कौन सुनेगा शिक्षकों का दर्द?

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कौन सुनेगा शिक्षकों का दर्द? कोरोना महामारी ने जिन क्षेत्रों को सबसे अधिक प्रभावित किया है, उनमें शिक्षा व्यवस्था भी शामिल है। स्कूल बंद होने से छात्रों की पढ़ाई प्रभावित होने की फ़िक्र सभी ने की, परंतु इस महामारी ने शिक्षकों के जीवन को जितना अधिक प्रभावित किया है, उसकी तरफ शायद ही किसी ने ध्यान दिया हो।

कौन सुनेगा शिक्षकों का दर्द?


कोरोना महामारी ने जिन क्षेत्रों को सबसे अधिक प्रभावित किया है, उनमें शिक्षा व्यवस्था भी शामिल है। स्कूल बंद होने से छात्रों की पढ़ाई प्रभावित होने की फ़िक्र सभी ने की, परंतु इस महामारी ने शिक्षकों के जीवन को जितना अधिक प्रभावित किया है, उसकी तरफ शायद ही किसी ने ध्यान दिया हो। विशेषकर प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले हज़ारों शिक्षकों की ज़िंदगी इस कोरोना काल में प्रभावित हुई। लेकिन न तो मीडिया और न ही समाज को इसकी फ़िक्र नज़र आ रही है। इन सबके बावजूद शिक्षकों से पूर्व की अपेक्षा ज़्यादा काम लिया जा रहा है और वेतन के नाम पर कहीं खाली लिफाफा थमाया जा रहा है तो कहीं वेतन में कटौती की जा रही है। कई प्राइवेट स्कूलों ने वेतन देने लायक फंड नहीं होने की बात करके शिक्षकों को नौकरी तक से निकाल दिया है। फिर भी शिक्षकों का यह दर्द किसी मीडिया की हेडलाइन नहीं बन सकी है। 

इस शिक्षक दिवस भले ही शिक्षकों के सम्मान में चाहे जितने भी कसीदे पढ़ें जाएं, लेकिन हकीक़त यही है कि अब न तो समाज में शिक्षकों का वह सम्मान रहा और न ही पढ़ाने वालों का वह स्तर रहा जिसके लिए भारत पूरे विश्व में जाना जाता है। कड़वी हकीक़त यह है कि दुनिया भर में गुरु को सम्मान और उच्च स्थान दिलाने वाले देश भारत में आज गुरु स्वयं अपनी एक अदद पहचान का मोहताज होता जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिक्षक ही समाज व राष्ट्र के निर्माता होते हैं। वे ऐसे मार्गदर्शक हैं, जो अनंत काल से ज्ञान के प्रकाश से समाज के अंधकार को मिटाते रहे हैं। किसी भी राष्ट्र की प्रगति शिक्षा के बिना अधूरी है और शिक्षा किसी शिक्षक के मार्गदर्शन के बिना अधूरी है। 

‘बिन गुरु हो हीं न ज्ञाना’ यह उक्ति सभी क्षेत्रों में चरितार्थ होती है। माता-पिता और गुरु प्रत्येक बच्चों के भविष्य
कौन सुनेगा शिक्षकों का दर्द?
कौन सुनेगा शिक्षकों का दर्द?
के लिए सर्वथा अच्छा सोचते हैं। यदि माता-पिता प्रथम गुरु हैं, तो शिक्षक संपूर्ण जीवन के मार्गदर्शक होते हैं। आज पूरी दुनिया कोरोना महामारी की मार झेल रही है। सरकारी स्तर पर आम लोगों की जिंदगी में आमूल-चूल परिवर्तन व समस्याओं को दूर करने की कोशिश हो रही है। वहीं राष्ट्र की आधारशिला रखने वाले शिक्षकों की गंभीर स्थिति की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता है। विगत कुछ महीनों से आर्थिक तंगी की वजह से कई शिक्षकों को सूद (ब्याज) पर पैसे लेकर चूल्हा चौकी चलाने की नौबत आ गई है। सरकार की उदासीनता की वजह से शिक्षक कर्ज से दबे जा रहे हैं। यह भूलने वाली बात नहीं है कि जो वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, समाजकर्मी, नेता आदि को गढ़ने वाला कोई और नहीं अपितु शिक्षक ही है। एक सच्चा नागरिक बनाने वाले शिक्षक आज स्वयं उपेक्षित हैं। व्यक्ति के जीवन में नवीन अवधारणा, परिवर्तन लाने वाला शिक्षक सबसे पहले पूजनीय है। कबीर ने ठीक ही कहा है- ‘‘गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पायं, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दिए बताए’’।

कोरोना के कारण स्कूलों के बंद होने से छात्रों के साथ साथ शिक्षकों का जीवन भी प्रभावित हुआ है। वेतन बंद हो जाने से उनके परिवार के सामने जीवनयापन की चुनौती खड़ी हो गई है। बैंकों में रखी जमा पूंजी तक ख़त्म हो गई है। ईएमआई के पैसे बढ़ते जा रहे हैं। तो बैंक भी भारी ब्याज जोड़ता जा रहा है। आलम यह है कि दूसरों के बच्चों का भविष्य बनाने वाले शिक्षक के बच्चों का भविष्य अंधेरे में डूबता जा रहा है।  सच तो यह है कि आर्थिक मंदी के कारण पलायन करने वाले मज़दूरों से भी बदतर स्थिति निजी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों की हो चुकी है। इनकी वस्तुस्थिति को समझने वाला कोई नहीं है। स्कूल प्रबंधन ने कोरोना में आर्थिक मंदी का बहाना बना कर सैलरी देना बंद कर दिया है। कई प्राइवेट स्कूल बंद हो गए हैं। कई स्कूलों में शिक्षकों की संख्या में कटौती कर दी गई है। आज ऐसी स्थिति आ पड़ी है कि कई शिक्षकों ने पढ़ाने का काम छोड़ कर दुकानें खोल ली हैं। तो कोई अन्य कार्य को करने को मजबूर हो गया है। लॉकडाउन का पालन करने के चक्कर में ट्यूशन भी नहीं पढ़ा सकते। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले में कार्यरत शिक्षक सुशील कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि जिले में कार्यरत हजारों शिक्षकों की रोजी-रोटी पर आफत है। स्कूल प्रबंधन पिछले चार महीने से एक रुपए तक नहीं दिए हैं। घर की जमा पूंजी ख़त्म होने के कगार पर है। लेकिन सरकार को केवल छात्रों की पढ़ाई की चिंता सता रही है। जबकि छात्रों का भविष्य संवारने वाला रोटी को मोहताज हो रहा है। दरअसल यह कथा-व्यथा केवल सुशील की नहीं बल्कि सैकड़ों शिक्षकों की है।

इधर छात्रों के भविष्य को बचाने के लिए ऑनलाइन क्लासें चलाई जा रही हैं। सुबह 8 बजे से दोपहर तक कक्षाएं चलती हैं। शिक्षकों को पूरा समय देना होता है। मामूली वेतन पाने वाले प्राइवेट शिक्षकों पर भी स्मार्ट फोन के माध्यम से पढ़ाने की ज़िम्मेदारी है। कई शिक्षक इस नई तकनीक से व्यावहारिक नहीं हैं, इसके बावजूद बिना प्रशिक्षण के ही उन पर पढ़ाने और कोर्स पूरा कराने का दबाब रहता है। सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले एक शिक्षक हसरत अली कहते हैं कि पिछले चार महीने से वेतन नहीं मिला है। राशन दुकानदार से उधार लेकर घर का चूल्हा जल रहा है। सैलरी नहीं मिलने से आर्थिक परेशानी है तथा मानसिक तनाव जैसी स्थिति हो गई है। रोज़मर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए पैसे चाहिए। मगर, सरकार की उदासीनता की वजह से एक-एक पैसे के मुहताज हो गए हैं। प्रदेश से बाहर रहने वाले मज़दूरों को सरकारी स्कूल में होम क्नारंटाइन किया गया था। जिसकी देखभाल व स्थिति के अवलोकन करने की ज़िम्मेदारी भी शिक्षकों को दी गई थाी। इस दरमियान सही से मास्क व सेनिटाइजर तथा पीपीई किट भी उपलब्ध नहीं कराई गई थी। बावजूद इसके शिक्षक अपनी ड्यूटी का निर्वहन कर रहे थे। 

अफ़सोस की बात यह है कि शिक्षकों के सम्मान में दिवस मनाने वाली सरकार के पास उन्हीं शिक्षकों की आर्थिक परेशानी दूर करने की कोई ठोस योजना नहीं है। देश में इस वक्त लगभग 7 लाख शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक आंकड़े के अनुसार अकेले प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही देश में तक़रीबन तीन लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। खाली पड़े पदों में सबसे अधिक करीब दो लाख पद बिहार में हैं जबकि करीब एक लाख साठ हज़ार खाली पदों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे नंबर पर आता है। खाली पदों के इतने बड़े आंकड़े दर्शाते हैं कि सरकार इस दिशा में उदासीन है। देश में बेहतर शिक्षा व्यवस्था की बात तो की जाती है लेकिन शिक्षकों की भर्ती के लिए सरकार का रवैया बहुत अधिक गंभीर नज़र नहीं आता है। 

केवल सरकार ही नहीं बल्कि कोई भी संस्था शिक्षकों की समस्याओं को जानने और उनका हल निकालने के प्रति गंभीर नज़र नहीं आती है। शिक्षा की लौ जलाने के लिए शिक्षकों का महत्व समझना होगा। उन्हें आदर्श गुरु के रूप में सम्मान देने से आगे बढ़ कर उनके हितों की रक्षा करनी होगी। समाज व देश की प्रगति के लिए शिक्षकों को केवल उच्च दर्जा देना ही उन्हें सम्मान देना नहीं होता है बल्कि उनके हित में ऐसी ठोस योजना बनाने की आवश्यकता है जिससे उनका सामाजिक जीवन बेहतर हो सके। देश भर में शिक्षकों के हज़ारों पदों को भर कर ही हम उनके सामाजिक जीवन की रक्षा कर सकते हैं। यह न केवल शिक्षा के साथ सही अर्थों में इंसाफ होगा बल्कि आने वाले भविष्य को भी सुंदर बना सकेंगे। (चरखा फीचर)






- अमृतांज इंदीवर
मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार 

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