तुम मेरी कविता

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तुम मेरी कविता मैं भी सुनना चाहता हूँ तुम्हारे सामवेद का संगीत जिसे हवाएँ सबको सुना जाती हैं , मैं देखना चाहता हूँ - तुम्हारे स्वर्गिक स्पर्श का जादू कि कलियाँ कैसे फूल बनीं और बीज कैसे अंकुरित हुए ? मैं महसूसना चाहता हूँ तुम्हारे आयुर्वेद के चमत्कार को कि कैसे तुम जीवन देती हो ।

तुम मेरी कविता 



मैं भी सुनना चाहता हूँ 
तुम्हारे सामवेद का संगीत 
जिसे हवाएँ 
सबको सुना जाती हैं , 

मैं देखना चाहता हूँ -
तुम्हारे स्वर्गिक स्पर्श का जादू 
कि कलियाँ कैसे फूल बनीं और 
बीज कैसे अंकुरित हुए ? 

मैं महसूसना चाहता हूँ 
तुम्हारे आयुर्वेद के चमत्कार को कि 
कैसे तुम जीवन देती हो । 
तुम मेरी कविता
मैं बूझना चाहता हूँ 

तुम्हारी क्लिष्ट भाषा का सौंदर्य 
ओ वैभव शिल्पी , 
तुम्हारा तेज़ देखा नहीं जाता 
प्रेम की भाषा में प्रस्तावरत हूँ मैं 

कि निकल पड़ो कभी तो - 
अपने जादू की चमत्कारी दुनिया से 
मेरे एकांत को भाषा चाहिए । 
मैं भीगना चाहता हूँ 

तुम्हारी संतूर सी रागिनियों के गुँजन में 
कभी तो मेरी कविता से बाहर 
मुझे दर्शन देना 
प्रीत के लम्हों वाला मौसम मुस्कुराने लगेगा । 

दुनिया तुम्हें सिर्फ चमत्कार मानेगी 
सिर्फ मैं ही जानूँगा कि 
तुम सिर्फ मेरी कविता हो 
सिर्फ मेरी कविता ....। 
  


भुट्टा खाते हुए


मैंने पेड़ों पर अपना नाम लिखा
तुमने उसे
अपने दिल पे उकेर लिया ,
तुमने दुम्बे को दुलारा
मेरा मन चारागाह हो गया ;

मैंने पतंग उड़ाई
तुम आकाश हो गयीं
मैं माँझे का धागा जो हुआ
तुम चकरी बन गयी |

ऐसा क्यों होता रहा ?
मैं कई दिनों तक समझ ना सका
एक दिन दोस्तों ने कहा –
ये गया काम से ,
और तुम तालाबंदी कर दी गयी

मेरे कोरे पन्नों पर
बारातों के कई दृश्य चित्र बनते रहे और
गलियों का भूगोल बदल गया |
तुम्हारी पायल , बिंदी और महावर
वाली निशानियाँ

आज भी मेरे मन में अंकित है
किसी शिलालेख की तरह ,
किसी नए मकान पर
शुभ हथेली की
पीली छाप के जैसे

मैं देखना चाह रहा था बसंतोत्सव और
मेरा बसंत उनके बाड़े में कैद थी |
मैं फटी बिवाई जैसी किस्मत लिए
कोस रहा था आसमान को
तभी तरस कर मेघ मुझे भिगोने लगी

इस भरे सावन में मेरा प्यार अँखुआने लगा
हम भीगते हुए भुट्टा खा रहे हैं और
उसने अपने दांतों में दुपट्टा दबाते हुए
धीरे से कहा – बधाई हो तुम ....
और झेंपते हुए उसने
गोलगप्पे की ओर इशारा किया .....|



जूड़े का गुलाब


स्त्री और धरती दोनों में से
बहुत लोगों ने सिर्फ
स्त्रियों को चुना और   
प्रेम के नाम पर  
उनके पल्लू और जूड़ों में बँध गए ;

प्रदूषणों का श्रृंगार किए विधवा वेश सी
विरहणी वसुधा कराहती रही
तुम्हारी बेवफाई पर |
उसकी गोद में कभी जाओ तो पाओगे

लाखों स्त्रियों के रिश्तों का
प्यार एक साथ ,
प्यार जब भी होता है तब –
बहारें खिलनी चाहिए ,
संगीत के सोते फूटने चाहिए .... ;
कोई कभी भी नहीं चाहता कि –

कोई उसे बेवफा कहे
मजबूरियाँ आते – जाते रहती हैं |
प्यार जो एक बार लौटा तो
दुबारा नहीं लौटता ,
ना ही मोल ले सकते और
ना ही बदल सकते ;


इसलिए सँवारतें रहें अपनी धरती को
अपनी प्रेयसी की तरह |
कहीं कोई तो होगी जो
आपके खिलाए हुए गुलाब को

अपने जूड़े में खोंचने को कहेगी
उस दिन गमक उठेगी धरती और
आपका बागीचा सुवासित हो जाएगा
गुलाब , स्त्रियाँ और वसुधा अलग कहाँ हैं ?



आखिरी दिन


ज़माना भूल चुका उन्हें
जिन्होंने कभी प्यार को खरीदना चाहा,
मिटाना चाहा ,
बर्बाद करना चाहा -
प्रेमी युगलों को सदा से

लेकिन वे आज भी जिन्दा हैं –
कुछ मजारों में , कुछ कथाओं में एवं
कुछ बंजारों के कबीलों के
गीतों में ठुमकते हुए |
प्यार ऐसे ही जिन्दा रहता है

जैसे वृद्धाश्रम में यादें ,
रमेश कुमार सोनी
रमेश कुमार सोनी 
आज सहला रहे थे अपने
अंतिम पलों को हम दोनों
वो कह रही थी –
तुम्हारे पहले चुम्बन की उर्जा
अब तक कायम है वर्ना ....

और मैं भी उसी दिन मर गया था –
जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा था
जिन्दा तो मुझे तुम्हारी नज़रों ने रखा है |
वृद्धाश्रम में केक काटते हुए
प्यार आज अपनी
हीरक जयंती मना रही है

मानो आज उनका ये आखिरी दिन हो !
वैसे बता दूँ आपको
प्यार के लिए कोई आखिरी दिन नहीं होता और
प्यार कभी मरता नहीं
यह सिर्फ देह बदलता है
ज़माने बदलते हैं |

      

मुस्कुराता हुआ प्रेम


प्रेम नहीं कहता कि –
कोई मुझसे प्रेम करे
प्रेम तो खुद बावरा है
घुमते – फिरते रहता है

अपने इन लंगोटिया यारों के साथ –
सुख – दुःख , घृणा , बैर , यादें और
हिंसक भीड़ में ;
प्रेम सिर्फ पाने का ही नहीं
मिट जाने का दूसरा नाम भी है |

प्रेम कब , किसे , कैसे होगा ?
कोई नहीं जान पाता है
ज़माने को इसकी पहली खबर मिलती है ,
यह मुस्कुराते हुए
मलंग के जैसे फिरते रहता है ;

कभी पछताता भी नहीं 
कहते हैं लोग कि –
प्रेम की कश्तियाँ
डूबकर भी पार उतरती हैं |  
मरकर भी अमर होती हैं लेकिन

कुछ लोगों में यह प्रेम
श्मशान की तरह दफ्न होते हैं
वैसे भी यह प्रेम
कहाँ मानता है –
सरहदों को , जाति – धर्म को
ऊँच – नीच को

दीवारों में चुनवा देने के बाद भी
हॉनर किलिंग के बाद भी
यह दिख ही जाता है
मुस्कुराते हुए प्रेम मुझे अच्छा लगता है.... | 

     .....     .....     .....






- रमेश कुमार सोनी 
बसना जिला - महासमुन्द (  छत्तीसगढ़ )
संपर्क - 70493 55476   

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