प्रकृति का आह्वान

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गत कुछ वर्षों में हिन्दी हाइकु का क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है । दिन-प्रतिदिन नवीन संग्रहों के प्रकाशन से हाइकु विधा समृद्ध होती जा रही है ।

प्रकृति का आह्वान : पेड़ बुलाते मेघ


त कुछ वर्षों में हिन्दी हाइकु का क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है । दिन-प्रतिदिन नवीन संग्रहों के प्रकाशन से हाइकु विधा समृद्ध होती जा रही है । ‘पेड़ बुलाते मेघ’ रमेश कुमार सोनी जी का द्वितीय हाइकु संग्रह है । इनके प्रथम हाइकु संग्रह ‘रोली अक्षत’ की भाँति ही इस संग्रह की भूमिका भी हाइकु जगत की सुपरिचित एवं सुस्थापित हाइकुकार डॉ. सुधा गुप्ता जी ने लिखी है । ज्ञात है कि ‘हाइकु’ सत्रह वर्णों से सुसज्जित विधा है । ‘पेड़ बुलाते मेघ’ संग्रह को सत्रह विविध शीर्षकों – शारदे का सहारा, चीखें बेटियाँ, वो क्या है, प्रीत नगर, सृष्टि महके , मौसम के अंदाज़, चिड़िया रानी, मौसम बिगड़ा है, स्वच्छता अपनाएँ, पानी बाज़ार, भोर से साँझ, चौदहवीं का चाँद, उत्सव, रिश्तों की संजीवनी, जीत का बीज, किराये का मकान, दुनियादारी में विभाजित किया गया है । माँ सरस्वती का वंदन करते हुए ‘शारदे का सहारा’ शीर्षक से कवि ने बत्तीस हाइकु प्रस्तुत किए हैं । आज के इस आधुनिक युग में भी कन्या भ्रूण हत्या की समस्या हमारे समाज में फैली हुई है । इस ज्वलंत समस्या से चिंतित हाइकुकार के कुछ विचार हाइकु के रूप में ‘चीखें बेटियाँ’ शीर्षक के अंतर्गत देखे जा सकते हैं –


गर्भ में डरी / मारो काटो वार्ता से / कन्या बेचारी । (पृ. 17)


बच्चे ईश्वर का रूप है । बच्चे की तुतली बोली की मिठास माँ के क्रोध को शांत कर देती हैं, लेकिन बाल-मजदूरी से उनका बचपन खत्म हो रहा है । यहीं नहीं आजकल पढ़ाई में चल रही प्रथम स्थान की दौड़ ने बच्चों के जीवन को एक बंद कमरे में सीमित कर दिया है –


अंको की दौड़ / बच्चे घरों में कैद / मैदान सूने । (पृ. 20)


प्रेम भाव बहुत निराला है । एक बार जो प्रीत के नगर में बस जाए उसका मन तो बस फिर वहीं बस जाता है, लाख कोशिश कर लो फिर भी प्रीत के नगर से निकलना मुश्किल है । इस तरह के भाव लिए कई हाइकु ‘प्रीत नगर’ में देखे जा सकते हैं  –


पुरानी चिट्ठी  / प्यार का शिलालेख / सुगंध ताज़ी । (पृ. 28)


प्रकृति का आह्वान

हमारी सृष्टि बहुत ही सुन्दर है । भौंरे का गुंजन प्रणय तो न जाने कितने गीत सुना जाता है । गुलाब, चंपा, चमेली, जूही, रजनीगंधा गेंदा आदि फूलों के खिलने से सृष्टि का सौन्दर्य बढ़ जाता है एवं कवि की दृष्टि में यह सुन्दर सृष्टि और भी सुंदरतम प्रतीत हो रही है । ‘सृष्टि महके’ शीर्षक के अंतर्गत सृष्टि के सौन्दर्य को निहारते हुए कवि हृदय कह उठता है –


रात की रानी / ओढ़े श्वेत चुनरी / मस्त कुँवारी । (पृ. 30)

घास-बिरवा / वर्षा में होते युवा / शरद गौना । (पृ. 32)

कवि ने बड़ी ही अनूठी उपमा देते हुए तरबूज- कद्दू को पेटू, भुट्टे के सुनहरी बालों को उसकी दाढ़ी कहा है, –

बड़े पेटू हैं / कुम्हाड़ा-तरबूज / बैठे न उठे । (पृ. 31)

भुट्टे की दाढ़ी / मीठे दाने सजाती /  झरती जाती । (पृ. 31)


शिशिर पेड़-पौधों की टहनियों से सभी पत्तों को छीन लेता है । बिन पत्तों के पेड़ की इस अवस्था को रमेश जी ने दिगंबर कहा है, रूपक का सुंदर प्रयोग देखिए  –


लिबास देता / दिगंबर पौधों को / बसंत राजा । (पृ. 37)


नज़र घुमा कर देखें तो कहीं बसंत में खिले नव पल्लव नज़र आते हैं और कहीं ग्रीष्म की मार से तरबूज पालथी मार के रेत में बैठा नज़र आता है । भीषण ताप एवं गर्मी से झुलस रहे सभी पेड़-पौधे बरखा रानी की प्रतीक्षा करते हुए मेघों को आवाज़ दे रहे हैं –


भिगोने आया / पेड़ बुलाते मेघ / कहे रुको तो । (पृ. 44)

बरखा में भीगे इस खुशनुमा मौसम को देखकर तो परिंदे भी फुगड़ी खेलकर ख़ुशी मना रहे हैं –

फुगड़ी खेले / गिलहरी परिंदे / पेड़ गिनते । (पृ. 50)

फूलों के पानी बचाने के अंदाज़ को तो देखिए –

ओस बूँदों से / फूल नहाते रोज / पानी बचाते । (पृ. 54)


अँधेरे को चीर भोर का आगमन कितना सुखद होता है । ऐसा लगता है कि उषा रानी सूर्य का रथ लेकर दिशाओं को जगाने निकली हो । भोर से साँझ के न जाने कितने ही सुन्दर चित्र हम देख सकते हैं । कुछ सुन्दर बिम्ब एवं ‘शर्माती भोर’ में मानवीकरण की छटा कुछ इस तरह है –


स्वागत भोर / तृणों ने सजा लिए / मोती के थाल । (पृ. 61)

शर्माती भोर / कुनमुनाती उठी / साँझ उबासी । (पृ. 61)

फ़ाग-होली, दीपावाली-नववर्ष, राखी आदि विविध त्योहारों के रंग भी इस संग्रह में दिखाई देते हैं, यथा –

रँगरेज वो / जिसे चाहे रंग दे / कोरा रहा मैं । (पृ. 65)

हमारी ज़िंदगी विभिन्न रिश्तों से गूँथी हुई है । हर रिश्ता अपने आप में महत्त्वपूर्ण है । माँ की ममता, बेटी की विदाई, देवरानी-जेठानी की नोंक-झोंक, पति-पत्नी का प्रगाढ़ प्रेम अथवा लिव-इन रिलेशनशिप या वृद्धों का कथा-व्यथा इन सभी को हम बड़े करीब से देखते  हैं ।  कुछ रिश्ते बड़े ही प्यारे होते हैं –

वर्षों के बाद / महाप्रसाद खाया / माँ ने खिलाया । (पृ. 70)

बेटी खेलती / वक्त संग फुगड़ी / बढ़ती जाती । (पृ. 71)

किसी भी रिश्ते को निभाना आसान नहीं, कई बार तो स्वयं को झोंककर रिश्तों को बचाना पड़ता है ।  लेकिन नई पीढ़ी को तो यह और भी मुश्किल लगता है –

नया संस्कार / युवा पीढ़ी चाहती / रिश्तों से मुक्ति। (पृ. 74)

मृत्यु शाश्वत है, शरीर नश्वर है लेकिन आत्मा अमर है – इस बात को रमेश जी ने कुछ इस तरह कहा है – 

तन संवारे! / किराये का मकान / आत्मा को जान । (पृ. 79)

प्रस्तुत संग्रह विभिन्न विषयों से संबद्ध अनेक भावपूर्ण हाइकु लिए हुए है लेकिन प्रकृति विषयक हाइकु बहुत सुन्दर बन पड़े हैं । कवि ने अपने आसपास होने वाली विविध घटनाओं / समस्याओं को अभिव्यक्त किया है और इसलिए कहीं-कहीं सीधे-सादे कथन को हाइकु के वर्णक्रम में पेश करते हुए सपाट बयानी के शिकार हो गए हैं – 

बुरा न सोचे / अच्छे को अच्छा कहें / टाँग ना खींचे । (पृ. 89)

कुल मिलाकर यह संग्रह एक अच्छा हाइकु संग्रह है, रमेश जी को इस संग्रह के लिए शुभकामनाएँ एवं साधुवाद । भविष्य में भी रमेश जी द्वारा रचित हाइकु का रसास्वदन प्राप्त होता रहे ऐसी कामना करते हैं ।  


हाइकु संग्रह : पेड़ बुलाते मेघ, हाइकुकार : रमेश कुमार सोनी, पृष्ठ : 100, संस्करण : 2018, मूल्य : 310 /- प्रकाशक : सर्वप्रिय प्रकाशन, 1569 प्रथम मंजिल, चर्च रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली - 110006



- डॉ. पूर्वा शर्मा 

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