मोचीराम कविता सुदामा पांडेय धूमिल

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मोचीराम कविता सुदामा पांडेय धूमिल 



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मोचीराम कविता की व्याख्या भावार्थ अर्थ 


राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

भावार्थ - 
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि मोचीराम पुराने जूतों की मरम्मत करने वाला एक दलित व्यक्ति है, जो कवि धूमिल जी से कुछ कहना चाहता है | मोचीराम के हाथ में जूतों की मरम्मत करने वाला उपकरण है। उससे नज़र हटाकर आँखे ऊपर उठाकर कवि को थोड़ी देर तक देखता है। ऐसा लगता है मानो वह कवि में कुछ ढूँढने का प्रयास कर रहा हो। उसे टटोलने की कोशिश कर रहा हो | या फिर जैसे वह उसे परखना चाहता हो। उसके बाद मोचीराम ने कवि से हँसते हुए उस पर विश्वास करते हुए बोला कि सच कहूँ बाबूजी मेरी नज़र में ना कोई छोटा है ना कोई बड़ा है | मेरी दृष्टि में सभी समान है। मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है, जो भी मेरे सामने खड़ा है वह अपने जूते की मरम्मत कराने के लिए खड़ा है। मेरा काम उसके जूते की मरम्मत करना है | इससे ज्यादा मेरे लिए कुछ नहीं है | मैं सब को एक समान समझता हूँ | 

और असल बात तो यह है
मोचीराम कविता सुदामा पांडेय धूमिल
सुदामा पांडेय धूमिल
कि वह चाहे जो है

जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

भावार्थ - 
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि मोचीराम अपने मन की बात बताते हुए कहता है कि असल बात यह है कि वह चाहे जो भी है , जहाँ है वह वही है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। वह जिस हालत में रह रहा है ,उसी में वह जिन्दा है। और जूते का जितना साइज है, वह उतना ही रहेगा वही उसकी सीमा है । मुझे मालूम है यह बात हमेशा ध्यान में रखता हूँ कि मैं एक पेशेवर पुराने जूतों की मरम्मत करने वाला मोची हूँ। मुझे पता है कि एक पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच कोई आदमी है, जिसे जूतों में लगने वाले टाँके की चोट पड़ती है, जो जूतों से निकल कर ऊँगली को जोर से लगती है, उँगलियों को यह चोट हथौड़े की मार की तरह लगती है, लेकिन उसे सहना पड़ता है | 


यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक चेहरा पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

भावार्थ - 
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि मोचीराम अपनी बात व्यक्त करता है और बताता है  मेरे पास तरह-तरह के जूते लेकर के अलग-अलग रूप में आदमी आते हैं उसे ठीक कराने के लिए। वे सब मेरे पास आते हैं, सभी की अपनी एक अलग पहचान है | वे सभी अपने आप में ही चुप रह कर भी अपनी औकात, वजूद और नए पन को व्यक्त करते हैं। उनके स्वरूप और बनावट में विभिन्नता होती है। ठीक उसी प्रकार एक जूता है छोटे-छोटे टुकड़ों से बनी हुई । जूता एक थैली समान होती है, जिसे एक आदमी पहनता है, मगर अलग-अलग रूप में होता है | हर आदमी इस उम्मीद में जीता हैै की कभी तो हम नए जूूते पहनेंगे। गरीब आदमी कभी उम्मीद नहीं छोड़ता हैै। उसकी उम्मीद ठीक ऐसी है, जैसे टेलीफोन के खंभे पर एक पतंग उसमें उलझ कर फँस जाता है और इस आशा में रहता है कि मैं इस बंधन से जल्द ही मुक्त हो जाऊँगा | यह सोच कर कोशिश करता रहता है | 

‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो ?'
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि मोचीराम जूते सिलवाने आए आदमी से कहना चाहता है कि बाबूजी जूते की मरम्मत पर पैसा खर्च मत करो। लेकिन वह यह सब अपने मन में ही कहता है। उसकी आवाज़ लड़खड़ा जाती है, वह कहता हैै कि मैं भीतर से काँप जाता हूँ । मेरे अंदर से आवाज़ आती हैै, यह कैसा आदमी है जो अपनी मनुष्य जाति पर थूक रहा है। जो जूते की हालत को नहीं देख पा रहा। कोई जगह नहीं खाली जहाँ टाँके नहीं लगा रहा हूँ। उस वक्त मैं जूतों को नए सिरे से  जोड़ता हूँ | छोटे-छोटे टुकडों को समेटकर मेरी आँखें उसी में लगी होती है और पेशे से जुड़े हुए आदमी को बहुत ही मुश्किल से देख पाता हूँ | 


एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि एक जूता और है, जिसे एक आदमी पैरों में बांधकर घुमने के लिए निकलता है | ना तो वह व्यक्ति बुद्धिमान लगता है और ना ही वो वक्त का पाबन्द है | उसकी आँखों में लालच नज़र आता है। हाथों में तो वह घड़ी पहन कर निकला है, लेकिन उसको जाना कँही नहीं है बस चेहरे में हड़बड़ी नज़र आ रही है। ना तो वह बनिया है और न ही बिसाती है लेकिन तेवर उसके ऐसे हैं जैसे की वो हिटलर का पोता हो। नखरे ऐसे हैं कि मत पूछो इसे काटो, उसे बांध दो, इसको ठोक दो, यहाँ घिस दो जूते को चमका दो ऐसा बना दो वैसा बना दो बस यही करते रहता है। और तो और रुमाल निकाल कर ओ हो बहुत गर्मी लग रही है कहकर रुमाल से हवा करता है। मौसम के नाम पर बिसराते हुए सड़क पर आते-जाते लोगों को बन्दर की तरह निहारते रहता है।
          
लेकिन दिक्कत यह है कि घण्टों तक काम करवाने के बाद जब काम का पैसा देना होता है तो साफ मुँह से इनकार कर देता है। कहता है शरीफों को लूटते हो कहकर गुस्सा करके कुछ सिक्के फेक कर चले जाता है। वह अचानक उछल कर पटरी पर चढ़ जाता है, लेकिन जब अपने पेशे पर चोट लगती है तो तकलीफ़ बहुत होती है। और मन में ही दर्द कील की भाँति छुपकर रह जाती है, लेकिन मौका मिलते ही वह उँगलियों में निकल जाती है, जो ऊँगली में जोर से गड़ जाती है | 


मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैंI
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है।

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि उस जूते ठीक करवाने आए इंसान की छोटी सोच से मूझे तकलीफ़ जरूर हुई है, मगर इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे कोई संदेह हुआ हो। कवि कहता हैै कि मुझे इस बात का एहसास है कि कहीं न कहीं मेरे पैसे और जूते केेेे बीच कोई अंतर है | यह अंतर का कारण आदमी है। वह एक छोटा आदमी। छोटी हरकत करता है। जूते ठीक करते समय अँगूठे पर हथौड़े की चोट पड़ती है तो उस दर्द को वह दिल में छुपा लेता है। काम करते वक्त दर्द तो होता है पर वह सहन कर लेता है। मोचीराम कहता है कि बाबूजी सच बात तो यह है कि जीवन जीने के पीछे अगर अच्छा उद्देश्य नहीं है तो जीवन व्यर्थ है। उसके बाद राम का नाम लिखा हुआ वस्त्र को बेचकर या वैश्याओं की दलाली करके पैसे कमाने से कोई फर्क नहीं पड़ता | यही वह स्थान होता है जब मनुष्य अपने पेशे को छोड़कर भीड़ में शामिल हो जाता है। तभी उसे लोगों की प्रताड़ना सहनी पड़ती है लोगों का ताना सुनना पड़ता है। हर मौसम उसे बेचैन करती है। जैसे बंसत के मौसम में दिन सुहाना होता है, एक पतली रस्सी की तरह दिन को तानता है, पेड़ों में लाल-लाल लगे हुए पत्ते  हजारों फूल धूप में सिझने के लिए लटकते हैं। वैसे ही मनुष्य का हालत होता है | 

सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है।

भावार्थ - 
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि काम को शराफ़त के साथ करने के बाद यदि तीखी भाषा सुननी पड़े तो मन में दुख होता है। मन में बच्चे की तरह झुंझलाहट और चीख होने लगती है | मैं सच कहता हूँ उस समय जूते की मरम्मत करने वाले औजार के हत्थे को संभलना मुश्किल हो जाता है। हाथ कहीं और जाता है तो आँख कहीं और | मन काम पर आने से बार-बार मना करता है, लगता है जैसे चमड़े की शराफ़त के पिछे कोई जंगल है जो आदमी पर पेड़ से वार करता हो। और यह आश्चर्य की बात नहीं सोचने की बात है कि किसी भी तरह से ज़िंदगी को किताब के आधार पर नहीं मापा जाता। जो ऐसा करता है वह असलियत को नहीं समझता हैै | इसका मतलब यह है कि वह असलियत और अनुभव के बीच के रिश्ते को नहीं पहचानता हैै | वह खून के अवसर पर या किसी घटिया अवसर पर अपनी कायरता का परिचय देता है। वह तो बहुत आसानी से कह देगा कि यार तुम तो मोची नहीं शायर हो लेकिन सच तो यह है कि वह एक बहुत ही दिलचस्प गलफ़हमी का शिकार है | 


जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत  यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘
इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'मोचीराम' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि अगर वह सोचता है कि पेशा एक जाति है और भाषा पर किसी आदमी का नहीं किसी जाति का अधिकार है तो वह गलत है | कवि इस विषय में कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि आग सभी को जलाती है। जीवन की सच्चाई सब से होकर गुजरती है। आग किसी को भी नहीं छोड़ती है। कुछ लोग है जिन्हें शब्दों का ज्ञान हो चुका है। लेकिन कुछ लोग अभी अक्षरों के आगे अंधे बने हुए हैं। अन्याय को चुपचाप सहते हैं क्योंकि वे लोग भूख से डरते हैं पेट की आग उन्हें सताती है। कवि कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि इंकार से भरी एक चीख और एक समझदार चुप का मतलब एक ही है दोनों ही भविष्य बनाने में अपना-अपना फर्ज निभाते हैं। शक्ति दोनों में ही है दोनों अपना समय-समय पर काम करते हैं | 

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सुदामा पांडेय धूमिल का जीवन परिचय

प्रस्तुत पाठ के लेखक या कवि सुदामा पांडेय 'धूमिल' जी हैं | 'धूमिल' जी का जन्म सन् 1936 में वाराणसी के पास खेवली गाँव में हुआ था। उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था। 'धूमिल' नाम से वे जीवन भर कविताएँ लिखते रहे। धूमिल जी को हाई स्कूल पास करने के बाद रोजी-रोटी की फ़िक्र होने लगी, फिर उन्होंने सन् 1958 में आई.टी.आई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विद्युत अनुदेशक बन गए | 38 वर्ष की अल्पायु में ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई। इनकी अनेक कविताएँ समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी है। धूमिल जी को मरणोपरांत 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इनके काव्य-संस्कारों में एक खास तरह का गँवई पन है, जो उनके व्यंग्य को धारदार और कविता को असरदार बनाता है। संघर्षरत लोगों के प्रति इनके मन में अगाध करुणा है। इनकी कविता समकालीन राजनीती परिवेश की तस्वीर पेश करती है | सन् 1960 के बाद के मोहभंग को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। इनकी कविताओं में करुणा कहीं आक्रोश का रूप धारण कर लेती है तो कहीं व्यंग्य और चुटकुलेबाजी का। साठोतरी कविता के आक्रोश और जमीन से जुड़ी मुहावरेदार भाषा के कारण इनकी कविता को एक अलग पहचान मिलती है। धूमिल जी की काव्य भाषा और काव्यशिल्प में एक जबरदस्त गर्माहट है। जो बिजली की ताप से नहीं, जेठ के दोपहरी से आती है | 

इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं --- संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे, सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र इनके काव्य संग्रह है...|| 



मोचीराम कविता का सारांश

प्रस्तुत पाठ मोचीराम कवि सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' जी के द्वारा रचित है | प्रस्तुत पाठ में कवि ने कविता के माध्यम से जीवन जीने के लिए सही तर्क की बात कही है। और गलत मार्ग पर चले गए मनुष्य एवं समाज को उसकी पूरी हकीकत के साथ सामने लाने का प्रयास किया है। समाज में विषमता के कई कारण हैं, जिसमें जातिवाद प्रमुख है और इस जातिवाद ने समाज के जड़ों को खोखला कर दिया है। इसमें कवि ने जूतों की मरम्मत करने वाला दलित वर्ग के एक पेशेवर व्यक्ति की बात की है, जिसमें लोग उसको जिस तरह से नीचा समझ कर उसका अपमान करते हैं और खुद को बुद्धिमान समझते हैं। उसे ताने मार कर उसकी निंदा करते हैं। कवि ने मोचीराम के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है। कवि सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग करते हैं। कवि कहते हैं कि हर आदमी को अपनी सीमा एवं दायरा मालूम होना चाहिए, जैसे मोचीराम का जो काम है, वह काम बखूबी कर रहा है। कवि ने मोचीराम के दुख को इस कविता में व्यक्त किया है। धूमिल जी ने भाषा, जाती एवं पेशे के रिस्ते को प्रमाणिकता के साथ इस कविता में उकेरा है | 

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मोचीराम कविता के प्रश्न उत्तर 


निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए --- 
प्रश्न-1 इस कविता में निहित व्यंग्य स्प्ष्ट कीजिए | 

उत्तर- कवि ने इस कविता में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग करते हुए सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है। भाषा, जाती और पेशे के रिस्ते को प्रमाणिकता के साथ व्यक्त किया है | 

प्रश्न-2 पेशे पर चोट कब पड़ती है ? और जब पड़ती है तो क्या होता है ?

उत्तर- 
जब कोई काम करवा के भी खरी-खोटी सुना कर चल देता है और काम के सही दाम भी नहीं देता, तब पेशे पर चोट लगती है और जब पेशे पर चोट लगती है तो बहुत तकलीफ़ होती है | सीने के दर्द कील की भांति चुभता है और मौका मिलते ही ऊँगली में चोट कर देता है | 

प्रश्न-3 'आँख कहीं जाती है'  'हाथ कहीं जाता है' --- ऐसा किन परिस्थितियों में होता है ? 

उत्तर- 
कवि कहते हैं कि काम को शराफ़त के साथ करने के बाद यदि तीखी भाषा सुननी पड़े तो मन में दुख होता है। मन में बच्चे की तरह झुंझलाहट और चीख होने लगती है मैं सच कहता हूँ, उस समय जूते की मरम्मत करने वाले औजार के हत्थे को संभलना मुश्किल हो जाता है। हाथ कहीं और जाता है तो आँख कहीं और जाता है | 

प्रश्न-4 जिंदा रहने के पीछे सही तर्क से कवि का क्या तात्पर्य है ? 

उत्तर- कवि कहते हैं कि ज़िंदा रहने के पीछे अगर अच्छा उद्देश्य नहीं है तो जीवन व्यर्थ है। उसके बाद राम का नाम लिखा हुआ वस्त्र को बेचकर या वैश्याओं की दलाली करके पैसे कमाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता | 

प्रश्न-5 ज़िंदगी को किताब से नापने वाले व्यक्ति के बारे में कवि के क्या विचार हैं ? 

उत्तर- जिंदगी को किताब से नापने वाले व्यक्ति के बारे में कवि कहते हैं कि यह आश्चर्य की बात नहीं सोचने की बात है, कि किसी भी तरह से ज़िंदगी को किताब के आधार पर नहीं मापा जाता। जो ऐसा करता है वह असलियत को नहीं समझता हैै | इसका मतलब यह है कि वह असलियत और अनुभव के बीच के रिश्ते को नहीं पहचानता हैै | वह खून के अवसर पर या किसी घटिया अवसर पर अपनी कायरता का परिचय देता है। वह तो बहुत आसानी से कह देगा कि यार तुम तो मोची नहीं शायर हो लेकिन सच तो यह है कि वह एक बहुत ही दिलचस्प गलफहमी का शिकार है | 

प्रश्न-6 कविता में चित्रित समाज और अपने आस-पास के समाज के बीच आप क्या संबंध पाते हैं ? लिखिए |

उत्तर- कविता में चित्रित समाज और हमारे आस-पास के समाज में आज भी पेशे, जाती और भाषा के नाम से भेद-भाव किया जाता है | कवि ने कविता में जिस परिवेश का चित्रण किया है, आज भी हमारे समाज में वह पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है | आज भी पेशे के नाम पर लोगों को नीचा दिखाया जाता है। उनके साथ बदसलूकी किया जाता है। समाज के विषमता के कई कारण है, जिसमें आज भी जातिवाद प्रमुख है | 

प्रश्न-7 इस कविता में आप भाषा और शिल्प के संबंधी क्या नवीनताएँ पाते हैं ? 

उत्तर- 
इस कविता में भाषा और शिल्प संबंधी निम्नलिखित नवीनताएँ हैं --- 

• मोचीराम राम की दृष्टि में सभी सामान हैं।
• भाषा सरल एवं स्वाभाविक है।
• कवि ने आम आदमी की भाषा को अपनाया है ।
• भाषा में व्यंगात्मकता है।
• शब्दों में सरलता है।
• कवि ने सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया है।
• कवि ने गरीबी की झलक को जूते के माध्यम से
  दिखाया है।
• इसमें यथार्थ का चित्रण हुआ है।
• उर्दू शब्दों की प्रधानता है।
• इसमें उपदेशात्मक शैली अपनाई गई है।

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मोचीराम कविता से संबंधित शब्दार्थ


• राँपी - चमड़ा छिलने, तराशने का एक औजार
पतियाये हुए - विश्वास किये हुए
• नवैयत - किस्म, तरह, प्रकार
चकतियों - छोटे-छोटे टुकडों को जोड़कर, पैच वर्क
नाँधकर - बाँधकर
नामा - रूपया-पैसा, रकम
बिसूरता है - दुखी होता है, सोच में पड़ जाता है
नट जाना - नकार जाना, मना करना
रामनामी - राम नाम लिखा हुआ ओढ़ने का वस्त्र
ताँत - पतला धागा, पतली रस्सी
मुठ - हत्था, बेंत
कमजात - ओछा, घटिया  | 


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