विभावरी बीता जाए

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विभावरी बीता जाए विभावरी बीता जाए रजनी बीती, तिमिर सिमट रश्मि सरसिज में आए कुछ अलसाई, मुस्काती सी अगणित साध बसाए जागरण का फिर बजा बांसुरी

विभावरी बीता जाए

                 
विभावरी बीता जाए
रजनी बीती, तिमिर सिमट
रश्मि सरसिज में आए
कुछ अलसाई, मुस्काती सी
अगणित साध बसाए
जागरण का फिर बजा बांसुरी
       विभावरी बीता जाए
उषा की किरणें लहराई
खग बृंद समुह हर्षाए
त्यज निंद्रा, सेज छोड़ प्रिय
अलकों में स्वप्न बसाए
मधुप, पुष्प प्राणों से गाए
       विभावरी बीता जाए
लेकिन, आज प्रभात, कालिमा
भयभीत, विश्व मे तांडव है
आलिंगन में मौत झांकता
संक्रमित व्याल या रब है
काल फलक, अपराध लिखेगा
अमर प्रभा मुस्काए
दुर्जन, फिर जीवन जीतेगा
       विभावरी बिता जाए 

वो लड़की

        
दिनभर
जबरन श्रम करती हुई
वो लड़की
पीड़ा और थकान से
बदहवास
चाहती है
अपने नीले संसार मे
कुछ देर, रोना
ताकि, अपने पीड़ा को
कुछ कम कर सके
रात्रि के सघन अंधकार में
जल्दी ही पहुंचना चाहती है
अपने बिस्तर पर
बुलाती है नींद को
सपने को बहलाती है
आओ मेरे हसीन सपनों
मेरे बदबूदार शरीर में 
समा जाओ
ताकि
विभावरी बीता जाए
विभावरी बीता जाए
देख सकूँ कुछ
खुशबूदार हरियाली
किस्से-कहानियों के
बियावान जंगलों में
दौड़ती चली जाऊं
और सदा के लिए
गुम हो जाऊं
छायादार वृक्षों के
नीचे, 
सुन सकूँ
अपनी , धड़कती 
आत्मा की आवाज


वह पेंटिंग बनाने वाली लड़की

       
वह अनवरत
अपने अनुभवों के
कैनवास पर
एक-एक
आड़े तिरछे रेखाओं को
बहुत ही 
तत्परता के साथ
अध्ययन करती है
करती है अवलोकन
रंग भरते हुए
अपने उम्र का,
वह पेंटिग
बनाने वाली लड़की
चाहती है 
चहकते वृन्दो को,
छायादार वृक्षों को
चाँद की चंचलता को
कि-
अपने कुंचियों के सहारे
इंद्रधनुषी रंगों में
कैद कर ले
और दिखा सके
अपने उदास पिता को
और पा सके शाबाशी
थोड़ा सा प्यार
ला सके पिता के
मुखों पर मुस्कुराहट
लेकिन-
उसे क्या मालूम
कि उसका पिता
बदहाली के दलदल में 
घिसटता 
किस दर्द को पी रहा है
उसे क्या मालूम

लौट चलें                   

लौट चलें
प्रकृति की गोद में
क्यों लौटें, कहाँ लौटें
एक बीहड़ प्रश्न है
इंसान का-
तुक-टुक होता
उसकी इंसानियत का
प्रकृति ने जंगल बनाया
इंसान ने जंगल काटा
प्रकृति ने पर्वत शिखर बनाया
नीला आसमान बनाया
चाँद तारे बनाए
मनुष्य एक-एक कर
प्रकृति को झुठलाता गया 
और अपने
कौशल कलाएं दिखलाकर
अपना कोरस गाता गया
अपनी ही करनी का स्वाद
परमाणु की पुड़िया
विस्फोटक का सामान
छोड़ दिया चराचर धरती पर
और आज नंगा हो गया
दुर्बल और असहाय
डरा, सहमा, पीड़ा से विक्षिप्त
आज पुकारता है
ईश्वर को, अल्लाह को
मैं पुछता हूँ 
इंसान से
जीवन की बेहतरी किसमे है
विलासिता में 
कला कौशल में
अंतरिक्ष को नापता यान में
या फिर प्रकृति की गोद में
अगर हां
तो प्रकृतस्थ हो जाओ
काल भी नमन करेगा, तुम्हारा
अगर नहीं तो
फिर सोचना---
प्रकृति ऐसा लॉकडाउन करेगी
जिसको खोलने के लिए
चाबी
पूरी धरती पर, न ही महासागरों की
गहराइयों में नही मिलेगा
ढूंढ सके तो ढूंढना


गति जीवन है

                          
गति जीवन है
गति मधुवन है 
गति ही आनंद है
पाठ्य-पुस्तकों में 
पढ़ाया गया था
ब्रह्मांड की सभी ग्रह
समान रूप से गति करते हैं
संस्कृत के श्लोकों में
बताया गया था
जहां गति है, वहीं जीवन है
गति रुका, तो जीवन रुका
आज मैं जाना कि
क्यों होता है मीठा 
बहते झरने का पानी
दहता नदी का जल
सरोवरों का पानी स्थिर है
लेकिन कहाँ योग्य बचा
कि पीकर अपनी आत्मा को
तृप्त कर सकें
समंदर, सहस्र नदियों का पानी
डकार कर भी स्थिर है
बंटता है खारा जल
अलबत्ता लहरे गतिमान हो
निर्माण करता है ज्वार भाटा
ताकि दे सके जगत को
स्वादिष्ट नमक
न्यूटन ने कहा था
दुनिया की हरेक वस्तु 
गतिमान है, 
और होना ही चाहिए
अगले उजाले के लिए
सुनहले बसंत के लिए
दे सकें अपनी विरादरी को
प्रगति का उन्नत बीज
आज दुनियाँ की हरेक चीजें 
गतिमान है, गतिशील है
अनुकूलन है, 
इसीलिए दीप्तिमान है
गीत में, संगीत में
कविता की भाषा में
कवि की जिज्ञासा में 
गल्प रचते भावों में 
रचना की छाओं में
कला के स्पंदन में
रुका हुआ आदमी
ठहरा हुआ जल
अवरुद्ध हो चुका पथ
कब मंजिल पाता है
नकार दिए जाने के सबब
हरे जुआरियो की तरह 
जीवन कुंठाओ से भर जाता है
वह सनकी और पागल कहलाता है
बदबूदार लगता है
सड़े हुए जख्मों की तरह

हमे गतिमान होना ही चाहिए
अगले दृश्यों में प्रस्तुत होने के लिए
अपने बेहतरीन अभिनय के लिए
क्योंकि गति ही जीवन है
जीवन का प्रारब्ध है
जीवन का उत्कर्ष 
          

वफ़ा की परछाई 

                
    
भरी दोपहरी में
जब सूर्य की किरणें
आग बरसा रही थी
और तपती हुई लू
तन बदन को 
और तपिश देकर
रुधिर को जला रहा था
अपनी दीर्घ चासनी में
सागर के लहरों को
मचलना भी 
गंवारा नहीं लगा शायद
की अपनी शान में
कोई ठंढी लोरियां सुनाए
स्वर्णिम और गर्म 
अपरिमित रेत पर 
पांवो के निशान
कतारबद्ध , वक्ररेखा सा 
बनाता, मैं चलता गया 
कुछ अनचाहे बेडौल सा
रेखाचित्र बनाता हुआ
एक एक 
बढ़ता हुआ कदम
जैसे अंगारों पर चल रहे थे
और हर बढ़ते कदम के साथ
छाले का निर्माण हो रहा था
साथ चल रहा था
कुछ कुछ 
करुणा की शीतलता 
होंठो पर सजाता
बेसुरा राग की तरह बजाता
मेरी मौन परछाई
वफ़ा की आंच पर सुलगता
वो कब साथ छोड़ती है


सन्नाटे का बाजार

       
यह सन्नाटे का बाजार
उदासियों का शिविर
गहरा, छा रहा है, ऊपर
नीचे यह एकाकी का
झरना बह रहा है,
        बेवजह, बेपरवाह दिशाहीन
यह बीच सुन्नापन,
हृदय से संवाद करता
टटोलता है,
बिम्बों की परिभाषा
और आत्मा से घुलमिल
खुलता रहता है
तलाश कर ही लेता है
       जीवन की व्याख्या
सुंदर में असुंदर तत्व बहता है
रूप में अरूप विम्ब दिखता
गुणों में एक अवगुण झांकता है
विचार में एक अवरोध
अकथ्य, अप्रमेय
अनुभवों की चासनी में
एक अतिक्रमण,
इन्द्रिय ज्ञान लड़ता है
पुरुषों के संचित वैभव के पीछे
           कामुक, कापुरुष मिलता है
मैं एक मौन का सूचक,
रातों जगा
स्वयं को सन्नाटे के तट पर
निरुदेश्य, खड़ा पाता हूँ
मैं मौन प्रखर, सब रूपकों में
उस एक अव्यक्त, मुक्त संगीत को
        अंतर में बजाता हूँ



- सुरेन्द्र प्रजापति 
ग्राम-असनी, पोस्ट-बलिया , 


थाना-गुरारू, गया (बिहार)

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