिछड़ जाएँगे और हिन्दी भाषी क्षेत्रों को लाभ होगा । यह तर्क तो अंग्रेजी को लेकर भी दिया जा सकता है । अंग्रेजी का विकास दक्षिण मे अधिक रहा इसीलिए दक्षिण के लोगों को अंग्रेजी के प्रचलित रहने से अधिक लाभ हो रहा है । वास्तव मे यह कुतर्क है । भाषा को नौकरियों और रोजी रोटी से जोड़ना अनुचित है । हिन्दी के विरोध मे जो स्वर उठते हैं उनके पीछे राजनीतिक स्वार्थ ही अधिक रहता है । 

हिन्दी राष्ट्र के गौरव का प्रतीक 

हिन्दी राष्ट्र के गौरव के प्रतीक है । हिन्दी के विकास मे सभी भारतीयों को सहयोग देना चाहिए । हिन्दी किसी प्रांत ,जाति अथवा संप्रदाय की भाषा नहीं है । यह विकसित और समृद्ध भाषा है । हिन्दी सभी भारतीय भाषाओं की बड़ी बहन है और उसके रहते प्रांतीय भाषाओं का विकास ही होगा । 


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