फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने

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फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने भारत की आत्मा जिन ग्रामीण अंचलों में बसती है, उन्हीं अंचलों के जीवनानुभव को जिस सलीके और शैली से रेणु प्रस्तुत करते रहे, वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है । यह प्रेमचंद की परंपरा ही नहीं अपितु कई संदर्भों में उसका विकास भी था । विकास इस रूप में कि प्रेमचंद के विचारों और स्वप्नों को उन्होने अग्रगामी बनाया ।

फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने 

               
भारत की आत्मा जिन ग्रामीण अंचलों में बसती है, उन्हीं अंचलों के जीवनानुभव को जिस सलीके और शैली से रेणु प्रस्तुत करते रहे, वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है । यह प्रेमचंद की परंपरा ही नहीं अपितु कई संदर्भों में उसका विकास भी था । विकास इस रूप में कि प्रेमचंद के विचारों और स्वप्नों को उन्होने अग्रगामी बनाया । प्रेमचंद का समय औपनिवेशिक था जब कि रेणु के समय का भारत स्वतंत्र हो चुका था । स्वाभाविक रूप से रेणु के ग्रामीण अंचलों में गतिशीलता और जटिलता दोनों अधिक थी । प्रेमचंद की तुलना में रेणु के गाँव अधिक डाईमेनश्नल हैं । इसलिये जैसी गलियाँ, गीत और नांच रेणु के यहाँ मिलते हैं वे प्रेमचंद के यहाँ नहीं हैं । आज़ादी के तुरंत बाद मैला आँचल जैसे उपन्यास के माध्यम से उन्होने इस देश की भावी राजनीति की नब्ज़ को जिस तरह से टटोला वह उन्हें एक दृष्टा बनाता है । अपने साहित्य के माध्यम से रेणु ने भारतीय ग्रामीण अंचलों की पीड़ा का सारांश लिखा है । अशिक्षा, रूढ़ियाँ, सामंती शोषण, गरीबी, महामारी, अंधविश्वास, व्यभिचार और धार्मिक आडंबरों के बीच साँस ले रहे भारतीय ग्रामीण अंचलों के सबसे बड़े रंगरेज़ के रूप में रेणु को हमेशा याद किया जायेगा ।  
                
आज़ अगर रेणु होते तो आयु के सौ वर्ष पूरे कर रहे होते । रेणु हमारे बीच नहीं हैं, है तो उनका लिखा हुआ साहित्य । यह साहित्य जो रेणु की उपस्थिति हमेशा दर्ज़ कराता रहेगा । संघर्ष के पक्ष में और शोषण के खिलाफ़ दर्ज़ रेणु का यह इक़बालिया बयान है । रेणु के साहित्य में जितनी गहरी और विवेकपूर्ण स्त्री पक्षधरता दिखायी पड़ती है वह अद्भुद है । रेणु के लिये जीवन कुछ और नहीं अपितु गाँव हैं । अपने पात्रों के माध्यम से रेणु ने विलक्षणता नहीं आत्मीयता का सृजन किया । गाँव उनके यहाँ मज़बूरी नहीं आस्था के केंद्र हैं । गाँव के प्रति उनकी यह आस्था अंत तक बनी रही । 
               
फणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु
रेणु अपने समाज की जटिलता को अच्छे से समझते थे । एक सृजक के अंदर जिस तरह के नैतिक साहस की आवश्यकता होती है, वह रेणु में थी । जिस वैचारिकी का वे समर्थन करते थे उसके भी वे अंधभक्त नहीं रहे,अपितु उसकी कमियों या उसके पथभ्रष्ट होने की स्थितियों का भी उन्होने विरोध किया । वे एक ईमानदार सृजक थे अतः अपने अतिक्रमणों के नायक रहे । अपने साहित्य और नैतिक साहस के दम पर सत्ता का प्रतिपक्ष खड़ा करते रहे । हाशिये के समाज को केंद्र में लाते रहे । प्रोफ़ेसर जितेंद्र श्रीवास्तव जी के अनुसार पूरे हिन्दी साहित्य में आदिवासी चेतना के प्रारम्भिक उभार को बड़े सलीके से रेणु ही प्रस्तुत करते हैं । 
            
यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि रेणु पर शुरू में ही आंचलिकता का टैग लगा दिया गया । इससे उन्हें पढ़ने-पढ़ाने की पूरी परिपाटी ही बदल गई । बहस के केंद्र में संवेदनायें, विचारधारायें, सूचनायें और शिल्प न होकर आंचलिकता हो गई,जो की विडंबनापूर्ण थी  । आंचलिकता की अवधारणा ने उनकी ऊंचाई को कम किया । इसतरह एक पेजोरेटिव ( pejorative ) कैटेगरी रेणु के लिये बनाना उन्हें कमतर आँकने का षड्यंत्र लगता है । आज़ यह सुनने में अजीब लगता है कि मैला आँचल को शुरू में कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था । नलिन विलोचन शर्मा ने पहली समीक्षा इस पर पटना आकाशवाणी के माध्यम से  प्रस्तुत की थी । उसके बाद प्रकाशक इसे छापने को तैयार हुआ । 
              
‘मैला आँचल’ सबसे पहले सन 1953 में  समता प्रकाशन,पटना, द्वारा प्रकाशित हुआ था । बाद में 1954 में  राजकमल प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया । हालांकि बाद में कुछ समीक्षकों ने इसे एक “असंगत कृति” कहकर भी संबोधित किया । इस तरह की बातें तो समीक्षक प्रेमचंद के गोदान को लेकर भी करते रहे । लेकिन समय के साथ हर कृति अपने महत्व को स्वयं स्थापित कर देती है । प्रोफ़ेसर रमेश रावत का स्पष्ट मानना है कि – विचारधारा उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी की किसी रचना विशेष से मिलने वाली सूचनाएँ / जानकारियाँ महत्वपूर्ण हैं । गियर्सन तुलसीदास को बड़ा साहित्यकार इसीलिए मानता है क्योंकि तुलसी के साहित्य में आम व्यक्ति से लेकर विद्वान से विद्वान के लिये भी भरपूर सूचनाएँ और संदर्भ हैं । 
             
रेणु के लेखन में यद्यपि गाँव केंद्र में हैं पर उसकी परिधि में पूरा भारत है । तेजी से बदलती हुई दुनियाँ इस गाँव की तस्वीर को भी बदल रही है । महकउआ साबुन और फ़िल्मी नायिकाओं की तस्वीर गाँव में भी आ रही हैं । रेणु जब लिख रहें हैं तो वह समय महानगरों का है । लेखन के केंद्र में भी महानगर हैं । ऐसे में गाँव की तमाम समस्याओं, सीमाओं, दुर्बलताओं, विकृतियों के बावजूद वो अपनी आस्था को यहीं केन्द्रित करते हैं । गाँव से शहर में पलायन की मज़बूरी को रेणु लगातार चित्रित करते हैं । मज़बूरी इसलिये क्योंकि पलायन के मूल में रोजी रोटी की समस्या है न कि गांवों के प्रति कोई अनास्था । 
          
रेणु की एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी रही कि वे अपनी रचनाओं के शिल्प के लिए पश्चिम के मान्य एवं स्वीकृत ढाँचों की तरफ़ आकर्षित नहीं होते अपितु भारतीय लोक परंपराओं में प्रचलित रूपों को अपनाते हैं । अपनी भाषा शैली के माध्यम से भी वे बोली और भाषा के बीच ताना-बाना बुनने की कोशिश करते हैं । रेणु का शिल्प उस परिवेश का ही है जिसे वे लगातार चित्रित करते रहे । रेणु एक लेखक के रूप में लिखकर जो दिखाना चाहते हैं ,दरअसल वह उनकी दृष्टि ही बड़ी महत्वपूर्ण है । रेणु आज़ादी के तुरंत बाद के भारत की राजनीति की जो छवि “मैला आँचल” जैसे उपन्यास में दिखाते हैं, वह उन्हें एक भविष्य दृष्टा के रूप में स्थापित करता है ।   
               
रेणु जो देख रहे थे वह निश्चित ही निराशा जनक था । वे पक्ष प्रतिपक्ष की तमाम आलोचनाओं के बीच अपनी रचनधर्मिता के माध्यम से उस आम आदमी की राजनीति को बख़ूबी दर्ज़ कर रहे थे जो राज़नीति के वास्तविक फ़लक पर हाशिये की ओर ठेल दिया गया था । यह एक जिम्मेदार लेखक की उपयोगी परंतु चुनौतीपूर्ण राजनीति थी । एक लेखक के रूप में उन्होने आम आदमी की राजनीति को बख़ूबी अंजाम दिया । इस बात के परिप्रेक्ष्य में मैं यह कह सकता हूँ कि रेणु कभी भी राजनीति से अलग नहीं हुए । जिस इलाक़े में सन 1942 के बाद भी राजनीतिक बातें अफ़वाहों के रूप में पहुँच रही थी ( मैला आँचल) वहाँ इतनी जबरजस्त राजनीतिक चेतना रेणु के अतिरिक्त कौन चित्रित कर सकता था ? 
              
ये रेणु का ही साहस था कि वे पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान में, जे पी की उपस्थिति में पद्मश्री को ‘पापश्री’ कहकर लौटा देते हैं । आंदोलनों को जीने की चेष्टा मानने वाले रेणु,स्वयं को ‘राजनीतिक नेता’ नहीं मानते थे । यद्यपि वे 1972 में विधानसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ते हैं । रेणु इस संदर्भ में अपने एक साक्षात्कार में कहते भी हैं कि, “अतः मैंने तय किया था कि मैं खुद पहन कर देखूं कि जूता कहां काटता है। कुछ पैसे अवश्य खर्च हुए, पर बहुत सारे कटु-मधुर और सही अनुभव हुए। वैसे भविष्य में मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा हूं। लोगों ने भी मुझे किसी सांसद या विधायक से कम स्नेह और सम्मान नहीं दिया है। आज भी पंजाब और आंध्र के सुदूर गांवों से जब मुझे चिट्ठियां मिलती हैं तो बेहद संतोष होता है। एक बात और बता दूं, 1972 का चुनाव मैंने सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ लड़ा था।’’1 यह चुनाव रेणु हार गये थे । 
            
जिन आलोचकों ने रेणु के ऊपर यह आरोप लगाया कि उनके अंदर आभिजात्य के प्रति मोह है, उन्होने शायद समग्रता और गहराई में रेणु का मूल्यांकन नहीं किया । आदिवासी समाज़ और आधी आबादी की जैसी वैचारिक पक्षधरता रेणु ने दिखाई, उसके बाद भी ऐसे आरोप समझ में नहीं आते । रेणु की आलोचना यह कहकर भी होती रही है कि उन्होने काल्पनिक आदर्शवादी पात्रों को गढ़कर एक झूठा आशावाद सामने लाया जिससे शोषण के विरुद्ध जो जन आक्रोश पैदा हो सकता था वो दब गया । इस तरह की आलोचना रेणु के लेखकीय अधिकारों का हनन है । रेणु ने ग्रामीण जीवन के अँधेरे उजाले संदर्भों का जिस तरह से आलिंगन किया और जैसी एकनिष्ठता उन्होने दिखाई वह अन्यत्र दुर्लभ है । 
             
रेणु के आंचलिक वितान के फलस्वरूप प्रेमचंद के बाद गाँव फिर से हिन्दी साहित्य में मज़बूत दखल के साथ दर्ज़ होता है । यह दखल रेणु की कहानियों और उपन्यासों के साथ संयुक्त रूप से होता है । यहाँ तक कि जब उनकी कहानी मारे गये गुलफाम के आधार पर तीसरी कसम फ़िल्म बनी तो वहाँ भी रेणु ने सम्झौता बिलकुल नहीं किया । फ़ायनानसर का बहुत मन था कि फ़िल्म के अंत में रेलगाड़ी की चैन खीचकर हीरामन और हीराबाई को मिला दिया जाय । लेकिन रेणु ने साफ़ कह दिया कि अगर ऐसा करना है तो फ़िल्म से लेखक के रूप में उनका नाम हटा दिया जाय । इस पूरी फ़िल्म ने उस ग्रामीण परिवेश,उसके लोकगीतों और लोक कथाओं को सदा के लिये अमर कर दिया । 
            
रेणु अपने कथा साहित्य के साथ ही अपने लिखे रिपोर्ताज़ के लिये भी जाने जाते हैं । यह साहित्य को द्वितीय विश्व युद्ध की देन है । रेणु इस संदर्भ में लिखते भी हैं कि, ‘गत महायुद्ध ने चिकित्साशास्त्र के चीर-फाड़ विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा-विभाग को रिपोर्ताज !’2 रिपोर्ताज़ घटनाओं का सजीव वर्णन है । यह शब्दों के माध्यम से विडिओग्राफ़ी जैसा है । घटित घटनाओं के क़रीब जाकर संवेदना के धरातल पर रिपोर्ताज़ का लेखन आसान नहीं । महामारी के दिनों में रेणु ख़ुद ऐसी जगहों पर जाकर उनपर रिपोर्ताज़ लिखते, तस्वीरें लेते या कि रिपोर्टिंग करते । 
            
कई बार ऐसी सजीव रिपोर्टिंग से सत्ता पक्ष की चूलें खड़ी हो जाती थीं । रेणु इस संदर्भ में स्वयं कहते हैं कि, “.....बिहार में 1967 में जब भयंकर अकाल पड़ा था तो पहले – पहल मैंने और अज्ञेय जी ने अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। उसकी रपट दिनमान में छपी थी। उस दौरे के दौरान हमने अकाल की विभीषिका दिखाने वाले अनेक चित्र लिये थे जिन पर सरकार को एतराज भी हो सकता था और वह हमें गिरफ्तार भी कर सकती थी। पर वह काम उसने तब नहीं किया। गत 9 अगस्त, 1974 को फारबिसगंज (पूर्णिया) में किया जहां हमने बाढ़ पीड़ितों की राहत के लिए प्रदर्शन किया था। साहित्यकारों की भूमिका के संबंध में एक बात और कह दूं। 1967 में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के चित्रों की कनाट प्लेस में प्रदर्शनी लगाई गयी थी और उससे प्राप्त पैसे सूखा पीड़ितों की सहायता में भेज दिये गये थे।’’3  
         
पश्चिम की इस लोकप्रिय शैली से रेणु भी गहरे प्रभावित हुए । रेणु इस संदर्भ में ‘सरहद के उस पार’ नामक अपने रिपोर्ताज में स्वयं लिखते भी हैं कि ‘‘मुझे नेपाल के जंगलों में ही राजनीति और साहित्य की शिक्षा मिली है। नेपाल की काठ की कोठरी में ही मैने समाजवाद की प्रारंभिक पुस्तकों से लेकर महान ग्रंथ ‘कैपिटल” तक को पढ़कर समझने की धृष्टता की है। पहाड़ की कंदराओं में बैठकर बंसहा कागज की बही पर ‘रशियन रिवोल्युशन” को नेपाली भाषा में अनुवाद करते हुये उस पागल नौजवान की चमकती हुई आँखों को मैने अपनी जिंदगी में मशाल के रूप में ग्रहण किया है।’’4 हिन्दी साहित्य में इस विधा को शुरू करने का कार्य शिवदान सिंह चौहान ने किया जिसे रेणु जैसे रचनाकारों ने नई ऊंचाई प्रदान की । इसकी परंपरा को अग्रगामी बनाने में जिन अन्य साहित्यकारों की महती भूमिका रही उनमें रांगेय राघव, अश्क, धर्मवीर भारती,  श्रीकांत वर्मा, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा और विवेकी राय का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है । 
           
रेणु हिन्दी साहित्य में अपनी मौलिकता, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिये सदैव याद किये जाते रहेंगे । रेणु की संवेदना, शिल्प और शब्द एकसाथ मिलकर पाठकों के समक्ष जो चित्र प्रस्तुत करते हैं, वह अपने समय का आख्यान बनकर संघर्ष के लिये रोमांच एवं रोमांस पैदा करता है । यह रोमांच ही हमारी चेतना को रिक्त नहीं होने देता । 
         

संदर्भ : 
  1. यह साक्षात्कार सुरेन्द्र किशोर द्वारा की गई बातचीत है जो प्रतिपक्ष के 10 नवंबर 1974 के अंक में छपी थी। हमें https://phanishwarnathrenu.com पर यह उपलब्ध मिला । 
  2. लेख / अनंत – रेणु और रिपोर्ताज जो कि https://phanishwarnathrenu.com पर उपलब्ध है । 
  3. संदर्भ 1 
  4. संदर्भ 2 



संदर्भ ग्रंथ सूची : 
  1. फणीश्वरनाथ रेणु : संभवंति युगे-युगे – शिवमूर्ति, कंचनजंघा : पीअर रिव्यूड छमाही ई-जर्नल । अंक-01,वर्ष -01, जनवरी – जून 2020 । 
  2. https://atmasambhava.blogspot.com/2016/08/blog-post_14.html नलिन विलोचन शर्मा बनाम रामविलास शर्मा (अर्थात् ‘मैला आँचल’ पर पक्ष-विपक्ष)
  3. https://phanishwarnathrenu.com 
  4. कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु : प्रेमकुमार मणि https://samalochan.blogspot.com/ 


      

- डॉ मनीष कुमार मिश्रा 
सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र
Manishmuntazir@gmail.com

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फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने
फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने भारत की आत्मा जिन ग्रामीण अंचलों में बसती है, उन्हीं अंचलों के जीवनानुभव को जिस सलीके और शैली से रेणु प्रस्तुत करते रहे, वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है । यह प्रेमचंद की परंपरा ही नहीं अपितु कई संदर्भों में उसका विकास भी था । विकास इस रूप में कि प्रेमचंद के विचारों और स्वप्नों को उन्होने अग्रगामी बनाया ।
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