मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना

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मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना


मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना पर प्रकाश डालिए gupt ji ki nari bhawna maithili sharan gupt मैथिलीशरण गुप्‍त yashodhara maithli sharan gupt - मैथिलीशरण गुप्त भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक हैं। उनके हृदय में नारी के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव है। वह मानते हैं - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।' 

इनकी सभी रचनाओं में यह भावना पल्लवित तथा पुष्पित हुई है। गुप्त जी का विचार है कि नारी ही किसी परिवार या समाज को सुधार सकती है। निर्माण तथा समाज सुधार की बात नारियो के सहयोग से ही सम्भव है। समाज में नारियों की अनेक समस्यायें हैं। समाज का प्रतिनिधि प्रबुद्ध साहित्यकार इन समस्याओं का प्रकाशन कर नारी जीवन का पथ प्रशस्त करता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने राष्ट्रीय स्तर पर नारी जीवन को समझा और उसको दिशा दी है। 

नारी का आदर्श रूप 

गुप्त जी  की रचनाओं में नारी के जो भी रूप है, चाहे ये पत्नी के हो या माँ के आदर्श रूप में चित्रित हैं। इन्होंने प्राचीन नारी चरित्रों को नए परिवेश और नवीन ढंग से प्रस्तुत किया है। साकेत, यशोधरा, द्वापर, जयद्रथ वध, सिद्धराज सभी रचनाओं के स्त्री पात्र प्राचीन  होकर भी नवीन है। यही कारण है कि कैकेयी, सीता, उर्मिला, माण्डवी, राधा, कुंती  द्रोपदी, उत्तरा, यशोधरा आदि नारी पात्र अविस्मरणीय बन गये हैं। 

गुप्त जी के प्रायः सभी काव्य पात्र ऐतिहासिक अथवा पौराणिक हैं । परन्तु उनमें आधुनिक युग की सम्वेदना और मानवता है। ये सभी अलौकिक न होकर लौकिक जगत की साधारण नारियाँ हैं। इनमें भारतीयता तथा भारतीय संस्कृति का प्रबल आग्रह निहित है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपनी नारी भावना को मूर्त  करने की दृष्टि से कवि ने साकेत, यशोधरा तथा द्वापर जैसे  काव्यों की रचना की है। इनकी नारी विषयक भावना यशोधरा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यशोधरा में नारी के सच्चे त्याग का आदर्श  दिखाया गया है। गौतम बुद्ध  ने यशोधरा को आदर्श पत्नी कहा है - 
मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना

सुना था कलकण्ठी से ही कहीं
मैंने मन का यह मन्त्र-
तने, पर इतना, जो टूटे नहीं
तन्त्री, तेरा वह तन्त्र ।
बतलाऊं मैं क्या अधिक तुम्हें तुम्हारा कर्म,
पाला है तुमने जिसे, वही बधू का धर्म ।

यशोधरा की व्‍यथा

यशोधरा जैसी पुत्र वधु को प्राप्त कर शुद्धोधन जैसा श्वसुर धन्य हो गया था। इसीलिए वह पुत्र से भी प्रिय है - 

गोपा गर्विणी है आज, आली, मुझे भेट ले,
आँसू दे रही हूं, कह और क्या अदेय है?

निम्नलिखित दो पंक्तियों में नारी जीवन का महत्व स्पष्ट किया गया है - 

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी

आँचल में है दूध और आँखों में पानी"
यही पढ़ सुन जागा पुरुष
आगे पीछे फिर भागा पुरुष||
पिया दूध उस आँचल का
उसी को फिर ताका पुरुष||
परिवर्तन नियम है सृष्टि का 
नारी नही पृथक है सृष्टी से||

अर्थात नारी के आँचल में दूध के रूप में पुत्र के प्रति वात्सल्य है और आँखों के पानी के रूप में वियोग की गर्वमयी वेदना ही नारी जीवन की गाथा का सार है। समस्त संसार उसका पुत्र है। नारी जीवन की सार्थकता मातृपद की प्राप्ति में निहित है - मेरा शिशु संसार वह दूध पिये, परिपुष्ट हो, पानी के ही पात्र तुम प्रभो, रुष्ट या तुष्ट हो ।

यशोधरा के माध्यम से कवि यह भी कहता है कि स्त्री पति के मार्ग में बाधक नहीं होती है -

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

यही भारतीय नारी का वास्तविक गौरव है। गुप्त जी नारी को काम वासना की तृप्ति का साधन मात्र नहीं मानते। वह पाप का भोजन नहीं ,मोक्ष का द्वार है। अपने स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा स्वयं नारी ही कर सकती है। पतिव्रता धर्म नारी के स्वाभिमान का सबसे बड़ा प्रहरी है। कवि मानता है कि माता की गोद सबसे बड़ा शिक्षा गृह है। राहुल कहता है - 

तेरी गोद में ही अम्ब मैंने सब पाया है। ब्रह्म भी मिलेगा कल आज मिली माया है। 

समाज द्वारा नारी जीवन पर जो बंधन लगाये गए हैं ,कवि उनका विरोध करता है। नारी को सम्मानपूर्वक जीने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। उनके आँसूओं के प्रति कवि में सहानुभूति है। रामचरितमानस के उपेक्षित उर्मिला के त्याग को देखकर कवि द्रवित हो उठता है। समस्त साकेत काव्य इसी संवेदना और करुना का मूर्त रूप है। कवि की उर्मिला प्राचीन होकर भी नवीन है। यह भोग्या नहीं दिख पड़ती है। कामदेव को चुनौती देती हुई कहती है कि - 

नहीं भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!

वह अपने प्रियतम लक्ष्मण के पथ की बाधक भी नहीं बनना चाहती है। वह सखी से कहती है - 

प्रिय के पथ में विघ्न न डालूं रहूँ निकट भी दूर। 

नारी भावना प्रेम का मूल्य 

गुप्त जी नारी प्रेम के मूल्य को जानते और मानते भी है। उर्मिला कहती है - सखि दोनों ओर प्रेम पलता है। प्रेम की जय हो जीवन में। 

हमारा इतिहास और हमारी संस्कृति प्रमाण है कि नारियों ने निरंतर त्याग और बलिदान करके पुरुषों को गौरव दिया है। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से इस अतीत के गौरव को गाया है। नारी को दासी बनाने के वे विरुद्ध है। द्वापर काव्य में विधृता के शब्दों में कवि की व्यथा व्यक्त हुई है। विधृता अपने पति से अपने पास के विषय के पूछती है। इस पर पति अधिकार का प्रश्न उठाता है। इस पर वह नारी के स्वत्व की समस्या उठा देती है - 

कुछ भी स्वत्व नहीं रखती क्या, अर्धांगिनी तुम्हारी।। 
उपजा किन्तु अविश्वासी नर हाय! तुझी से नारी। 
जाया होकर जननी भी है तू ही पाप-पिटारी।।

गुप्तजी ने यौन आकर्षण को शारीरिक भूख माना है। गुप्तजी ने नारी आदर्श को विकृत नहीं होने दिया है। विधृता समस्त पुरुष जाती की लम्पटता को चुनौती देती है - 

कामुक चाटुकारिता ही थी, क्या यह गिरा तुम्हारी? 
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी ॥

कवि व्यथित होकर कहता है - 

हाय वधू ने वर विषयक एक वासना ही पायी। 
माँ, बहन और बेटी क्या संग नहीं वो जायी।। 
अविश्वास हा अविश्वास ही, नारी के प्रति नर का। 
नर के तो सौ दोष क्षमा हैं, स्वामी है वह घर का।।

इस प्रकार गुप्त जी नारी को समाज में स्वाभिमान तथा सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार समर्थक दिखाई पड़ते है। इनकी दृष्टि में स्त्री - पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक और सहयोगी है। 


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