अज्ञेय के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ

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अज्ञेय की काव्य विशेषता


अज्ञेय की काव्य भाषा agyeya ki kavyagat visheshta अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ अज्ञेय जी की कव्यगत विशेषताएं अज्ञेय की कविताएं अज्ञेय की साहित्यिक देन सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय आधुनिक हिंदी कविता कवि अज्ञेय प्रयोगवाद - छायावाद की अतिशय कल्पनाशीलता और वायव्यता की प्रतिक्रिया हिंदी साहित्य में दो रूपों में दिख पड़ी। एक ओर सामाजिक यथार्थ को अधिकाधिक उभारने की कोशिस की जाने लगी ,दूसरी ओर व्यक्ति के मांसल मांग और मानसिक कुंठाओं की अभिव्यक्ति सहज भाव से गैर रोमांटिक तर्ज पर की जाने लगी। यद्यपि शुरू में इन दो धाराओं में कोई तीखा विरोध नहीं था और प्रायः कवि अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर लेते थे ,पर धीरे - धीरे ये दोनों धाराएँ दो सर्वथा भिन्न शिविरों की संपत्ति समझी जाने लगी। पहली धारा साहित्य में प्रगतिवाद के नाम से विज्ञापित हुई और दूसरी ओर कुछ अन्य विशेषताओं के साथ जुड़कर कोई अधिक उपयुक्त नाम न मिलने के कारण प्रयोगवाद कहलाई। अज्ञेय इसी प्रयोगवादी धारा के पुरोधा कवि हैं। उनकी काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित है - 

अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ


प्रेम की अभिव्यक्ति 
अज्ञेय ने रोमानी भावुकता का परित्याग कर प्रेम की अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत गहरे और मनोवैज्ञानिक धरातल पर ,किन्तु आवेशहीन शैली में की है - 

भोर बेला–नदी तट की घंटियों का नाद।
चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान–
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।

अज्ञेय प्रेम के प्रदर्शन में किसी प्रकार की कृतिमता अथवा दुराव के पक्ष में नहीं है। जीवन की इस नैसर्गिक मांग को वे सर्वथा सहज रीती से व्यक्त होने देना चाहते हैं। 

प्रयोग बहुलता 
प्रेम भावना का एक प्रमुख अंग नारी का सौन्दर्य वर्णन है। अज्ञेय को लगता है कि सौन्दर्य वर्णन की स्वीकृति भाषा प्रयोग बहुलता से घिसकर पथरा गयी है ,उसके उपमान मैले हो गए हैं और अब उनमें प्रेयसी की मादक छबि को प्रतिबिम्बत करने की सामर्थ्य शेष नहीं है। फलत कवि नए प्रतिक उपमानों की खोज करता है - 

अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका 
अब नहीं कहता, 
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, 
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो 
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है 
या कि मेरा प्यार मैला है। 
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं। 
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच। 

इन पारंपरिक उपमानों को छोड़कर कवि नायिका की देहदृष्टि के लिए पिछली घास ,कलंगी छरहरी बाजरे की आदि सर्वथा नवीन और अछूते उपमानों का प्रयोग करता है ,जिसमें ताजगी भी है और लोक संपृक्ति भी। अज्ञेय ने यदि कहीं पुराने उपमानों का प्रयोग किया भी है ,तो सन्दर्भ बदलकर उनका भी बासीपन दूर किया है। कहीं कहीं श्रृंगार भावना ऋतू सुलभ व्यापारों के माध्यम से संपन्न हुई है। 

विद्रोहत्मकता 
अज्ञेय के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ
अज्ञेय
अज्ञेय के काव्य की एक अन्य दिशा है ,उसकी विद्रोहकता। अज्ञेय के काव्य का एक अनोखा एवंम बहुत बड़ा अंश उनके दुर्निवार अहं की अभिव्यक्ति है। वे न केवल विचारों में प्रत्युत व्यवाहरिक जीवन में भी क्रांतिकारी रहे हैं। राजनीति में उनका सम्बन्ध आतंकवादियों से था और उसके लिए उन्होंने कठिनतम यातनाएं झेली है। कवि की यह विद्रोह भावना उनकी प्रारंभिक कृतियों में बड़े दर्प के साथ व्यंजित हुई है। हरी घास पर क्षण भर में अज्ञेय ने नदी के द्वीप का दर्शन स्वीकार कर लिया है ,जिनका अस्तित्व धारा की कृपा पर अवलंबित है। लेकिन बावरा अहेरी में कवि के दृष्टिकोण में पुनः एक स्वस्थ सामाजिकता के दर्शन होते हैं। बावरा अहेरी में व्यक्ति दृढ़ता और कर्त्तव्यनिष्ठा भी है और समष्टि के प्रति समर्पणशीलता भी है। दीप अकेला जलता रहे और पंक्तिबद्ध होकर रात्री के सघन अन्धकार से संघर्ष भी करे - 

यह दीप अकेला स्नेह भरा 
है गर्व भरा मदमाता पर 
इसको भी पंक्ति को दे दो 
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा 
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा? 
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा 
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित : 

प्रकृति का सजीव चित्रण 
अज्ञेय के काव्य में प्रकृति का सजीव अंकन हुआ है। यहाँ भी उनका दृष्टिकोण रोमानी नहीं ,यथार्थवादी ही है। कवि की दृष्टि प्रकृति के केवल अभिजात्य स्वरुप की नहीं जाती है ,वह उसके लोकसामान्य और अपारंपरिक व्यक्तित्व को भी उभारने का प्रयास करता है। जिस चांदनी के सौन्दर्य की महिमा अनेक कवियों ने अनेक रूपों में गई ,उसका यह पक्ष देखिये - 

वंचना है चाँदनी सित,
झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार-
शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार!
दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता,
वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार-
इधर-केवल झलमलाते चेतहर,
दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में
सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़!

वस्तुतः आज के नागरिक कवि के लिए प्रकृति की निरपेक्ष सत्ता पर मुग्ध होना सहज नहीं रह गया है। एक तो वह जीवन के व्यस्त क्षणों में से प्रकृति के पास जाने का अवकाश ही कम निकल पाता है और जब वह प्राकृतिक दृश्यावलीयों के सामने खड़ा होता है ,तब वहां भी उसके अवचेतन संस्कार और मानसिक संघर्ष उभरे बिना नहीं रहते हैं। 

अज्ञेय की काव्य भाषा 

अज्ञेय की भाषा प्रतीकात्मक है। उन्होंने महसूस किया है कि काव्य भाषा उन्हें उत्तराधिकार में मिली थी ,वह आधुनिक युग की जटिलताओं को व्यक्त करने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। उनकी व्यंजकता घिस गयी थी। इसीलिए उन्होंने भांति - भाँती के प्रयोगों से उसकी व्यंजकता बढ़ाने का प्रयास किया। इस कार्य के लिए प्रतिक पद्धति का आश्रय सबसे उपयुक्त साधन है। कवि की इत्यलन तक की काव्य भाषा तत्सम प्रधान है और उसका तेवर छायावादी। किन्तु परिवर्ती काव्य में जिस प्रकार की रोमांटिक मनोदशा को अपनाया है ,उसी प्रकार भाषा को भी छायावादी संस्कार से मुक्त कर तद्भव सामर्थ्य का उपयोग किया है। अज्ञेय की काव्य भाषा का चरम निखार आँगन के पार द्वार में दिख पड़ता है ,जहाँ भाषा ऊपर से बिलकुल सीधी और अलंकृत होती हुई भी भीतर से अत्यधिक संकेत गर्भित और मर्मस्पर्शी बन गयी है। 

अज्ञेय की छंद योजना 

अज्ञेय की छंद योजना में भी नवीनता है। वे क्रमशः छायावाद युगीन गितिमयता से गद्यकाव्य की ओर बढ़ते आये हैं। निरालाजी ने पिंगल के अनुशासन को समाप्त कर भी अपने मुक्तछंद में लयात्मकता का निर्वाह किया। उनके अधिकाँश मुक्तछंदों के पीछे कवित्त छंद की लय है। अज्ञेय ने अपना परिवर्ती रचनाओं में इस लय के सूत्र को बहुत बारीक कर दिया है। छंद उनके यहाँ एक ढांचा नहीं ,भाव के उन्मेष का माध्यम भर है। कहीं - कहीं कवि ने लोकगीतों की ध्वनियोजना को भी आत्मसात किया है और कहीं उर्दू बह्रों से प्रेरणा ली है। सच पूछा जाए तो निराला और पन्त के बाद हिंदी कविता में सबसे अधिक छंद प्रयोग अज्ञेय ने किये हैं ,हालाँकि वे उनकी अपेक्षा अधिक अदृश्य हैं। 

इस प्रकार अज्ञेय नयी कविता के यशस्वी पुरोधा है और उनका काव्य हिंदी कविता का नवीनतम गतिविधि का मानचित्र है। 


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