आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर

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आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर



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आवारा मसीहा पाठ का सारांश 

प्रस्तुत पाठ या जीवनी आवारा मसीहा लेखक विष्णु प्रभाकर जी के द्वारा लिखित है | वास्तव में यह महान कथाकार 'शरतचंद्र' की जीवनी है, जिसे प्रभाकर जी ने लिखा है | परन्तु, इस पाठ में केवल 'आवारा मसीहा' उपन्यास के प्रथम पर्व 'दिशाहारा' का अंश ही प्रस्तुत है | उपन्यास के इस अंश में लेखक ने शरदचंद्र के बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक के अलग-अलग पहलुओं को वर्णित करने का प्रयास किया है | जिसमें बचपन की शरारतों में भी शरद के एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। उनके रचना संसार के समस्त पात्र हकीकत में उनके वास्तविक जीवन के ही पात्र हैं | 

वैसे तो अपनी माँ के साथ बालक शरदचंद्र अपने नाना के घर कई बार आ चुका था | लेकिन तीन वर्ष पहले का आना कुछ और ही तरह का था | शरद के पिता मोतीलाल यायावर प्रवृत्ति (घुम्मकड़) के व्यक्ति थे | उन्होंने कभी भी एक जगह बंध कर रहना पसंद नहीं किया | उन्होंने कई नौकरियों का त्याग कर दिया | वे नाटक, कहानी, उपन्यास इत्यादि रचनाएँ लिखना तो प्रारंभ करते, किंतु उनका शिल्पी मन किसी दास्ता को स्वीकार नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप, रचनाएँ अधूरी रह जाती थीं | एक बार बच्चों के लिए उन्होंने भारतवर्ष का एक विशाल मानचित्र तैयार करना आरंभ किया, लेकिन तभी मन में एक प्रश्न जाग आया, क्या इस मानचित्र में हिमाचल की गरिमा का ठीक-ठीक अंकन हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा | बस, फिर किसी भी तरह वह काम आगे नहीं बढ़ सका | जब पारिवारिक भरण-पोषण असंभव हो गया तब शरद की माता भुवनमोहिनी ने अपने पिता केदारनाथ से याचना की और एक दिन सबको लेकर अपने पिता के घर भागलपुर चली आईं | 

आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर

नाना के घर में शरद का पालन-पोषण अनुशासित रीति और नियमों के अनुसार होने लगा था | भागलपुर विद्यालय में सीता-बनवास, चारु-पीठ, सद्भाव-सद्गुरु तथा ‘प्रकांड व्याकरण’ इत्यादि पढ़ाया जाता था। प्रतिदिन पंडित जी (शरद के नाना) के सामने परीक्षा देनी पड़ती थी और विफल होने पर दंड भोगना पड़ता था। तब लेखक को एहसास होता था कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनुष्य को दुख पहुँचाना ही है। घर में बाल सुलभ शरारत पर भी कठोर दंड दिया जाता था। फेल होने पर पीठ पर चाबुक पड़ते थे, नाना के विचार से बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है, प्यार और आदर से उनका जीवन नष्ट हो जाता है | वहाँ सृजनात्मकता के कार्य भी लुक-छुप कर करने पड़ते थे। शरद को घर में निषिद्ध कार्यों को करने में बहुत आनंद आता था | निषिद्ध कार्यों को करने में उन्हें स्वतंत्रता का तथा जीवन में तरो-ताजगी का एहसास होता था।


शरद के नाना लोग कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे | मामाओं और मौसियों की संख्या काफ़ी थी | उनमें छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मणींद्र शरद का सहपाठी था | उन दोनों को घर पढ़ाने के लिए नाना ने अक्षय पंडित को नियुक्त कर दिया था | वे मानो यमराज के सहोदर थे | मानते थे कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है | इसलिए बीच-बीच में सिंह-गर्जना के साथ-साथ रुदन की करुण-ध्वनि भी सुनाई देती रहती थी | शरद को पशु-पक्षी पालना, तितली पकड़ना, उपवन लगाना, नदी या तालाब में मछलियां पकड़ना, नाव लेकर नदी में सैर करना और बाग में फूल चुराना अति प्रिय लगता था | शरद और उनके पिता मोतीलाल दोनों के स्वभाव में काफी समानताएँ देखने को मिलती थीं | दोनों साहित्य प्रेमी, सौंदर्य बोधी, प्रकृति प्रेमी, संवेदनशील तथा कल्पनाशील और यायावर घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे | कभी-कभी शरद किसी को कुछ बताए बिना गायब हो जाता | पूछने पर वह बताता कि तपोवन गया था। वास्तव में तपोवन लताओं से घिरा गंगा नदी के तट पर एक स्थान था, जहां शरद सौंदर्य उपासना किया करता था | 
            
एक बार गंगा घाट पर जाते हुए शरद ने जब अपने अंधे पति की मृत्यु पर एक गरीब स्त्री के रुदन का करुण स्वर सुना तो शरद ने कहा कि दुखी लोग अमीर आदमियों की तरह दिखावे के लिए जोर-जोर से नहीं रोते, उनका स्वर तो प्राणों तक को भेद जाता है, यह सचमुच का रोना है। छोटे से बालक के मुख से रुदन की अति सूक्ष्म व्याख्या सुनकर अघोरनाथ के एक मित्र ने भविष्यवाणी की थी कि जो बालक अभी से रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानने का एहसास रखता है, वह भविष्य में अपना नाम ऊँचा करेगा | अघोरनाथ के मित्र की भविष्यवाणी बिल्कुल सच साबित हुई | शरद के स्कूल में एक छोटा सा पुस्तकालय था | मजे की बात यह है कि शरद ने पुस्तकालय का सारा साहित्य पढ़ डाला था | व्यक्तियों के मन के भाव को जानने में शरद का महारत हासिल थी, परन्तु, नाना के घर में उसकी प्रतिभा को पहचानने वाला कोई ना था। शरद छोटे नाना की पत्नी कुसुम कुमारी को अपना गुरु मानते रहे। नाना के परिवार की आर्थिक हालत ख़राब होने पर शरद के परिवार को देवानंदपुर लौट कर वापस आना पड़ा। मित्र की बहन धीरू कालांतर में देवदास की पारो, श्रीकांत की राजलक्ष्मी, बड़ी दीदी की माधवी के रूप में उभरी | वास्तव में, शरद में कहानी गढ़कर सुनाने की जन्मजात प्रतिभा थी | शरद को कहानी लिखने की प्रेरणा अपने पिता की अलमारी में रखी हरिदास की गुप्त बातें और भवानी पाठ जैसी पुस्तकों से मिली थी | जब इस अलमारी में शरद अपने पिता की लिखी कुछ अधूरी रचनाओं को देखा, तो उन्हीं रचनाओं के माध्यम से शरद का लेखन मार्ग प्रशस्त हुआ | उसे लिखने की प्रेरणा मिली | बल्कि शरद ने अपनी रचनाओं में अपने जीवन से जुड़ी कई घटनाओं एवं पात्रों का सजीव चित्रण करने का प्रयास किया है | 

तीन वर्ष नाना के घर भागलपुर रहने के बाद शरद को फिर देवानंदपुर लौटना पड़ा | इस परिवर्तन के कारण उसे पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था | आवारगी भी बढ़ती थी | लेकिन साथ ही साथ अनुभव भी बढ़ते थे | भागलपुर में रहते हुए नाना प्रकार की शरारतों के बावजूद शरत् ने सदा एक अच्छा लड़का बनने का प्रयत्न किया था | पढ़ने में भी वह चतुर था | गांगुली परिवार के कठोर अनुशासन के विरुद्ध बार-बार उसके भीतर विद्रोह जागता था | परंतु, यह कामना भी बड़ी प्रबल थी कि मैं किसी से छोटा नहीं बनूँगा | इसलिए उसकी प्रसिद्धि भले लड़के के रूप में होती थी | इन सारी शरारतों के बीच एकान्त में बैठकर आत्मचिंतन करना उसे बराबर प्रिय रहा | वह पंद्रह वर्ष की आयु में, कहानी लेखन कला में पारंगत होकर गांव में प्रसिद्धि पा चुका था | गांव के जमींदार गोपाल दत्त, मुंशी के पुत्र अतुल चंद ने उसे कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया। अतुल चंद्र शरद को थिएटर दिखाने कोलकाता ले जाता और शरद से उसकी कहानी लिखने को कहता। शरद ऐसी कहानियाँ लिखता की अतुल चकित रह जाता था | अतुल के लिए कहानियाँ लिखते-लिखते शरद ने मौलिक कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया | शरद का कुछ समय ‘डेहरी आन सोन’ नामक स्थान पर बीता। शरद ने 'गृहदाह' उपन्यास में इस स्थान को अमर कर दिया। श्रीकांत उपन्यास का नायक श्रीकांत स्वयं शरद है,  काशी कहानी का नायक उनका गुरु पुत्र था, जो शरद का घनिष्ठ मित्र था। लंबी यात्रा के दौरान परिचय में आई विधवा स्त्री को लेखक ने चरित्रहीन उपन्यास में जीवंत किया है। विलासी कहानी के सभी पात्र कहीं न कहीं लेखक से जुड़े हैं। ‘शुभदा’ में हारुण बाबू के रूप में अपने पिता मोतीलाल की छवि को उकेरा है | तपोवन की घटना ने शरद को सौंदर्य का उपासक बना दिया।

इसी यातना की नींव में उसकी साहित्य-साधना का बीजारोपण हुआ | यहीं उसने संघर्ष और कल्पना से प्रथम परिचय पाया | इस गाँव के कर्ज़ से वह कभी मुक्त नहीं हो सका...|| 

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विष्णु प्रभाकर का साहित्यिक परिचय 

प्रस्तुत पाठ के लेखक विष्णु प्रभाकर जी हैं | इनका जन्म उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के एक गाँव में हुआ था | इनका बचपन हरियाणा में गुज़रा, जहाँ पर इनकी पढ़ाई भी मुकम्मल हुई और यहीं पर वे नाटक कंपनी में
विष्णु प्रभाकर

अभिनय से लेकर मंत्री तक का काम किए | इन्होंने 'विष्णु' और 'प्रेमबंधु' के नाम से लेखन की शुरुआत की थी | मौलिक लेखन के अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर जी 60 से अधिक पुस्तकों का संपादन भी कर चुके हैं | प्रभाकर जी कहानी, उपन्यास, जीवनी, रिपोर्ताज, नाटक आदि विधाओं में रचना किए हैं | 

इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं --- आवारा मसीहा (शरतचंद्र की जीवनी) ; प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक (एकांकी संग्रह) ; नव प्रभात, डॉक्टर (नाटक) ; ढलती रात, स्वप्नमयी (उपन्यास) ; जाने-अनजाने (संस्मरण) आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं | 

प्रभाकर जी की रचनाओं में स्वदेश प्रेम, राष्ट्रीय चेतना और समाज सुधार का स्वर व भाव प्रमुख रहा | इन्हें 'आवारा मसीहा' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया...|| 


आवारा मसीहा पाठ के प्रश्न उत्तर


प्रश्न-1 ”उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा ? आपके विचार से साहित्य के कौन-कौन से उद्देश्य हो सकते हैं ? 

उत्तर- 
”उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।” --- लेखक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि विद्यालय में शरतचंद्र को सीता-वनवास, चारू-पाठ, सद्भाव-सद्गुण तथा प्रकांड व्याकरण जैसी साहित्यिक रचनाएँ पढ़नी पड़ती थी, जो उन्हें पसंद नहीं आता था | पंडित जी द्वारा रोज परीक्षा लिए जाने पर उन्हें मार भी पड़ता था | 

हमारे विचार से साहित्य के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं ---  

• साहित्य का उद्देश्य मनुष्य के लिए ज्ञान अर्जन के साथ-साथ उसके विवेक को बढ़ाना है | 
• साहित्य तथ्यात्मक रूप से ऐतिहासिक जानकारी का भी स्रोत होता है | 
• साहित्य समाज का दर्पण भी होता है | 
• साहित्य के माध्यम से लोग विद्यमान सामाजिक मान्यताओं, विषमताओं, कमियों, खुबियों इत्यादि को जाना जा सकता है | 

• साहित्य कहीं न कहीं मनुष्य के मनोरंजन का  साधन भी है | 

प्रश्न-2 पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में क्या अंतर और समानताएँ हैं ? आप पढ़ने-पढ़ाने के कौन से तौर-तरीकों के पक्ष में हैं और क्यों ? 

उत्तर- पाठ के आधार पर उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में अंतर और समानताएँ निम्नलिखित हैं --- 

• वैसे तो पूर्व और वर्तमान समय में अनुशासन का विशेष महत्व है | लेकिन पूर्व समय की अपेक्षा वर्तमान समय में व्यवहारिक या जीविका केंद्रित शिक्षा पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है | 

• पूर्व में बच्चों की समय-समय पर परीक्षाएँ ली जाती थीं, जो आज भी शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा है | इस तरह का दबाव बच्चों को पढ़ाई से दूर करता है और पढ़ाई का भय उनके मन में भर देता है | 

• पूर्व में पढ़ाई को अधिक महत्व दिया जाता था |  खेलकूद आदि को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता था | 


प्रश्न-3 पाठ में अनेक अंश बाल सुलभ चंचलताओं, शरारतों को बहुत रोचक ढंग से उजागर करते हैं। आपको कौन सा अंश अच्छा लगा और क्यों? वर्तमान समय में इन बाल सुलभ क्रियाओं में क्या परिवर्तन आए हैं ? 

उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, वैसे तो यह पाठ बहुत सी बाल सुलभ चंचलताओं और शरारतों से भरा पड़ा है | परन्तु, शरतचंद्र का तितली पकड़ना, तालाब में नहाना, उपवन लगाना, पशु-पक्षी पालना, पिता के पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ना और पुस्तकों में दी गई जानकारी का प्रयोग करना जैसे अंश मुझे बहुत पसंद आया | क्योंकि शरतचंद्र जो कुछ भी सीखते थे, उसे अपने व्यावहारिक जीवन में भी लागू या प्रयोग करते थे | एक बार तो उन्होंने पुस्तक में साँप के वश में करने का मंत्र तक पढ़कर उसका प्रयोग कर डाला | 

आज के समय में बाल सुलभ क्रियाओं में बहुत परिवर्तन आएँ हैं | बच्चे आधुनिकता के प्रति ज्यादा आकर्षित हैं | उन्हें प्रकृति से कम और गेजेट्स से ज़्यादा लगाव है | आज घने इमारतों के बीच बच्चों को प्रकृति का वास्तविक वातावरण ही नहीं मिलता है | 

प्रश्न-4 नाना के घर किन-किन बातों का निषेध था ? शरत् को उन निषिद्ध कार्यों को करना क्यों प्रिय था ? 

उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, शरदचंद्र के नाना बेहद सख़्त-मिजाज़ी इंसान थे। उन्होंने बच्चों को बहुत सी बातें करने से मना कर रखा था | जैसे --- पशु तथा पक्षियों को पालना, तालाब में नहाना, बाहर जाकर खेलना, उपवन लगाना, घूमना, पतंग, लट्टू, गिल्ली-डंडा तथा गोली इत्यादि खेलना | 

शरतचंद्र आजाद प्रवृत्ति का व्यक्ति था | नाना की सख़्ती और रोक-टोक उसे बंधन लगता था | वह बिल्कुल विद्रोही के समान तमाम बंधनों को तोड़ता था | वास्तव में, जिन चीज़ों पर उसके नाना रोक-टोक किया करते थे, वे सभी आयाम उसे प्रिय लगते थे | 


प्रश्न-5 आपको शरत् और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में क्या समानताएँ नज़र आती हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए | 

उत्तर- 
शरत् और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में जो समानताएँ नज़र आती हैं, वे निम्नलिखित हैं --- 

• शरतचंद्र और उनके पिता दोनों आजाद प्रवृत्ति के व्यक्ति थे | इसलिए नाना के द्वारा लगाए गए बंधनों के बावजूद भी शरत कभी नहीं रुका | 
• शरत और उनके पिताजी दोनों साहित्य पढ़ने और लिखने के शौकीन थे | शरत ने पिता के पुस्तकालय की लगभग सभी पुस्तकें पढ़ ली थीं | 
• शरत् और उनके पिताजी का सब लोगों के प्रति समान आदर भाव था | उनके लिए कोई छोटा-बड़ा नहीं था | 
• शरत अपने पिता के समान यायावार प्रकृति के थे | एक स्थान पर टिकना उसके लिए संभव नहीं था | 


प्रश्न-6 ”जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।” अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपनी टिप्पणी कीजिए | 

उत्तर- 
प्रस्तुत पाठ के अनुसार, ”जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।” --- अघोर बाबू के मित्र ने यह टिप्पणी बालक शरतचंद्र के भाव की विभिन्नता को समझने की क्षमता के आधार पर की थी | अघोर बाबू के मित्र जानते थे कि साहित्य सृजन के लिए मनुष्य का अति संवेदनशील होना ज़रूरी है, जो गुण शरतचंद्र में विद्यमान था | बालक शरतचंद्र अपने आस-पास के वातावरण तथा परिवेश का सूक्ष्म निरीक्षण करने में दक्ष थे | अतः अघोर बाबू जानते थे कि जिस बालक में इस प्रकार की क्षमता इस समय मौजूद है, तो आगे चलकर यह बालक मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा। अघोर बाबू का उक्त कथन आगे चलकर सत्य साबित हुआ | बेशक, शरतचंद्र की प्रत्येक रचना अघोर बाबू की दूरदृष्टि को सत्य सिद्ध करता है | 

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आवारा मसीहा पाठ से संबंधित शब्दार्थ 


• कृतार्थ - पुरुषार्थ, परोपकार 
• निस्तब्धता - खामोशी 
• यायावर प्रकृति - घुमक्कड़ी स्वभाव 
• अपरिग्रही - किसी से कुछ ग्रहण न करने वाला 
• आच्छन्न - घिरा हुआ 
• स्वल्पाहारी - कम मात्रा में भोजन करने वाला 
आँखें जुड़ाने लगीं - आँखों में तृप्ति का भाव 
• पुलक - प्रसन्नता 
• विदीर्ण - भेदना 
• मनस्तत्व - विद्या संबंधी 
• पारितोषिक - पुरस्कार 
• शाद्वल - नई हरी घास से युक्त 
• अपरिसीम - जिसकी कोई सीमा न हो 
• अाजानबाहु - जिसकी घुटनों तक बाहें हों 
• प्रत्युत्पन्नमति - प्रतिभाशाली, जिसे उचित उत्तर तत्काल सूझ जाए 
• हतप्रभ विमूढ़ - हैरान, कुछ समझ में न आना 
• आत्मोत्सर्ग - आत्मबलिदान 
• सरंजाम - तैयारी, प्रबंध (होना या करना), काम  का नतीजा 
• धर्मशीला - वह स्त्री जो धर्म के अनुसार आचरण करे 
• पदस्खलन - अपने मार्ग से भटकना, पतन होना 
• अभिज्ञता - जानना 
• स्फुरण - काँपना, हिलना, फड़कना 
• निविड़ - घना, घोर 
• निरुद्वेग - शांत, उद्वेगरहित  | 


COMMENTS

Leave a Reply: 2
  1. महत्वपूर्ण गद्यांशों की व्याख्या करें ताकि विद्यार्थियों को आसानी हों|

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