महिलाओं के आत्मनिर्भर बनने की कहानी

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शिक्षा के महत्व को बखूबी पहचानने वाली बीना गुर्जर ने अपने क्षेत्र की महिलाओं को साक्षर बनाने की ठान ली थी। जब वह सरपंच बनी थीं, तभी से घूम-घूम कर लोगों को शिक्षा के बारे में बताना है और उन्हें इसका महत्व को समझाना शुरू कर दिया था।

कहानी उनकी, जिन्होंने शिक्षा की लौ थामे रखा


भारत समेत पूरी दुनिया इस समय जिस आपदा और संकट से गुज़र रहा है, उसे लंबे समय तक इतिहास में याद रखा जायेगा। मुश्किल की इस घड़ी में जब हर तरफ दुःख का ही सागर हो, ऐसे समय में कोई एक सकारात्मक पहल भी सुकून देने वाला होता है। विशेषकर जब यह पहल महिला शिक्षा से जुड़ी हो और ऐसे इलाकों से जहां साक्षरता की दर अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कम हो, तो यह सुकून और भी बढ़ जाता है। धोरों की धरती कहलाने वाले राजस्थान में ऐसी कई कहानियां हैं, जो शिक्षा के प्रति महिलाओं के जज़्बे को बयां करती हैं।

ऐसी ही एक कहानी है जयपुर के सांगानेर ब्लॉक स्थित लाखना ग्राम पंचायत की अनिता शर्मा की। उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच चुकी अनिता को अंगूठा छाप कहलाना पसंद नहीं था। पढ़ने लिखने के इसी जज़्बे ने उन्हें कॉपी क़लम पकड़ने पर मजबूर कर दिया। आखिरकार उन्होंने साक्षरता शिविर के जरिए पढ़ना-लिखना सीख लिया है और इस दौरान बुनियादी साक्षरता की परीक्षा भी पास कर ली है। अब वह निमंत्रण पत्र भी पढ़ लेती है। हालाँकि वह अभी और पढ़ना चाहती हैं। लेकिन लॉक डाउन ने फिलहाल आगे की शिक्षा प्राप्त करने पर ब्रेक लगा दिया है। हालांकि अनिता ने इसका भी उपाय निकाल लिया है। अपने पढ़ने के जज़्बे को बरकरार रखते हुए अब वह खाली समय में बच्चों की किताबें पढ़ने का प्रयास करती रहती हैं। 

कुछ ऐसी ही स्थिति करौली जिले स्थित नादौती ब्लॉक के कैमला ग्राम पंचायत की इंदिरा गुप्ता की थी। जिन्होंने
महिला शिक्षा
महिला शिक्षा 
पढ़ाई के लिए अपना सिलाई का काम तक छोड़ दिया था। साक्षर होने के बाद उनका विश्वास दोबारा जमा और उन्होंने फिर से सिलाई का काम शुरू कर दिया। अब वह इंचटेप से ग्राहकों का नाप लेकर स्वयं ही लिखने लग गई है। इसी ज़िले के राजौर ग्राम पंचायत की लीला देवी कहती हैं कि अब मुझे नरेगा में काम करने की जरूरत नहीं है। सिलाई का काम ही अच्छा मिल जाता है। अब मैं इंचटेप से नाप लेकर लिख लेती हूं, साथ में ग्राहकों को बिल भी बनाकर देना भी सीख गई हूं।

भरतपुर जिले की बयाना पंचायत समिति स्थित सीदपुर ग्राम पंचायत की सरपंच रह चुकीं बीना गुर्जर एमए-बीएड हैं। यहां तक का सफर तय करने से पहले वह लोक शिक्षा केंद्र के माध्यम से प्रेरक रह चुकी हैं और उन्होंने लोगों विशेषकर महिलाओं को साक्षर बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। शिक्षा के महत्व को बखूबी पहचानने वाली बीना गुर्जर ने अपने क्षेत्र की महिलाओं को साक्षर बनाने की ठान ली थी। जब वह सरपंच बनी थीं, तभी से घूम-घूम कर लोगों को शिक्षा के बारे में बताना है और उन्हें इसका महत्व को समझाना शुरू कर दिया था। वह कहती हैं कि मेरी पंचायत के विकास में मेरा साक्षर होना बहुत काम आया। इसीलिए मैंने भी ठान लिया था कि किसी को भी शिक्षा से वंचित नहीं होने दूंगी। उनका लक्ष्य अपने पंचायत को शत प्रतिशत साक्षर बनाना है।

इधर, झालावाड़ जिले के खानपुर ब्लॉक स्थित गोलान ग्राम पंचायत की काली बाई गणित में थोड़ा कमज़ोर थी। लेकिन इस लॉक डाउन में उन्होंने अपनी इसी कमज़ोरी को दूर कर लिया। घर का काम खत्म होने के बाद वह अपनी बेटी के पास ही कॉपी-किताब लेकर बैठ जाती थी और केंद्र में पढ़ाए हुए को फिर से पढ़ना शुरू कर देती थी। उसकी पढ़ाई में बेटी ने भी खूब मदद की। इसी जिले के भवानीमंडी पंचायत समिति स्थित सरोद ग्राम पंचायत की सरपंच रह चुकीं सुशीला देवी मेघवाल की पढ़ाई उनकी शादी के बाद छूट गई थी। वह तब तक बीए सेकंड ईयर में पढ़ाई कर रही थीं। पति के देहांत के बाद उन्होंने लोक शिक्षा केंद्र के प्रेरक के रूप में काम किया। प्रेरक बनने के तीन साल बाद उन्हें सरपंच बनने का मौका मिला। तब तक उनके ससुराल वालों को भी शिक्षा का महत्व समझ आ चुका था। गांव की महिलाओं ने उन्हें चुनाव लडऩे के लिए जोर देकर कहा और वे चुनाव लड़कर जीत भी गईं। इसके बाद उन्होंने अन्य प्रेरकों के जरिए अपनी पंचायत में महिला शिक्षा की दिशा में बेहतर काम किया और क्षेत्र का विकास कराया।

झालावाड़ जिले के ही खानपुर ब्लॉक स्थित मोडी भीमसागर ग्राम पंचायत की बर्दी बाई 45 साल की उम्र में पढ़ना लिखना सीखी है। पति किराने की दुकान चलाते हैं। बचपन में कई कारणों से बर्दी पढ़ नहीं पाई। शादी के बाद बर्दी दो बच्चों की मां बन गई। अपने बच्चों को पढ़ते देख उसका मन भी पढ़ने को होता था। बर्दी को पता चला कि उसकी पंचायत में एक शिक्षा केंद्र खुला है। उसने अपने पति को पढ़ने की इच्छा के बारे में बताया। शुरू में पति ने मना किया, लेकिन बाद में वे राजी हो गए। शिविर में बर्दी ने मन लगाकर पढ़ाई की। आज वह अपने पति की दुकान पर बैठती है और पैसों का हिसाब-किताब लगा लेती है। पति के बाहर जाने पर भी वह पूरी दुकान संभाल लेती है।

बढ़ती उम्र और घर गृहस्थी की तमाम ज़िम्मेदारियों के बावजूद शिक्षा के प्रति इन महिलाओं का जज़्बा सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। यह न केवल महिला सशक्तिकरण की दिशा में सकारात्मक कदम है बल्कि महिलाओं के आत्मनिर्भर बनने की कहानी को भी दर्शाता है। आजादी के समय देश में राष्ट्रीय स्तर पर महिला साक्षरता दर महज 8.6 प्रतिशत ही थी, लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार यह 65.46 प्रतिशत दर्ज की गई। लड़कियों के लिए स्कूलों में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) प्राथमिक स्तर पर 24.8 प्रतिशत था, जबकि उच्च प्राथमिक स्तर (11-14 वर्ष के आयु वर्ग में) पर यह महज 4.6 प्रतिशत ही था। केरल में सबसे ज्यादा महिला साक्षरता दर 92 प्रतिशत है, जबकि राजस्थान में महिला साक्षरता दर महज 52.7 प्रतिशत है। हालांकि अब इसमें बदलाव नज़र आ रहा है। यही बदलाव आत्मनिर्भर भारत की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। (यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2019 के तहत लिखी गई है) 



- अमित बैजनाथ गर्ग
जयपुर, राजस्थान

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