प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा एवं विकास

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Prayojan Mulak Hindi प्रयोजनमूलक हिंदी का स्वरूप प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा एवं विकास प्रयोजनमूलक हिंदी की क्या उपयोगिता प्रयोजनमूलक हिंदी के प्रमुख

प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा एवं विकास


प्रयोजनमूलक हिंदी का स्वरूप प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा एवं विकास प्रयोजनमूलक हिंदी की क्या उपयोगिता प्रयोजनमूलक हिंदी के प्रमुख प्रकार Prayojan Mulak Hindi हिंदी भाषा की राजभाषा है। यह देश की सबसे बड़ी एवं विस्तृत साहित्यिक भाषा भी है। देश का जनसामान्य अपनी बोलचाल में इसी भाषा का सर्वाधिक प्रयोग करता है। ये हिन्दी प्रयोग के तीन उदाहरण है - वैसे प्रयोग की दृष्टि से इसके अनेकानेक रूप हो जाते हैं। विविध विषयों के पठन - पाठन एवं लेखन में तदन्तर विषयानुरूप हिंदी का प्रयोग मिलेगा अर्थात कानून ,विज्ञान ,मनोविज्ञान ,अर्थशास्त्र ,वाणिज्यशास्त्र ,राजनीतिशास्त्र या फिर शासकीय राजकाज की अपनी सुनिश्चित शब्दावली होती है और इस शब्दावली के प्रयोग से भाषा का रूप भी साहित्यिक या सामान्य भाषा से थोडा अलग हो जाता है। हिंदी साहित्य में सर्वोच्च डिग्रीधारी भी कानून की हिंदी लिखने ,समझने ,बोलने में सक्षम नहीं होगा ,जबब तक कि वह कानून विषय में गति न प्राप्त कर ले। भाषा तो सभी पढ़े - लिखे लोग बोल और लिख लेते हैं ,परन्तु जब किसी प्रयोजन विशेष से भाषा का प्रयोग किया जाता है तो भाषा के इस प्रायोगिक रूप को प्रयोजनमूलक भाषा कहते हैं। सामान्य भाषा नींव है , जिस पर विविध विषय रूपी भवनों का निर्माण प्रयोजनमूलक भाषा का कार्य है। मनोविज्ञान ,दर्शन ,वाणिज्य ,शिक्षा ,विधि एवं प्रशासन की भाषा की अपनी एक अलग विशिष्टता होती है। साहित्य के परमज्ञानी को भी इनमें अलग से दक्षता प्राप्त करनी होगी। 

प्रयोजनमूलक हिंदी की अवधारणा एवं विकास
इस प्रकार सामान्य हिंदी की नींव पर प्रयोजनमूलक हिंदी का भवन निर्मित होता है। अब तो साहित्यिक हिंदी के समान्तर प्रयोजनमूलक हिंदी के पठन -पाठन की अनिवार्यता को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी स्वीकृति दे रहा है। असंख्य विश्वविद्यालयों का महाविद्यालयों में प्रयोजनमूलक हिंदी के पाठ्यक्रम पढाये जाते रहे हैं। मात्र हिंदी ही नहीं संस्कृत ,अंग्रेजी तथा अन्याय प्रांतीय भाषाओँ से भी सम्बद्ध पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये जा रहे हैं। ये पाठ्यक्रम महत्वपूर्ण भी हैं ,क्योंकि पढ़लिखकर युवकों -युवतियों को किसी न किसी क्षेत्र में काम करना पड़ता है। मात्र साहित्यिक अथवा सामान्य भाषा ज्ञान उनकी सहायता नहीं कर पायेगा। अतः उनके लिए भाषा के प्रयोजनमूलक स्वरुप का ज्ञान आवश्यक है। भारत में सबसे अधिक नौकरियाँ दफ्तरों में मिलती हैं। इनके कामकाज का एक तरीका होता है और इस तरीके की अभिव्यक्ति करने वाली एक अलग प्रकार की भाषा भी होती है जो सामान्य भाषा पर आधारित होते हुए भी अपनी निजी विशिष्टताएँ रखती हैं। 

प्रयोजनमूलक हिंदी तथ्यपरक अर्जित ,सामान्य जन जीवन में दैनिक कार्यों के संपादन में सक्षम ,विशेष कार्यों के अनुकूल स्वरुप की होती है। डॉ.विनोद गोदरे के मतानुसार ,"जीवन जगत की विभिन्न आवश्यकताओं अथवा लोकव्यवहार ,उच्च शिक्षातंत्र तथा जीविकोपार्जन आदि के लिए विशेष अभ्यास और ज्ञान के द्वारा इसे प्राप्त किया जाता है। विशेष शब्दावली में विशेष अभिव्यक्त इकाइयों एवं सम्प्रेषण कौशल से समाज सापेक्ष व्यवाहरिक प्रयोजनों की सम्पूर्ति के लिए प्रयुक्त की जानेवाली विशेष भाषा प्रयुक्तियों को प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जा सकता है। "


प्रयोजनमूलक हिंदी की विशेषताएं 

प्रयोजनमूलक हिंदी की निम्नलिखित विशेषताएँ है - 

  • प्रयोजनमूलक भाषा के शब्द साहित्यिक भाषा की तरह अनेकार्थी नहीं होते ,इनका एक निश्चित पारिभाषिक अर्थ होता है। यदि ऐसा न हो तो प्रशासनतंत्र में परस्पर मतभेद पैदा हो जाए। न्यायलयों में न्याय प्रभावित होने लगे। 
  • प्रयोजनमूलक भाषा के शब्दों का प्रयोग एक सीमित क्षेत्र में होता है ,इसीलिए प्रत्येक क्षेत्र की प्रयोजनमूलक भाषा की पारिभाषिक शब्दावली अलग होती है। जैसे - बीमा ,बैंक ,प्रशसन ,न्यायलय ,सभी में काम करने वाले को इसने सम्बंधित शब्दावली का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य होता है। 
  • प्रयोजनमूलक भाषा उपयुक्त आधारों की दृष्टि से सामान्य भाषा से थोड़ी भिन्न होती है। सामान्य भाषा ही कुछ प्रयोजनमूलक प्रयोजनमूलक शब्दावली के मिल जाने से अपना मूलस्वरूप सुरक्षित रखते हुए ,कुछ भिन्न भाषा के रूप में व्यवहृत होने लगती है। 
  • प्रयोजनमूलक भाषा न तो अलंकार प्रधान होती है ,न कहावतों और मुहावरों से लदी हुई लच्छेदार। यह एकदम सपाट ,सार्थक और नीरस भाषा होती है क्योंकि इसका उद्देश्य आनंद प्राप्ति न होकर ,यथार्थ परिस्थितियों पर आधारित राजकाज होता है। 
  • विदेशों में सामान्य भाषा की पढ़ाई हाईस्कूल स्तर तक समाप्त हो जाती है। इसके बाद छात्र कामकाजी विषयों का अध्ययन शुरू करता है और उसका पूर्व का भाषा ज्ञान इसका आधार बनता है। भारत में इसके ठीक उल्टा होता है यहाँ व्यक्ति नौकरी पा लेने के बाद अपनी नौकरी से सम्बंधित भाषा का ज्ञान प्राप्त करने लगता है। राजनीतिज्ञों के साथ तो और भी विडम्बना है ,कुछ तो ऐसे होते हैं ,जिन्हें सामान्य भाषा का ज्ञान तक नहीं होता है। वे बिना पढ़े ही सचिव की सलाह पर जरुरी फाइलों पर हस्ताक्षर कर देते हैं। इस तरह कभी कभी बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता है। इन नेताओं के लिए प्रयोजनमूलक भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। 

प्रयोजनमूलक हिंदी की उपयोगिता

सन १९८६ में स्व.राजीव गाँधी ने नयी शिक्षा नीति ने अंतर्गत स्नातक स्तर पर फाउंडेशन कोर्स अनिवार्य कर दिया था। इसके अनिवार्य कला के छात्रों को भी विविध विषयों जैसे - विज्ञान ,अर्थशास्त्र ,वाणिज्य तथा सामान्य राजकाज से सम्बंधित विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया है। वर्तमान समय में कला ,विज्ञान व वाणिज्य सभी छात्रों के लिए स्नातक स्तर पर कंप्यूटर ,पत्रकारिता ,अनुवाद तथा सरकारी राजकाज सम्बन्धी विषयों का ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। 

भाषा मानव जीवन की अनिवार्य सामाजिक वस्तु और व्यवाहरिक चेतना है ,जिसके दो मुख्य आयाम अथवा कार्य है - 
  • सौंदर्यमूलक ,
  • प्रयोजनमूलक

भाषा के प्रयोजनमूलक आयाम का सम्बन्ध हमारी सामाजिक आवश्यकतों और जीवन व्यवहार से है। यह व्यक्तिपरक होते हुए भी समाज सापेक्ष्य सेवा माध्यम रूप में प्रयुक्त होती है। वर्तमान में हिंदी का प्रयोग विभिन्न व्यवहार क्षेत्रों में हो रहा है। इसके इन् विविध प्रयोजनमूलक रूपों का अध्ययन अनिवार्य किया जाना चाहिए। हिंदी के प्रयोजनमूलक रूप का अध्ययन जहाँ समाज की रोजगार अथवा जीविका सम्बन्धी समस्या का हल प्रस्तुत करेगा ,वहाँ यह राजकाज अथवा राष्ट्रभाषा हिंदी के भाषाई संस्कार को भी मजबूत करेगा। 


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