बदलते संदर्भों में हिन्दी

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बदलते संदर्भों में हिन्दी हिन्दी-दिवस , हिन्दी-माह , हिन्दी-पखवाड़ा मनाना इसका समाधान नहीं हो सकता भाषाएँ रोजगार का माध्यम बनेंl भाषाओं को वैकल्पिक बन

बदलते संदर्भों में हिन्दी


तीत में कबीरदास जी ने भाषा को बहता नीर कहा था l हिन्दी भाषा में  यह विकासिक परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देता है l अपभ्रंश, पालि, प्राकृत ,नाथ और सिद्ध भाषिक समृद्धि के प्रतिमान बनेl भक्तिकाल में भाषा ने बोलियों को जो गौरव प्रदान कराया वह वास्तविक रूप से भाषायी समृद्धि का ही रूप  है l रीतिकाल के प्रयोग से भाषा काव्यलक्षणों से समृद्ध होकर लोकप्रिय बनी l साहित्यकारों की जीविका का माध्यम बनी भाषा ने अपनी आर्थिक स्वायत्ता की घोषणा रीतिकाल में कर दी थीl आधुनिक काल में साहित्य युगीन संदर्भों का वाहक बनाl स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए गाँधी जी ने हिन्दी भाषा का चयन इसकी लोकप्रियता और जनस्वीकार्यता के आधार पर ही किया था l हिन्दी की विकासयात्रा समृद्धि और विकास से परिपूर्ण है l बोलियों की स्वायत्तता इसकी सद्भावना का ही प्रतीक है l बोलियों  को लेकर कोई द्वन्द्व साहित्य में दिखाई नहीं देता है l सूरदास के आग्रह पर तुलसीदास जी विनयपत्रिका बृजभाषा में लिखते हैं l इससे सिद्ध होता है कि भाषा अपनी सद्भावना से ही समृद्ध हो सकती है l 
                        
हिन्दी ने गद्य की भाषा बनते बनते अपनी समृद्धि का स्वरूप स्वयं नियत किया है l विविध भाषाओँ के शब्दों समाहार हिन्दी-शब्दकोश  में मिलता हैl गद्य की भाषा हिन्दी के विकास का चरम है l हिन्दी ने अपने अतीत में स्थानीयता को सहयात्री बनाकर अपनी गरिमा को बढ़ाया है l हिन्दी सभी भाषाओँ के साथ सहचरी बनकर आगे बढ़ी l बंगाल , महाराष्ट्र, ओडिशा, केरल , पूर्वोत्तर भारत, दक्षिण भारत सभी ने  हिन्दी की समृद्ध विरासत को वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान दिलाने में बड़ी भूमिका निभायी है l भाषायी संघर्षों  स्थानीय भाषा के प्रेम को प्रकट करते हैं l यह स्वभाविक भी है l भाषा सुलभता के सिद्धांत पर चलती है और अपनी मातृभाषा से सुलभ कोई अन्य भाषा हो ही नहीं सकती है l हिन्दी का अतीत संघर्षों से ही उसे समृद्ध बनाता है  और इससे ही हिन्दी का वर्तमान फलित हुआ है l   

वर्तमान के प्रश्न 

वर्तमान में हिन्दी का स्वरूप विभिन्न सदर्भों में विशिष्ट हैl आज हिन्दी बाज़ार की भाषा बनी हैl  वह साहित्यिकता को
बदलते संदर्भों में हिन्दी
व्यावसायिक निकष पर कसकर उसमें खरी उतरी है l हिन्दी-सिनेमा और  विज्ञापन का करोड़ों का बाज़ार यह सिद्ध करता है कि हिन्दी में रोजगार के साथ धनार्जन की अपार संभावनाएं हैं l वर्तमान में हिन्दी तकनीकी रूप से सक्षम हुई है l अतीत में टंकण की दुरूहता और सीमित क्षमता  हिन्दी को जनसुलभता से दूर करा रही थी l आज तकनीकी के कारण हिन्दी व्यवसायिक स्वरूप में सम्पन्न हुई है l यह भाषा के जनसुलभ होने का प्रमाण हैl   अब बोलकर लिखना (स्पीच टू  टेक्स्ट ) मोबाईल पर भी सहज ढ़ंग से संभव हुआ है l आज हिन्दी में तकनीकी आधार पर नव्य संदर्भ मिले हैं l जन-जन हिन्दी को सहज ढ़ंग से व्यवहार में ला सकता है l संगणक की सहज भाषा बनन हिन्दी के विकास बहुआयामी विकास है l फेसबुक, व्हाट्सअप से लेकर वेब माध्यमों में हिन्दी की स्वीकार्यता हिन्दी की व्यावसायिक उन्नति का प्रमाण है l    
                     
इस बात को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी को व्यासायिक संदर्भों से इतर अपनी मौलिकता को बनाए के लिए भी एक बड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा है l यह भी  सत्य है कि नव संदर्भों की आंग्लभाषी सभ्यता ने हिन्दी के अस्तित्व को ललकारा है परन्तु वह हिन्दी को पराजित नहीं कर सकी l लगभग सभी प्रदेशों में हिन्दी जनसंपर्क भाषा के रूप में हिन्दी को स्थान मिलता  है l इसके साथ ही यह भी श्लाघनीय है कि अंग्रेजी से पहले हिन्दी भाषा का स्थान आता है l भाषायी रूढ़िवादिता  के बरक्स हिन्दी संघर्षशील है l अतीत में जो जनसुलभ हिन्दवी जबान मुग़ल सेना ने विकसित की थी  भाषा वह आज भी सेना की मुख्य जनसंपर्क भाषा बनी हुई हैl  हिन्दी गीतों ने भाषा को प्रदेश और क्षेत्रों की सीमित परिपाटी से मुक्त किया है l साहित्यिक संदर्भो में काव्य की लोकप्रियता आज भी लाखों प्रवासी भारतीयों का मुख्य आकर्षण है l वैश्विक मंच पर हिन्दी की दर्शकों और पाठकों ने हिन्दी को और समृद्ध किया है l हिन्दी सिनेमा और संगीत की धूम हिन्दी को लोकप्रियता की गवाही देती है l
 

भविष्य का चिंतन 

हिन्दी भाषा की पर कई दोषारोपण किये जाते रहे हैं l हिन्दी की बोलियों को अपनी विरासत बताती है l तब हिन्दी का अपना क्या है ? प्रश्न चिंतनीय अवश्य है परन्तु पश्चताप के योग्य बिलकुल नहीं l लेख के आरम्भ में यह प्रश्न हिन्दी की समाहार शक्ति को दिखाता है l यह समाहार शक्ति ही हिन्दी भाषा को जनसुलभ और लोकप्रिय ही बनाते हैं l हिन्दी संस्कृत से  मूल रूप से जुड़कर सभी भारतीय भाषओं के साथ सामंजस्य करती है l कुछ शब्द तो मूल रूप से सभी भाषाओं में समान रूप से मिल जाते हैं l सम भाषा परिवारों के अतिरिक्त हिन्दी विषम भाषापरिवारों से भी सहज रूप से जुड़ती है l हिन्दी के  संघर्षमयी अतीत हिन्दी को समृद्ध  किया है l  भविष्य में भाषाओं के संघर्ष का प्राथमिकता नहीं होंगेl आगे चुनौती इसी बात को लेकर होगी कि अपने हितों की रक्षा किस प्रकार की जाए l  इस दिशा में विश्व स्तर  पर मोबाईल, संगणक, और जनसंचार माध्यम स्वयं को भाषायी सहिष्णुता के सिद्धांत पर रखकर ही अपने व्यवासयिक हितों की पूर्ति कर रहे हैं l भारत में विश्व के सर्वाधिक उपभोक्ता बसते हैं तब भारतीय भाषा अपने आप में विशिष्ट हो जाती हैं l विश्व की व्यावसायिक लालसा के पीछे भाषा की अस्मिता प्रभावित न होंl 
          
भविष्य का चिंतन इस बात पर भी होना चाहिए कि भाषा की स्वीकार्यता से इतर भाषायी अस्मिता को बनाए रखने का प्रयास दायित्वबोध के साथ हो l हिन्दी-दिवस , हिन्दी-माह , हिन्दी-पखवाड़ा मनाना इसका समाधान नहीं हो सकता l हिन्दी भाषा के विकास में बड़ी भूमिका निभाने वाला प्राथमिक शिक्षक कभी भी भाषा की विकास परम्परा का अंग माना ही नहीं जाता l अकादमिक बहसों में विश्विद्यालय स्तर को ही प्रतिनिधित्व मिलता हैl सबसे कम भूमिका निभाने वाला ही नीति-निर्धारक का भूमिका भी निभाता है l भविष्य में यह महती आवश्यक है कि भाषायी  विकास राजनीति की बिसात  पर न होकर स्वछन्द हो l भाषाएँ रोजगार का माध्यम बनेंl भाषाओं को वैकल्पिक बनाकर भाषा का विकास नहीं कर सकते हैं l यह सभी भाषाओं के संदर्भ में है कि प्रारम्भिक ज्ञान मातृभाषा के साथ ही हो l बच्चे अनुवादक की भूमिका न निभाएं l ज्ञान का चिंतन मौलिक  होगा तो वह स्वर्णिम भविष्य बनेगा l भाषा को व्यवसाय से नहीं जनमानकों पर परखें l भाषायी सहिष्णुता इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है l भाषा-पर्व पर भाषाओं के सम्मान को अस्मिता से जोड़कर समाज में भाषायी जागरूकता की अलख जगाएँ  l 




- डॉ ० सुशील ‘सायक’
हिन्दी-शिक्षक,परमाणु उर्जा केंद्र कलपाक्कम  (तमिलनाडु ) 
sushilhindi8@gmail.com 
(लेखक के सभी विचार मौलिक हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी- शिक्षण के अनुभव पर आधारित हैं )

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