मिट्टी मिट्टी का फर्क - हिंदी कहानी

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मिट्टी मिट्टी का फर्क हिंदी कहानी रोडवेज विभाग में सांख्यकी अधिकारी के पद पर जयपुर से टोंक ट्रांसफर हुआ था. उसके होठ बुदबुदा रहे थे “काहे का ऑफिसर हूँ

मिट्टी – मिट्टी का फर्क 


रिश्वत देना और लेना अपराध है” ये आधिकारिक कोटेशन रोडवेज़ ऑफिस के मुख्य द्वार पर ही नहीं बल्कि ऑफिस में चार जगह लिखा है. इस लिखित विचार के सामने खड़े देवेन्द्र का मन कह रहा है – 

पोछा मार दूँ इस पर !

पर, नौकरी उसे बहुत कुछ कहने और करने से रोक रही थी. ऐसे अमृत वचनों के प्रतिनिधि बाबू, कुर्सियों पर रोली या चन्दन की बड़ी - सी बिंदी या टीका लगा कर बैठते हैं जो कहते हैं, हमारी बात तो सुनो ! इस लिखे पर मत जाओ, ये तो ऐसे ही लिख दिया है, लिखना पड़ता है भाई ! 

हाल ही में उसका रोडवेज विभाग में सांख्यकी अधिकारी के पद पर जयपुर से टोंक ट्रांसफर हुआ था. उसके होठ बुदबुदा रहे थे “काहे का ऑफिसर हूँ, यहाँ कोई किसी को गाँठता नहीं, जब तक पावर नहीं हो. मैडम को गाँठते हैं अगली आर. ए. एस है, पावर रखती है साहब, तनख्वाह चाहे हमसे दोगुनी हो पर, स्टेंडर्ड आठ गुना मेंटेन करती है”.

साथियों ने समझाया था कि “पगले, दूसरे शहर में खाने – पीने और रहने में बहुत खर्चा होगा इससे तो तू इस मैडम को ही कुछ दे, दवा दे तो अच्छा रहेगा, वरना पछताएगा. टोंक में ट्रांसफर होने से दो – तीन हज़ार तो हाउस रेंट वैसे ही कम मिलेगा. ऐसे में चार - पाँच महीने हो गए तो हो गए न, बीस हज़ार ! इससे तो मैडम को बीस हज़ार पकड़ा और मजे से रह घर में. सब यूँ ही काम चलाते हैं. तू ही देश सुधरेगा क्या ? देखना, मुँह की खाएगा”. 

उसकी ज़िन्दगी बड़ी लड़खड़ाती चल रही थी पर, उसके अन्दर का आदमी मान ही नहीं रहा था, शुभचिंतकों की सलाह. उसके अन्दर की आवाज़ आवाज़ कहती “नहीं तो नहीं, बस ! चाहे नुकसान हो जाए. मैंने आज तक रिश्वत ली नहीं, तो दूँगा भी नहीं”. 

मिट्टी मिट्टी का फर्क - हिंदी कहानी
नहीं ली होगी तूने, पर देनी तो पड़ेगी. सुरेश ने उसे समझाने की आखिरी कोशिश की.   

उसने अपने जीवन में ऐसे तमाम उसूलों के चलते ख़ूब नुकसान भुगता था, ढेर दुश्मनियाँ कमाई थीं लेकिन  दिमाग और दिल की इस लड़ाई में वह जानता था कि उसका दिल ही जीतेगा.  

सो ऑफिस और घर में समझाइश ही समझाइश चल रही थी, अब तो कान पक गए थे उसके.

ऑफिस से आने के बाद घर पर पत्नी रोज़ शाम को सिर खाती.

“बन रहे हो बड़े हरिश्चंद्र के बच्चे” दे दवा दो, जो वो माँगती है, सारी दुनिया ले - दे के ही काम चला रही है. 

उसने भी एक ही जवाब पकड़ रखा था, मैंने कभी किसी से एक पैसा लिया है, जो दूँ ? नहीं दूँगा ! बिलकुल नहीं दूँगा !

“मत दो, तो होते रहो परेशान ! नहीं लिए होंगे तुमने, पर देने तो पड़ेंगे, सब तुम्हारे जैसे ही थोड़े हैं. आज की दुनिया में कौन पूछता है तुम जैसे लोगों को” ? पत्नी ने भी ये वाक्य गाँठ में बाँध रखे थे तो देवेन्द्र ने भी अपना जवाब गाँठ में बाँध रखा थे पर, वो बीच – बीच डरता भी था. कितना मुश्किल है ऐसे ज़माने में ऐसी कोई गाँठ बाँधकर रखना. पर, जब वह आत्मविश्वास से अपना जवाब दोहराता है तो उसकी गाँठ और कसती जाती थी.

उसकी चौथी पढ़ी पत्नी, ऑफिस के वाकये सुन - सुन के ऑफिस की आँच भाँपती रही है. देवेन्द्र रोज़ शाम को घर आ कर ऑफिस की रामायण उसे ज़रूर सुनाता. आदमी, जो ऑफिस में नहीं कह पाता उसे घर पर तो कह सकता है न ! पत्नी भी बिना कभी उसके ऑफिस गए ही ऑफिस के लोगों को मौखिकतौर पर जानने लग गई है. खासतौर से वह अपनी मैडम के किस्से पत्नी को जरूर सुनाता रहता है. “मैडम के गुर्गे भाँपते रहते हैं कौन – कौन डरता है ट्रांसफर से ? किसकी नस कमज़ोर है. जिसकी नस कमज़ोर होती है उनके दिल की थाह पा कर ये गुर्गे मैडम तक पहुँचाने का काम करते हैं. गुर्गों का क्या ? थोड़े समय कागज़ काले – पीले किए, चार बिलों पर साइन करवाए, कम्प्यूटर पर घंटे – दो घंटे टक – टक किया और लो, हो गई आज की नौकरी. 

एक गुर्गे ने तीन महीने पहले जब देवेन्द्र के ट्रांसफर की बात उसके कान में डाली तो देवेन्द्र ने यही कहा “अरे, यार ! देख तू तो जानता ही है मेरे घर के हालात, घरवाली बीच – बीच में खाट पकड़ लेती है. बड़ी बेटी को उसके ससुराल वालों ने छोड़ रखा है वो प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाती है. छोटी बेटी, बावड़े बेटे को सँभालती है. मुझे बख्श यार”. 

बस फिर क्या था ? अन्दर से तो देवेन्द्र को मुसीबतों ने मार ही रखा था, ये मुसीबतों का मरण अगर बाहर दुनिया को दिख जाए तो दुनिया उसे और मारती है. सो गुर्गे को आज एक नया बकरा मिल गया. अगले महीने ही देवेन्द्र का ट्रांसफर टोंक हो गया. बावड़े बेटे की आधी मम्मी तो वही था. दो दिन सिक लीव ले कर बैठा रहा पर, कितने दिन बैठता ? आखिर ज्वाइन तो करना ही था. 

कर लिया टोंक ज्वाइन. अब घर तो यहाँ था नहीं, सो खाने – पीने की दिक्कत तो होनी ही थी. दो समोसे और केले, दोपहर का भोजन होते. दिल और दिमाग दोनों पता नहीं क्या – क्या दिनभर बतियाते रहते.

बहुत मुश्किल होगा यहाँ रहना तो, अप – डाउन कर लेता हूँ. शुरू हुई अप – डाउन सात दिन से ज्यादा नहीं चल पाई. हर दिन घर लौटने पर छोटी बेटी, शाम को बताती कि छोटू आज कहाँ – कहाँ निकल गया था और फिर वह कितनी मुश्किल से उसे ढूँढकर लाई. एक दिन किसी की बाइक से घर के बाहर टकरा गया तो उसके सिर से खून आ गया था और मम्मी – मम्मी करके खूब देर तक रोता रहा था.

छोटी हर शाम कहती पापा यहाँ ट्रांसफर नहीं हो सकता क्या ? 

क्या कहता ? मुखिया के उसूलों का खामियाजा सारा परिवार भुगतता है.

आठवें दिन देवेन्द्र पहुँच गया, मैडम के दरबार में पूरे बीस हज़ार ले कर. “मैडम आप तो यहीं बुलवालो, घर पर बहुत दिक्कत हो रही है”.

देखते हैं अभी ! पीछे बेंच पर बैठे गुर्गे ने आँख दबाई कि अब चिंता मत कर. अब हो जाएगा तेरा काम.

उसे विश्वास नहीं हुआ कि पैसा काम को कितना आसान कर देता है. 

घर में घुसते हुए उसने सबसे पहले यह खुशखबरी दी. बेटी ने पूछा, तो पापा कल से यहीं के ऑफिस में जाओगे ? 

“अरे, नहीं बेटा ! बस, एक – दो दिन में वहाँ से रिलीव होने के बाद यहीं के ऑफिस में जाऊँगा. इसके लिए एक  - दो दिन टोंक और जाना पड़ेगा”. 

अगला दिन तो टोंक स्टाफ के साथ पार्टी में ही निकल गया. 

रिलीविंग ऑफिसर थोड़ा हुमककर बोला देवेन्द्र जी, होमटाउन जा रहे हो, अब तो हो जाए पार्टी ? जैसे सप्ताह भर में देवेन्द्र जी के सब जिगरी बन गए हों. जिनके आने की बहुत ख़ुशी और जाने का बहुत दुःख हो रहा हो. बस हो गए उस दिन देवेन्द्र जी के पार्टी के नाम छह सौ रूपये ठंडे. 

लगा कल रिलीविंग लेटर ला कर बस जमा करवा दूँगा और परसों होमटाउन में ज्वाइन लेकिन कल और परसों रिलीविंग ऑफिसर छुट्टी पर थे अगले दो दिन वीक एंड. अब क्या करता बेचारा ? 

चलो, सोमवार को तो रिलीविंग लेटर मिल ही जाएगा तो मंगलवार को ज्वाइन. सोमवार को रिलीविंग ऑफिसर ने काम की व्यस्तता बताते हुए अपना टालू रवैया दिखाया. “बना देंगे, बना देंगे लेटर, कहाँ जा रहे हैं हम ? जा तो आप रहे हो---”

सप्ताह भर हो गया आजकल – आजकल करते. रिलीविंग लेटर मिलता तो ज्वाइनिंग होती ! न लैटर मिला न, होमटाउन में जॉइनिंग हुई. 

सुबह – सुबह फोन पर बात हुई “यार आज बना दोगे क्या लेटर ? बना देंगे--- बना देंगे---“ 

चलो, तो आज बन जाएगा लेकिन रिलीविंग ऑफिसर जब लंच के बाद आए तो काम का रोना रोते रहे और चलता रहा आश्वासन, बन जाएगा---बन जाएगा---पर बना नहीं.

उसका मन कर रहा था कि उसे गाली दे दे साले, चोट्टे ! तेरा बाप भी बनाएगा लेटर. पर, सरकारी महकमे में किसी को सामने गाली देना जैसे पाप है. ऐसा करने पर तो साला सौ चक्कर कटवाएगा. उसके पैरों से ज्यादा दिमाग चक्कर काटने लगा.

अगले दिन परेशान हो कर फिर पहुँच गया मैडम के दरबार !

“मैडम ट्रांसफर तो हो गया पर रिलीविंग ऑफिसर, रिलीव नहीं कर रहा है, सप्ताह भर हो गया है”.

मैडम ने अपने कुटिल चेहरे का होठ दांत में दबाते हुए कहा -

“अपनी तो ट्रांसफर की बात हुई थी--- ट्रांसफर तो हमने कर दिया---रही बात रिलीव करने की तो, उनसे कर लो बात, कर देंगे रिलीव”.

देवेन्द्र बुद्बुदाता - सा कमरे से बाहर निकला “सही बात है मैडम, आपने तो अपना काम कर दिया---” जिसका काम, उसी को साजे--- यहाँ हर कोई एक सीढ़ी जितना ही काम करता है, अगली सीढ़ी चढ़नी है तो फिर ऐसे ही पैर बढ़ाना होगा जैसे पहली सीढ़ी पर बढ़ाया था. छत पर पहुँचाने की गारंटी यहाँ कोई नहीं लेता.

फिर चलो टोंक !

“यार भाईसाहब, आज तो बना ही दो लेटर”.

“यार, देवेन्द्र भाई, तुमने ट्रांसफर करवाने के लिए वहाँ भी तो थोड़ा बहुत खर्चा – पानी किया होगा, भाई थोड़ा हमारा भी ख्याल रखो, तो अपना भी जेब खर्च निकल जाए”. 

मरता क्या न करता ?

बिना नोट खींचे तो रिलीविंग लेटर बनाएगा नहीं ये कमीना ! बारह सौ रूपये दिए, तब बना देवेन्द्र बाबू का रिलीविंग लेटर. यहाँ बाबू बिल पास करवाने जैसे कामों के लेता है कई सौ रूपये, मैडम आर. ए. एस हैं तो ट्रांसफर करने और कैंसिल करने के लेती है कई हज़ार. नौकरी पर आँच आ जाए तो आई. ए. एस लेता है कई लाख. सबने अपनी – अपनी औकात के हिसाब से खन्दी बाँध रखी है. क्या करें ?

अनुपमा तिवाड़ी
अनुपमा तिवाड़ी

पहले वाली वो दुर्गा मैडम बहुत अच्छी थी पर, सालों ने टिकने नहीं दिया उन्हें. जब शहर में आईं तो दो – तीन गुर्गे पहुँच गए उनके बंगले पर, ट्रक से उनका सामान उतरवाने. मैडम के पति बिहार में सरकारी अस्पताल में डॉक्टर थे. सीधी सज्जन महिला थी बेचारी. हमारे ऑफिस में दो – तीन हैं ही बदमाश. दोनों – तीनों में होड़ चलती रहती देखें, कौन ज्यादा मैडम की मेहरबानी पाता है ? नए साल पर मोहित बाबू ने तो फोन पर रात को बारह बजे सबसे पहले मैडम को बधाई दी. 

लियाकत भी कब पीछे रहता ? पहुँच गया मैडम के घर सुबह – सुबह फूलों का गुलदस्ता ले कर. 

अरे ! मैडम, आपने खिड़कियों पर परदे नहीं लगवा रखे ? बड़ा अजीब लग रहा है आपका ड्राइंगरूम तो !

“नहीं – नहीं मुझे तो ये टीम - टाम ज्यादा पसंद नहीं है. यूँ मुझे ड्राइंगरूम में बाहर की हवा आती अच्छी लगती है. बाहर हैजिंग लगी होने से सड़क पर रस्ते चलते आदमी को तो कुछ दिखता नहीं”. ऐसे में पर्दों की क्या ज़रुरत है ? 

“मैडम मैं ले कर आऊँगा, आपके ड्राइंग रूम के लिए पर्दे”.

सो अगले दिन मैडम के ड्राइंगरूम में लग गए डबल शेड के पर्दे. 

कितनी संतुष्टि मिलती है जब बॉस कृपा करने का मौका देता है. और नहीं दे तो, मौका लेना आना चाहिए बाबू ! धर्मेश ने सीधा हिसाब पकड़ रखा था प्रशासनिक अधिकारियों को नए साल और दीवाली पर तीन से चार हज़ार का गिफ्ट देना, अकाउटेंट और पावर वाले साथियों को होली, दीवाली राम – राम करना और अपने जैसों को तो भाई – भाई कह कर अपनापन जताना ही काफी होता था. पगचम्पी भी हैसियत के हिसाब से की जाती है बाबू ! हालाँकि जिसने उसे ये गुर सिखाए थे उसके रिटायर होते ही सबसे पहले धर्मेश ने उसका नाम अपनी फोन लिस्ट से निकाला था. तो तीनों गुर्गों में होड़ लगी रहती कि मैडम का काम करके कौन सबसे अधिक कृपादृष्टि प्राप्त करे. 

चार महीने के बाद दुर्गा मैडम की बेटी की शादी हुई. आजकल शादी में काम – काज पहले जैसे तो होते नहीं. पैसा फेंको हर इंतजाम झट से हो जाता है. एक फोन पर सब - कुछ बुक हो जाता है. अब बेचारे गुर्गे क्या करते ? मैडम की कृपादृष्टि पाने का यह एक अच्छा मौका था जिसे तीनों ही खोना नहीं चाहते थे सो एक ने स्टील का डिनर सेट, दूसरे ने वाशिंग मशीन और तीसरे ने फ्रिज दिया. वे जानते थे ये समीकरण कि जितना खर्च करोगे उसका दस गुना जेब में आएगा. “किसी से छोटी गलती करवाकर, आप बड़ी गलती करने का मौका प्राप्त कर सकते हो” जैसे मंत्र उनके होठों से जब – तब एक अजीब से गुरुर के साथ फूटते रहते और ऐसे ज्ञान की पोटली वे जेब में लिए घूमते रहते. तीनों ने परिवारों समेत दुर्गा मैडम की बेटी की शादी में जमकर जीमा, गिफ्ट दिया और देर तक मुँह में पान दबाकर घूमते रहे.---मैडम के बहुत ना - नुकुर के बाद भी तीनों गिफ्ट दे कर धन्य हुए. अब क्या था. आगे सब अपना - ही - अपना था.

हर महीने राज्य भर की बसों के पार्ट्स खरीदने के लिए तीन करोड़ की खरीददारी होती थी. उसमें कुछ खेरा – खांटा उनको भी तो मिलता था. हर महीने की बन्दरबाँट में दो परसेंट भी बचे तो हो गए न, छह लाख.

बन्दरबाँट के समय मैडम हमेशा दुखी ही होती. बेचारी हर दिन सोचती ये ऐसी चीजों पर साइन – वाइन मुझसे नहीं होते, करवालेंगे साहब से. हर महीने बिल आते और मैडम का मन यही कहता “अबकी बार मैं नहीं करूँगी साइन”. दिए होंगे गिफ्ट मेरी बेटी की शादी में, मैं भी दे दूँगी किसी - किसी बहाने उनके घरवालों को गिफ्ट. 

पर, वहाँ गिफ्ट चाहिए ही नहीं थे. वहाँ गिफ्ट बराबरी के लिए थोड़े ही दिए थे वहाँ तो गिफ्ट के एवज़ में साइन चाहिए थे.

जो भी हो मुझे तो इस बार साइन करने ही नहीं ! जब मैं पैसा खाती नहीं तो मैं उन झूठे बिलों पर साइन भी क्यों करूँ ? नहीं करने मुझे तो साइन. अगली बार लियाकत को कह ही दूँगी. सर से करवा लो साइन.

महीने की आठ तारीख को लियाकत फ़ाइल में दबा कर ले आया बिलों का पुलिंदा.

मैडम, साईन चाहिए बिलों पर !

सर से करवालो !

पर, मैडम पहले तो आपके होंगे न साईन !

नहीं, सर से ही करवालो, वो ही कर देंगे !

पर, मैडम पहले तो आपके ही होंगे न ! आपको क्या दिक्कत है, साइन करने में ? सर को तो कोई दिक्कत नहीं है. बस साइन ही तो करने हैं. लियाकत ऐसे जिरह कर रहा था जैसे साइन करना, मात्र हस्ताक्षरभर  करना होता हो. 

जाओ, मैं नहीं करती साइन.

क्यों ?

बस ऐसे ही !

आप सर से करवा लो, वो तो मुझसे सीनियर हैं. 

पर मैडम आपको तो पता है न कि आपके भी साइन होने हैं, आपके साइन होने के बाद ही सर के साइन होंगे और उसके बाद ही पेमेंट उठेगा !

मैडम के इरादे को लियाकत पढ़ रहा था. उसे लग गया था कि ये मैडम साइन नहीं करेगी. साली, न खुद खाएगी, न हमको खाने देगी. 

लंच के बाद धर्मेश और लियाकत फिर हाज़िर हुए.

मैडम, आप वेरिफिकेशन करवा लो बिलों का. 

देखो, मैं नहीं कर करूँगी साइन. 

अब क्या हो ? 

चलो सर के पास.

सर, मैडम साइन करने से मना कर रही हैं. कह रही हैं सर से करवा लो. 

क्या मतलब ? ये कोई मजाक है, ऐसे कैसे चलेगा ?

घंटेभर बाद मैडम की टेबिल का फोन घनघनाया. मैडम लियाकत मेरे पास आया है वो कह रहा कि आप बिलों पर साईन नहीं कर रहीं. क्या साइन करने में आपको कोई दिक्कत है ? मैं भी तो कर रहा हूँ, वरना बिल कैसे पास होंगे ? एक जूनियर अधिकारी को एक सीनियर अधिकारी इशारे – इशारे में कह रहा है कि उसे ये करना ही पड़ेगा. यहाँ करना पड़ता है भाई ! ये ज्यादा हरिश्चंद्रपना मत दिखाओ. दुनिया ऐसे ही चलती है.

अगले महीने फिर वही साइन का चक्कर. धर्मेश, लियाकत और मोहित ही नहीं एकाउंटेंट, रिलीविंग ऑफिसर और मैडम के बॉस सभी को मैडम खटकने लगी. 

मैडम का व्यवहार बड़ा ख़राब है.

जरा भी व्यावहारिक नहीं हैं.

हम जानते हैं सरकारी महकमे में सबसे बना कर रखनी पड़ती है, तब कहीं चलती है नौकरी.

अभी नई – नई है, काम करना आता नहीं है. ऐसे करेगी तो ज्यादा चल नहीं पाएगी.

तीसरे महीने मैडम के पास साइन होने कोई बिल नहीं आया. ट्रांसफर लेटर आया. मैडम के रिलीविंग के दिन अधिकतर स्टाफ फील्ड में था. सीनियर दिल्ली गए हुए थे. लंच के बाद ऑफिस में बहुत कम स्टाफ था, सामने सिर्फ स्टेनो तरुणा बैठी थी. एक अजीब - सा सन्नाटा पसरा हुआ था. तरुणा मैडम की टेबिल के पास आई और एक कागज़ उनकी टेबिल पर रखे फोन के नीचे थोड़ा दबा कर चली गई जिस पर लिखा था -

मैडम, आप जैसे लोग यहाँ नहीं रह पाते, आपकी ईमानदारी को मेरा सलाम और आपको बहुत – बहुत शुभकामनाएँ ! दुर्गा मैडम की आँखों से आँसू निकल कर गालों पर लुढ़क आए ! वे उठीं और तरुणा के कंधे पर हाथ रखते हुए बोलीं “यहाँ कुछ लोग जिस मिट्टी के बने हैं, मैं उस मिट्टी की नहीं बनी हूँ” तरुणा को महसूस हुआ कि जैसे उसका कंधा भी थोड़ा – थोड़ा मैडम जैसी मिट्टी का हो गया है. वह मैडम के सम्मान में एकदम से अपनी सीट से खड़ी हो गई. मैडम पर लगे लांछनों पर भारी, गर्वीला चेहरा दमक रहा था. घड़ी की सुइयाँ अब छह छूने को भाग रही थीं. मैडम ने गाड़ी बाहर निकाली और गाड़ी घर की ओर बढ़ा ली. पता है सालों बाद भी उस ऑफिस में लोग अब तक कहते हैं एक थीं दुर्गा मैडम !



- अनुपमा तिवाड़ी
  जयपुर 

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