अपने आप को पहचानो

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अपने आप को पहचानो ऐसे में न्यायालय का प्रत्येक तारीख एक नए महाभारत को जन्म देता है। जिसका फैसला पिछले महाभारत की तरह सिर्फ अठारह दिनों में नहीं अठारह

आत्मानं विजानीहि : अपने आप को पहचानो


म आज अपने धर्म,आदर्श और संस्कृति से कितने दूर हैं? इसका लेखा जोखा न तो हमारे नेतृत्व वर्ग के पास है और न कुर्सीधारियों के पास ही। अगर कहीं है तो हमारे पूर्वजों  के सांस्कृतिक ग्रंथों में जो मृतप्राय मिथक बन चुकी संस्कृत भाषा में न लिखे गए होते तो कबके पश्चिमी देशों के पेटेंट विरासत बन गए होते और हम आज के सर्ट पेंटधारी भारतीय 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना का  उद्घोषक आज की दुनिया के दादा अमेरिकी अंग्रेजों को  मानते। क्योंकि हम अमेरिकी राष्ट्रपति बुडरो विल्सन की  'वी आर द सीटीजन आफ द वर्ल्ड' या विल्डेन विलकी की 'वन वर्ल्ड' जैसे पुस्तकों को पहले पढ़ने को मजबूर हैं।  वेद पुराण/वेस्ता ए जिंद को बाद में पढ़ते या नहीं पढ़ते। 

अपने आप को पहचानो
‘माता भूमि पुत्रो अहं पृथ्विया' का पाठ हमें व्योम ओजोन  मंडल को सबसे अधिक फाड़नेवाले, पृथ्वी को सबसे अधिक परमाणु कचरे से प्रदूषित करने वाले अमेरिकी यूरोपीय अंग्रेज पढ़ाते कि भूमि और आकाश के सारे प्रदूषणों के जिम्मेवार तुम्हीं हो अरब संख्यक असभ्य भारतीयो। अस्तु आज आवश्यक है सभी पूर्वाग्रहों-भ्रमों से मुक्त होकर हमें अपनी महान संस्कृति को बचाना और प्राचीन देवभाषा संस्कृत को पुनः जीवित करना जो अपने अजर-अमर शब्द शक्तियों और आदर्श सूक्तियों के सहारे पशुता की ओर अग्रसर आदमी को फिर से मनुष्य बनाएगी। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' के चिंतन से 'सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वेसन्तु निरामया।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाग भवेत्।। यानि सभी सुखी हो, सभी निरोग हो सभी परस्पर कल्याण के लिए विचार करें-की त्यागमयी भावना जगाकर। क्योंकि 'न हि मानुषाच् श्रेष्ठतरं कश्चित हि' अस्तु 'मनुर्भव' यानि मनुष्य बनो।अफगानिस्तान (प्राचीन आर्यावर्त का गांधार राज्य) केबामियान में भगवान बुद्ध की विशालतम मूर्ति को ध्वस्त करनेवाले या कश्मीर में (प्राचीन नाम कश्यपमीड़) में जीवित कश्यपगोत्री इंसानों (हिन्दू मुसलमानों) से खून की होली खेलने वाले कौन हैं? हमारे ही दिकभ्रमित  रक्तवंशी, असंस्कृत बर्वर, धर्म अर्थ काम मोक्ष से वंचित  शकुनि वंशी भाड़े के गुलाम। जबकि हमारी शिक्षा संस्कृति और भाषा संस्कृत में वेद पुराण हीं नहीं कुरान के भी सत्यों का भी निरूपण है- “उक्ति धर्म विशालस्य राजनीति नवं रस, षटभाषा पुराणं च कुरानं कथित मया” (पृथ्वीराज रासो) यानि मैं पुराणों ही नहीं कुरान के सत्यों का भी निरूपण कर रहा हूं।

जब से हमने अपनी संस्कृति और भाषा को अछूत समझ कर ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' की तालीम को छोड़कर मैकाले की शिक्षा नीति को अपनाया तब से हम अधजल गगरी तालिबानी बनते गए यूरोप के भाषाई गुलाम/अरब के मजहबी दास/भाड़े के टट्टू। आज सांस्कृतिक पतन और नैतिक क्षरण से हमारे जन जीवन का कोई कोना अछूता नहीं बचा है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से लेकर पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक, चिकित्सा, विज्ञान, अर्थादि क्षेत्रों में पश्चिमी व्यवस्था के अंधानुकरण से हम हीन से हीनतरावस्था को प्राप्त हो रहे हैं।कहने को तो हमारा देश लोकतंत्री व्यवस्था का जनक है किन्तु लोकतंत्र के मजबूत महालय संसद या विधानसभा/परिषद में शिक्षित शिष्ट सदाचारी मनुष्य का प्रवेश कितना दुष्कर हो गया है। लोकतंत्र के ये पवित्र घर खद्दर के खोल में छिपे द्विपद दुष्ट पशुओं का शरणगाह हो गया है। मनुस्मृति को कोसने वालों के रहनुमा आज के संविधान निर्माता/ज्ञाता काश अगर मनुस्मृति के इस श्लोक को पढ़े होते या ध्यान दिए होते-

‘चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो मारिण:स्त्रिया:।
स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च।138
तेषा तु समवेतानां मान्यौ स्नातक पार्थिवौ।
राज स्नातक योश्चैव स्नातको नृपमान भाक्।139 म 2

(रथारूढ़ अतिवृद्ध,रोगी, भारवाहक, स्त्री, स्नातक,राजा और वर को मार्ग देना आवश्यक है। ये सब साथ हों तो इनमें स्नातक और राजा अधिक मान्य है तथा स्नातक को राजा से विशिष्ट समझें।) आज की राजनीति में एक सड़क छाप बसपड़ाव का गुंडा का विधायक/सांसद/मंत्री जैसा राजपद सहज में प्राप्त कर लेना और स्नातक ताउम्र रोजी-रोटी की तलाश में किरानी/चपरासी पद के लिए सड़क नापते रहता है-तभी विद्वान संविधान निर्माताओं के द्वारा चाणक्य नीति को नहीं पढ़े जाने का पोल खुल जाता है-

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते।

भावार्थ- पंडित और भूपाल को जग में समता नाहीं।राजा पुजे स्वदेश में पंडित सब जग माहीं। अब कार्यपालिका की अंधेरगर्दी के क्या कहने? कुर्सी पर आसीन काले-काले मैकाले; भारतीय जन सेवक/क्लर्क सरकारी नौकर नहीं सर कहलाते हैं जो कुर्सी विहीन घिघियाती जनता को लूट खसोटकर धकियाते। वेद-पुराण पढ़े विद्वान साम्प्रदायिक समझे जाते हैं।‘भूषणानं भूषणं सविनय विद्या’-सभी आभूषणों में सर्वश्रेष्ठ आभूषण विनय सहित विद्याधारी मनुष्य आज दस में एक होते हैं, वह भी नौ सविनय विद्या भूषण रहित नग्न नर पशुओं के घृणा और उपहास के दंश को झेलते हुए।

न्यायपालिका की नग्नता और अंधापन तो सर्वविदित है।आंखों में पट्टी बांधे तुलाधारिणी सती गांधारी सी मूर्ति के आगे चश्माधारी आधुनिक धृतराष्ट्र के आजू-बाजू काले कोटधारी मामा भांजे बिना गीता को छुए जब किसी निरीह पीड़ित जनता को गीता की कसम खिलाकर संवेदना रहित शब्दों में पूछता है कि बर्बरतापूर्वक हत्या किया गया बालक क्या तुम्हारा पुत्र अभिमन्यु ही था इसका क्या सबूत है? या किसी द्रौपदी से मर्यादा विहीन शब्दों में चुटकी लेकर जिरह करता है कि सच-सच बताओ मिसेज द्रौपदी जब तुम्हें दुर्योधन ने जंघा पर बिठाया तो कौन-कौन प्रत्यक्षदर्शी गवाह था? उनकी नग्न जांघ और तुम्हारे नितंब के मध्य साड़ी तो होगी ही फिर भी बलात्कार का आरोप है तो बलात्कार के वक्त कैसा अनुभव हुआ आदि-आदि।ऐसे में न्यायालय का प्रत्येक तारीख एक नए महाभारत को जन्म देता है। जिसका फैसला पिछले महाभारत की तरह सिर्फ अठारह दिनों में नहीं अठारह वर्षों के बाद होता है। 



- विनय कुमार विनायक,
दुमका, झारखंड-814101

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