वैश्विक संस्कृति का भारतीय समाज पर असर

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वैश्विक संस्कृति का भारतीय समाज पर असर भारतीय समाज पर भूमंडलीकरण का प्रभाव आज भूमंडलीकरण के प्रभाव से कोई अछूता नहीं है। इसका प्रभाव सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अवश्य दिखाई पड़ता है। भारतीय लोगों के जीवन, संस्कृति, रूची, फैशन, प्राथमिकता इत्यादि पर भी भूमंडलीकरण का प्रभाव पड़ा है।

वैश्विक संस्कृति का भारतीय समाज पर असर 


भारतीय समाज पर भूमंडलीकरण का प्रभाव आज भूमंडलीकरण के प्रभाव से कोई अछूता नहीं है। इसका प्रभाव सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अवश्य दिखाई पड़ता है। भारतीय लोगों के जीवन, संस्कृति, रूची, फैशन, प्राथमिकता इत्यादि पर भी भूमंडलीकरण का प्रभाव पड़ा है। एक तरफ इनसे आर्थिक विकास को गति और प्रौद्योगिकी का विस्तार कर लोगों के जीवन स्तर को सुधारने में मदद किया है वहीं दूसरी ओर स्थानीय संस्कृति और परंपरा में सेंध लगाकर हम पर विदेशी संस्कृतियों को थोपने का भी प्रयास किया है।

कुछ विचारकों के अनुसार, वैश्वीकरण एक आर्थिक अवधारणा एवं प्रक्रियामात्र है। इनके अनुसार यह विश्व के विभिन्न देशों के मध्य व्यापार, तकनीकी, श्रम एवं अन्तराष्ट्रीय पूँजी की परस्पर आर्थिक  अन्तःनिर्भरता  है।कुछ  विचारक  इसे शुद्ध  राजनैतिक  प्रक्रिया मानते  हैं।  इनके अनुसार राष्ट्रीय समाज के विचार, आदर्श एवं मूल्य को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से एकीकृत करना है जबकि कुछ विद्वान वैश्वीकरण  को सांस्कृतिक  आदान-प्रदान के  संदर्भ  में  देखते  हैं। इनके अनुसार, वैश्वीकरण से तात्पर्य संसार  की विभिन्न मौलिक संस्कृतियों को प्रतिस्थापित कर एक सार्वभौमिक संस्कृतिक की स्थापना करना है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एंथनी गिडेन्स (2001) का कहना है कि वैश्वीकरण केवल एक आर्थिक प्रक्रिया नही है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिकऔर राजनैतिक क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों के एक समुच्चय से संबंधित है।आधुनिक समय में संकल्पना 1960 के दशक से चर्चा में आए जब कैनेडियाई साहित्य के आलोचक मार्शल लोहान ने वैश्विक ग्राम शब्द को लोकप्रिय बनाया था। तकनीक के बढ़ने के साथ ही यह प्रक्रिया और तीव्र होती गई,  लेकिन  शीत युद्ध के माहौल ने इसकी रफ्तार मंद रखी। 1991 में  सोवियत  संघ  के विघटन तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के  खुलेने से  प्रक्रिया तो तीव्र हुई  ही, भारत भी  इस वैश्विक ग्राम का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य बन गया।चूँकि, प्रभावित करना एवं होना वैश्वीकरण की अनिवार्य प्रवृत्ति है। अतः भारतीय में समाज, अर्थव्यवस्था राजनीति इत्यादि के सभी हिस्से को इसने गंभीरता से प्रभावित किया। इसके कुछ प्रभाव सकारात्मक रहे तो कुछ नकारात्मक भी रहे। 

वैश्वीकरण और शहरीकरण के बाद भारतीय समाज काफी बदल रहा है और भारतीय संस्कृति में बहुत सारे
वैश्विक संस्कृति
वैश्विक संस्कृति
बदलाव आए हैं। अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक ढांचे को आकार देने में आर्थिक नीतियों का सीधा प्रभाव पड़ता है। सरकार द्वारा तैयार और निष्पादित आर्थिक नीतियों ने भी समाज में आय, बचत, निवेश और रोजगार के स्तर के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह मान लेना एक गलती होगी कि भारत आर्थिक सुधारों के लिए एक प्रभावी तंत्रवाद का मूल्यांकन कर सकता है और भारत के लिए आतंकवाद पर नियंत्रण जैसी घरेलू समस्याओं से निपटने के बिना वैश्विक बदलावों को अपनाना मुश्किल होगा, ग्रामीण शिक्षित लोगों को रोजगार प्रदान करना, और काम करना ग्रामीण गरीब, महिलाओं को सशक्त बनाने और हाशिए पर पड़े लोगों और किसानों के लिए उचित मूल्य और बाजार सुविधाएं प्रदान करना। भारत के लिए संघर्ष और सहयोग के कई नए क्षेत्रों में वैश्विक परिवर्तन चल रहे हैं और हम अपने स्वयं के राष्ट्रीय हितों के संरक्षण के आधार पर विश्व बाजारों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के एकीकरण के एक नए स्तर को प्राप्त कर सकते हैं।

वैश्वीकरण अर्थव्यवस्थाओं और समाजों के एकीकरण की प्रक्रिया है; और विभिन्न संस्कृतियों का परस्पर संबंध। दूसरे शब्दों में, वैश्वीकरण एक भौगोलिक सीमा से दूसरे भौगोलिक संसाधनों (ठोस और अमूर्त) के जुटाव और वितरण की प्रक्रिया है। यह अन्योन्याश्रितता की ओर ले जाता है। चूंकि वैश्वीकरण शब्द को गढ़ा गया है, इसलिए इसका उपयोग मुख्य रूप से अर्थशास्त्र के संकीर्ण संदर्भ में किया जाता रहा है, लेकिन यह केवल अर्थशास्त्र तक सीमित नहीं है।और सांस्कृतिक एकीकरण और परस्पर क्रिया वैश्वीकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू और परिणाम है।सामाजिक दृष्टिकोण से, वैश्वीकरण ने देशों के राष्ट्रीय जीवन जैसे जीवन शैली, दृष्टिकोण, पहचान, कार्य संस्कृति, पारिवारिक संरचना और मूल्यों और खाने की आदतों आदि पर काफी प्रभाव डाला है। 

वैश्वीकरण ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज को, बल्कि संपूर्ण शिक्षा और ज्ञान प्रणाली को भी प्रभावित किया है। ज्ञान का उत्पादन, उपयोग और हस्तांतरण भारत में महत्वपूर्ण अपरिवर्तनीय बदलाव का गवाह है। भारत जैसे समाज के लिए जो ज्ञान आधारित समाज था साथ ही भारत में ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था, जीवन और व्यवसाय के सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक अनुसंधान नवाचार और विकास का सबसे महत्वपूर्ण चालक है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रभाव के तहत, पूरी शिक्षा प्रणाली अंतरराष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में नई वास्तविकताओं के साथ समायोजित करने के लिए एक निरंतर और निरंतर परिवर्तन के दौर से गुजर रही है;मुख्य रूप से उच्च शिक्षा में वैश्वीकरण के साथ संचार प्रौद्योगिकियों में तेजी से बदलाव आ रहा है , साथ ही स्कूल और विश्वविद्यालय प्रणाली के भीतर छात्रों और शिक्षकों के बीच संबंध बदल रहा है। हमारी पूरी प्रणाली विचारों, मूल्यों और ज्ञान निर्माण पर आधारित है, जो औद्योगिकीकरण से सूचना-आधारित समाज की ओर बदलाव पैदा कर रही है। यह हमारी संस्कृति पर वैश्विक संस्कृति के प्रभाव को दर्शाता है और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का एक नया रूप हमारे सामने लाता है। 

वैश्वीकरण के प्रभाव के कारण ऐसी स्थिति पैदा हुई है। जिसमें यह कहा जा सकता है कि भारत में विद्यमान आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक आधुनिकीकरण की स्थिति ने लोगों में संकुचित भावना और पहचान के प्रति जागरूकता को बढ़ावा दिया है। स्थानीय संस्कृतियों और समुदायों में निवास करने वाले लोगों के मध्य आत्मकेन्द्रित भावना का विकास वैश्वीकरण के प्रभाव को इंगित करता है। भारत के समाजों और विभिन्न क्षेत्रें में ऐतिहासिक रूप से विद्यमान सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को दर्शाने वाले दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार के संपर्क राष्ट्रीय पहचान को चुनौती देने के स्थान पर प्रभावी हुए हैं। भारत के वेशभूषा सृजनात्मक क्रियाकलाप, भाषागत प्राथमिकता, संगीत, स्त्री-पुरूष संबंध, बच्चों के गोद लेने की प्रवृत्ति, अत्याधुनिक क्रियाकलापों को वरीयता, सिनेमा के प्रति रूची, सामाजिक रीति रिवाजों के प्रति विश्वास और नृत्य रूपों पर वैश्वीकरण के प्रभाव को देखा जा सकता है।भारतीय युवाओं पर वैश्वीकरण का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रें की तुलना में नगरीय क्षेत्रें में अधिक हावी है। भूमंडलीकरण पारिवारिक संरचना को भी बदला है। संयुक्त परिवार का स्थान एकाकी परिवार ने ले लिया है। हमारी खान-पान की आदते त्यौहार, समारोह पर भी वैश्वीकरण का प्रभाव देखा जा सकता है।

भूमंडलीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे पहनावे में भी देखा जा सकता है। समुदाओं के अपने संस्कार, परंपराएं और मूल्य भी परिवर्तित हो रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति और परंपरा भारतीय संस्कृति में पैर पसार रही है।उदहारण के तौर पर भीलाला जनजाति समूह के लोग वैश्वीकरण के कारण अन्यलोगों के सम्पर्क में आने लगे हैं। तथा समाज में अपने प्रस्थितिको उच्च करने के लिए अपना परम्परागत व्यवसाय(कृषि)छोड़कर दूसरा व्यवसाय अपना रहे हैं। जिसके लिये अपने गांव से दूसरे गांव, जिले एवं राज्य में पलायन कर रहें हैं। जिन लोगों ने अपने जीवनकाल में रेल तक नहीं देखे थे आजवे यातायात के आधुनिक साधन रेलगाड़ी एवं वायुयान में भी बैठने लगे हैं। ये अपने आर्थिकजीवन में वस्तु-विनिमय के स्थान पर मुद्रा का प्रयोग करने लगे हैं। 

वैश्वीकरण ने भारत में पूर्व में प्रचलित संयुक्त परिवार प्रणाली के एकल परिवार प्रणाली के रूप में समरूपीकरण की प्रवृत्ति का सृजन किया है। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या को प्राय: इस विचार के प्रस्तावकों द्वारा एक साक्ष्य के रूप में उद्धृत किया जाता है। हालांकि, अन्य यह तर्क देते हैं कि जुड़ाव की संस्कृति अभी भी विद्यमान है तथा वास्तव में संस्कृतियों का संकरण ही हुआ है। सप्लिमेंटेड न्यूक्लियर फैमिलीज़ (ऐसे एकल परिवार जिनमें माता-पिता और उनके अविवाहित बच्चों के अतिरिक्त उनका कोई ऐसा संबंधी हो जो तलाकशुदा,अविवाहित हो या जिसके जीवन-साथी की मृत्यु हो चुकी हो) की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण प्रस्तुत करती है। तथापि अन्य लोगों द्वारा आगे तर्क दिए गए हैं कि भारत के नगरीय क्षेत्रों में विविध कारकों के कारण संयुक्त परिवारों की संख्या में हुई वृद्धि संस्कृति के पुनरुद्धार को इंगित करती है।भारत की संयुक्त परिवार प्रणाली, जिसे दुनिया भर में सराहा गया है, टूट रहें हैं । अधिकांश लोग अब एक स्वतंत्र जीवन, पसंद करते हैं। कम से कम प्रमुख शहरों में हर जगह वृद्धाश्रम और वरिष्ठ समुदाय हैं। और जो एक वास्तविक चिंता है, वह यह है कि इनमें से कई एकल  परिवार साझेदारों के बीच तनावपूर्ण संबंधों के कारण विभाजित हो रहे हैं।भूमंडलीकरण भारत की सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट कर एक वैश्विक संस्कृति को थोप रही है जो पश्चिमीकरण से प्रभावित है। संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार के रूप में और फिर सूक्ष्मय परिवार (माइक्रोफैमिली) में बदलते जा रहे हैं। पति-पत्नी के बीच तनाव के कारण तलाक जैसे कदम उठाये जाने लगे हैं।

समाज में धर्मनिरपेक्षतावाद में वृद्धि की प्रवृत्ति देखी जा रही है, परन्तु विवाह जैसी प्रथाओं में धार्मिक समारोहों की निरंतरता संस्कृतियों के संकरण  की ओर संकेत करती है। इसलिए, जहाँ धर्म सामाजिक जीवन के कुछ पहलुओं में महत्वपूर्ण हो गया है,वहीं अन्य पहलुओं में इसका महत्व वैश्वीकरण के कारण कम हुआ है। हालांकि, ऐसी समरूपता और संकरण के सह-अस्तित्व के साथ-साथ समाज में एक धार्मिक पुनरुत्थानवाद भी मौजूद रहा है। धर्म गुरुओं की मौजूदगी एवं ज्योतिष शास्त्र की प्रधानता, ऐसे ही पुनरुत्थानवाद की ओर संकेत करते हैं।भूमंडलीकरण के कारण भाषा कई प्रकार से प्रभावित हुई है।  एक ओर  भूमंडलीकरण ने भाषा को तकनीकी रूप से समृद्ध किया है। वहीं दूसरी ओर मातृभाषा पर विदेशी भाषाओं का  प्रभाव भी दिखाई पड़ता है।साहित्य के क्षेत्र में भूमंडलीकरण ने पूंजीवादी मानसिकता  की  अहमियत बढ़ा दी है और पारंपरिक नैतिकतावादी साहित्य जो तुलनात्मक दृष्टि से कम उत्पादक होने के कारण उपेक्षित होने लगे हैं।  इसके अतिरिक्त भारतीय बाजारों में विभिन्न  विदेशी भाषाओं  के साहित्य भी देखने को मिल रहा हैं। 

चूँकि वैश्वीकरण शुद्ध अर्थवाद पर आधारित एक आर्थिक अवधारणा है जिसमें तार्किकता, बौद्धिकता, धर्म निरपेक्षता आदि को बढ़ावा मिलता है। इसने भारतीय युवाओं की विशेषतः सोंच तथा प्राथमिकता बदली है तथा नई पीढ़ी, धर्म, जाति, क्षेत्र, लिंग जैसे संकीर्ण विषयों पर ऊपर उठकर आर्थिक विकास प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। जाति प्रथा एवं जन्म के आधार पर भेदभाव समाप्त हो रहे हैं। अंतजातीय विवाह को स्वीकृति प्राप्त हो रही है। परंपरागत रूप से, जीवन साथी स्थानीय समुदायों से खोजे जाते थे, आमतौर पर एक ही जाति के भीतर। अंतरजातीय विवाह अब आम है। माता-पिता संभावित दुल्हनों और दूल्हों की तलाश के लिए वेब की ओर रुख कर रहे हैं, और अक्सर, वे अपने पश्चिमी दृष्टिकोण, जीवन शैली और उच्च डिस्पोजेबल आय के लिए अनिवासी भारतीय (अनिवासी भारतीय) को पसंद करते हैं। खुशियों के सूचकांक की तुलना में एक फैक्टर बैंक खाता अधिक महत्वपूर्ण है।उदाहरण के तौर पर, शहरी भारत में फास्ट फूड कल्चर तीव्रता से बढ़ रहा है, जिसमें शीतल पेय, पिज्जा, बर्गर इत्यादि का खाद्य विकल्पों पर प्रभुत्व है। मैकडॉनल्ड्स, पिज्जा हट जैसी वैश्विक कंपनियों द्वारा वैश्विक और स्थानीय रुचियों के संकर मिश्रण का निर्माण कर, संस्कृति के ग्लोकलाइजेशन को अपना कर इसके प्रभाव को और भी गहन बना दिया गया है।

कुछ समाज शास्त्रियों का मानना है कि विभिन्न क्षेत्रों के मध्य बढ़ती हुई पारस्परिकता ही वैश्वीकरण हैं। यह पारस्परिक सामाजिक-आर्थिक संबंधों में निहित होती है। इसमें समय व स्थान का कोई महत्व नहीे होता है। अंतर्राष्ट्रीय समाज वैज्ञानिको का मानना है कि विश्व को समझने हेतु वैश्वीकरण एक बहुलवादी अवधारणा है। इसका संबंध ऐतिहासिक, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं एवं व्यवहार से है।यह  कहा  जा  सकताहै कि वैश्वीकरण में दो परस्पर  विरोधी  प्रक्रियायें साथ-साथ  काम  करती हैं। एक  प्रक्रिया  सजातीयकरण  की  है और दूसरी  विभेदीकरण है।  इसका  तात्पर्य  यह  है  कि  इस  प्रक्रिया  में स्थानीयकरण  और वैश्वीकरण दोनों  समानान्तर  चलती है।इसने  समय  एवं  स्थान  कि  दूरी  को  कम  कर  दिया  है,  क्योंकि  इलैक्ट्राॅनिक  संचार एवं सूचना प्रोद्यौगिकी ने सम्पूर्ण संसार को एक सूत्र में बांध दिया है जिससे यह समाचार पल भर में दुनिया भर के लोगो को पहुँचा देता है अर्थात वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने वर्तमान ज्ञान एवं तकनीक आधारित समाज में नये इलेक्ट्राँनिक एवं संचारी अंर्तक्रियाओ को जन्म दिया है।

निष्कर्ष रूप में कहा  जा सकता है कि वैश्वीकरण का अभिप्राय विश्वके विभिन्न देशों के बीच आर्थिक संबंधों  के साथ  साथ  अन्य  क्षेत्रों  से  भी  संबंधित  है।वैश्वीकरण  को  विश्व  की  एक  मूर्त  संरचना  की सम्पूर्णता के रूप में परिभाषित किया जाता है। आज विश्व स्तर पर इस चेतना का उदय और विस्तार  होता  जा  रहा  है  कि  ‘विश्व’  एक  गतिशील  संरचित  परिवेश  है।  सांस्कृतिक वैश्वीकरण  आर्थिक  वैश्वीकरण  से  जोडा़  है।  मोटे  तोर  पर  वैश्वीकरण  विश्व  स्तर  पर क्रियाशील  एक  ऐसी  प्रक्रिया  है  जो  समय  और  स्थान  की  सीमाओं  को  तोड़ते  हुए  देशों समुदायों और संगठनों को अन्योन्याश्रितता और अन्तर्पारस्परिकता के संबंधों में बांधती है। यह वैश्विक स्तर पर आंदोलन एवं घुलन-मिलन, सम्पर्कों और अनुबंधों तथा स्थाई सांस्कृतिक अन्तक्रिया और आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया है।भारत दुनिया के साथ बदल रहा है और वैश्विक एकीकरण की ओर रहा है। कई भारतीय परंपराएं, त्यौहार, प्रदर्शनकारी कलाएं और जीवन के तरीके सदियों पुराने हैं, और वैश्विक संस्कृति में इनके गुम हो जाने का खतरा अवश्य है किन्तु,  इंटरनेट इन सभी परंपराओं को संरक्षित करने में एक बड़ी भूमिका निभा रहा है ताकि हमारी आने वाली इस  बहुमूल्य भारतीय संस्कृति को न भूल जाए।     

सन्दर्भ 
■ अहलूवालिया, एम। एस। (2002)। 1991 से भारत में आर्थिक सुधार: क्रमिकतावाद है। जर्नल ऑफ इकोनॉमिक पर्सपेक्टिव्स, वॉल्यूम। 16, नंबर 3।
■ कार्नॉय, डी। एम। (2000)। वैश्वीकरण और शैक्षिक सुधार। N. P. Stromquist, और K. Monkman में, वैश्वीकरण और शिक्षा। रोमैन
& लिटिलफ़ील्ड प्रकाशक
■ भालोत्रा, एस। (2002)। भारत में रोजगार और मजदूरी पर आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव। जिनेवा: अंतर्राष्ट्रीय नीति समूह,
अंतर्राष्ट्रीय श्रम कार्यालय।
■ डर्ने, एस। (2005)। भारत में सांस्कृतिक वैश्वीकरण का प्रभाव: सांस्कृतिक सिद्धांत के लिए निहितार्थ। कविता, 33 (2005), 33-47


- डॉ सुशील शर्मा 

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