नाम - लघु कथा

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नाम लघु कथा नाम को याद करने का प्रयास करती हैं किन्तु विफल रहती हैं और वृद्धावस्था पेंशन बनाये बिना घर वापस आ जाती हैं.

नाम - लघु कथा

                                               
ज उसकी तबीयत ठीक नही थी | वैसे  भी उसका शरीर उसका साथ नही दे रहा हैं | घुटनों में बहुत दर्द रहता हैं आँखों से धुंधला दिखाई देता हैं | चलने पर सांस फूल जाती हैं और पैरो में सूजन आ जाती हैं । अपने दैनिक कार्य बह बहुत मुश्किल से कर पाती हैं अब बह बूढी हो चली हैं |हो भी किंयो ना , उसकी उम्र सत्तर के पार हो चली थी। मोहल्ले की एक दो औरत कभी कभी उसका हॉल चल पूछने आ जाती थी। उसकी जिंदगी अजीब सी हो गयी थी। बच्चो के खेलने की हंसी ,पक्षी के चहक ने की आवाज , गाँये, बैल, भैंस की घास चरने के लिए खेतों को जाते समय और वापस आते समय उनके पाँव की आवाज और परोस से आती हुई अस्पष्ट आवाज ही एक मात्र उसके जीने का सहारा थी | उसमे इस बात से कोई ज़्यादा सरोकार नहीं था की दिन कब निकलता हैं और रात कब होती हैं बह एक ना-ले की तरह बिना किसी प्रयोजन के जी रही थी।
                  
किसी ने दरवाजा खटखटा या। बड़ी मुश्किल से उसने उठ कर दरवाज़ा खोला । गांव का एक बच्चा कह रहा था “ दादी प्रधान के घर वृद्धावस्था पेंशन बन रही हैं । आप जाकर बनवा लो। “ इच्छा ना होते हुए भी वह प्रधान के घर जाने को तैयार हो जाती हैं |
                          
प्रधान के घर बहुत भीड़ थी। उस भीड़ को देख कर उसमे एहसास हुआ कि बह अकेली दुखियारी नहीं हैं दरअसल अपने में व्यस्त रहने के कारण बह दूसरे के दुख , उनके दर्द , उनकी खुशी को महसूस ही नहीं कर पाई।
                            
नाम - लघु कथा
अचानक पेंशन बनाने बाले बाबू ने उसके समीप आकर पूछा कि दादी अपना नाम बताये। बह अचेतना से जागी। उसका नाम याद ही नहीं आ रहा हैं| बह अपने नाम को याद करने की बहुत कोशिश करती हैं, लेकिन बह अपना नाम याद करने में असफल रहती हैं| दरअसल जिंदगी के इतने लम्बे समय में अपने नाम की कभी आवश्यकता ही नहीं हुई। किसी ने उसके नाम से पुकारा ही नहीं। अब जीवन के अन्तिम चरण में बह अपना नाम कैसे याद करे  अपना नाम कैसे लाये .जैसे काफी समय तक शरीर का कोई भाग उपयोग ना हो तो बह बेकार और निर्जीव हो जाता हैं, बे सा ही उसके नाम के साथ हुआ था।
                  
अपने नाम को याद करने की जद्दोजहद में बह अपने दिमाग पर काफी जोर डा लती हैं । काफी दिमाग को कुरेदने पर उसमे एक  सहम  हुई लड़की की धुंधला सी तस्वीर दिखाई देती हैं | जो अपने पिता की गोद में लेटने की चाह रखती हैं  । अपने दादा और दादी से मीठी मीठी बातें करने की चाह रखती हैं | जो घर में खिल खिला कर हस ने की चाह रखती हैं । पक्षियों की तरह उड़ना, चहकना और तैरने की चाह रखती हैं । किन्तु यह क्या ? जब बह अपने कमरे से निकलती हैं , उसके दादा और दादी की भौं तन जाती हैं । उसके पिता का चेहरा गुस्से में लाल हो जाता हैं और माँ सहम जाती हैं । धीरे धीरे उसके समझ में आने लगता हैं की कोई प्यार नहीं करता हैं |लोग पराई , बोझ , दूसरे के घर की और ना जाने किन बेहूदा शब्दों से संबोधित करते हैं । बह इन शब्दों का अर्थ समझने के लिए रात रात भर जगती रहती थी पर ढूंढ नहीं पाती थी। कोई भी उसके नाम से नहीं पुकारा  । यह भी याद नहीं था की उसका कोई नाम रखा भी गया था या नहीं |
                
हल्का सा याद आता हैं की एक दिन उसकी माँ ने डरते और सहमते हुए उसके पिता से कहा था कि हमें बच्ची को स्कूल भेजना चाहिए। माँ के इन शब्दों के कहने भर से ही घर में भूचाल आ गया था। पिताजी ने चीख चीख कर कहा था कि " पढ़ लिख कर बेटी कौन सी कलक्टर बन जाएगी । घर में खाने को नहीं हैं और तुझे बेटी को पढ़ा ने की सूझ रही हैं | अभी दस बारह साल बाद इसकी शादी करनी हैं । “ अब बह धीरे धीरे इन सब बातों का अर्थ समझने लगी थी और उसकी समझ में आ गया था कि बह पढ़ने की इच्छा रखने के बाबजूद स्कूल नहीं जा पाए गी। स्कूल के दर बाजे उसके लिए हमेशा के लिए बंद हो गए। घर के चौका बर्तन , झाड़ू पोंछा जानवरों के लिए खेत से चारा लाना , घरबालो के लिए खाना बनाना और सो जाना यही उसकी जिंदगी थी। 
            
जब उसके खेलने की उम्र थी तब एक अधेड़ के साथ उसका बियाह कर दिया गया या या कहो तो बेच दिया गया था। अब उसका नाम बदल गया। अब बह फला ने की बेटी की जगह फला ने की बहू बन गयी। थोड़ा आगे जाने पर याद आते हैं अपनी सास के ताना जिसमें बह कहा करती कि " दो बेटी पैदा कर दी , एक बेटा जन नहीं पाई। अब उसका बंस कैसे चले गा।” उसकी समझ में यह कभी नहीं आया कि बंस को आगे बढ़ने के लिए बेटा क्यों जरूरी हैं बेटी क्यों नहीं। दो पीढ़ी के बाद किसी को अपने पर दादा का नाम याद नहीं रहता हैं तो बंस कैसे चलता हैं     याद आता हैं कि जीवन के इस मुकाम पर उसने खुद को बहुत व्यस्त रखा , उसने अपनी बेटी को बह सब कुछ दिया जिसके लिए वह तरसती थी। लेकिन जीवन के इस दुंब में , जीवन के इस जिद्दोजहद में कभी भी अपने बारे में ,अपना नाम को याद करने के बारे में समय ही नहीं मिला।
          
आज सत्तर बरस बाद अपने नाम को याद करने का प्रयास करती हैं किन्तु विफल रहती हैं और वृद्धावस्था पेंशन बनाये बिना घर वापस आ जाती हैं.
                                                                      



- अशोक कुमार भटनागर 
               रिटायर वरिष्ठ लेखा अधिकारी  
रक्षा लेखा विभाग , भारत सरकार

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