तस्वीरों में रिश्ते की तलाश

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तस्वीरों में रिश्ते की तलाश हमारे लिए ये सफर अद्भुत था । बेहद रोमांचक और आकर्षक । आकर्षक इसलिए कि हमारे जीवन का ये मार्केटिंग की दुनियाँ में पहला सफर हो रहा था । यों तो हम अपने गांव के ही जिगरी दोस्त अनवर हुसैन के साथ दर्जनों बार WT में इस लोकल ट्रेन का हिस्सा बन चुके थे । तब हमारे पास सफर करने का कोई सटीक कारण नहीं होता था

तस्वीरों में रिश्ते की तलाश


हमारे लिए ये सफर अद्भुत था । बेहद रोमांचक और आकर्षक । आकर्षक इसलिए कि हमारे जीवन का ये मार्केटिंग की दुनियाँ में पहला सफर हो रहा था । यों तो हम अपने गांव के ही जिगरी दोस्त अनवर हुसैन के साथ दर्जनों बार WT में इस लोकल ट्रेन का हिस्सा बन चुके थे । तब हमारे पास सफर करने का कोई सटीक कारण नहीं होता था । पुरे सफर में हम अपनी टीम के सभी लोगों के साथ ट्रेन के लोकल कम्पार्टमेंट में पुरे मस्ती के साथ सफर करते रहे । हम टोटल 27 व्यक्ति एक ही साथ एक ही स्टेशन से सफर की शुरुआत किए थे । कल यानि 27 दिसम्बर को वाराणसी में हमारे बिजनेश का एक भव्य ट्रेनिंग सह सेमिनार का आयोजन था । हम सभी लोग रात के 10 बजे गुरारू स्टेशन से लोकल ट्रेन आसनसोल वाराणसी पैसेंजर पकड़े थे । चूँकि पुरे सफर में हंसी ठहाकों का दौर चलता रहा लेकिन हम करीब-करीब उस माहौल से तटस्थ ही रहे । कभी कभार कोई टीम का मेम्बर या हमारे सीनियर हमें छेड़ता तो सिर्फ उनका मान रखने के लिए हो हल्ला कर दिया करता था । कारण स्पष्ट था ; एक तो हम बचपन से ही एकांतप्रिय इंसान रहा हूँ, दुसरा मैं बचपन से ही किताबी कीड़ा रहा हूँ । हम जब भी कोई सफर पर निकलते हमारे बैग में कोई न कोई हिंदी साहित्य की पुस्तकें या हिंदी की पत्रिकाएं अवश्य होता, जो हमारे मित्रों को हमेशा अखरता रहता और वे निहायत ही मेरे इस आदत को बेवहियात मानते और हम हमेशा बहुत खुश रहते की चलो कम से कम इसी बहाने कोई मित्र या परिचित मुझे किताबों में डुबा देख डिस्टर्व नहीं करता । इस सफर के दौरान भी हमारे हाथ में एक हिंदी का उपन्यास था और उसे मैं मजे ले लेकर पढ़ रहा था । 

     करीब साढ़े बारह बजे हम सारे लोग वाराणसी रेलवे स्टेशन पर उतरे । मीटिंग दुसरे दिन सुवह 10 बजे से शुरू होना था । अब सुवह तक हम सबको कहीं न कहीं समय बिताना था । सो, सारे लोगों ने निर्णय किया कि स्टेशन के बाहर कम्पाउंड में ही बाकी का समय गुजारा जाय । हम सभी लोग बाहर कम्पाउंड में आ गए । सैंकड़ो यात्री बाहर कम्पाउंड में ही आराम फरमा रहे थे । करीब 30 मिनट के अफरा तफरी के बाद हम सभी टीम के सदस्यों के साथ एक रिक्त स्थान पर एडजस्ट कर लिए थे । कुछ देर इत्मीनान हो जाने के बाद मुझे चाय का तलब लगा । सो मूड ठीक ठाक करने के ख्याल से एक लड़के को लेकर कम्पाउंड से बाहर निकले । रोड पार करके हम एक विशाल टी हाउस में पहुंचे । दो गरमा गरम चाय का ऑर्डर देकर आसपास खड़े लोगों के हुजूम का मुआयना करने लगा । पास ही बिजली के खम्भे पर, विशाल भवनों के दीवारों पर बड़े बड़े एजुकेशन संस्थानों का होर्डिंग्स लगा हुआ था । कुछ में अमिताभ बच्चन नवरत्ना तेल के साथ था । तो कुछ में क्रिकेट का भगवान कहे जाने वाला सचिन तेंदुलकर, बिनानी सीमेंट का गाथा गया रहा था । कहीं अमीर खान ठंढा ठंढा कुलकुल pepsi के साथ था, तो कहीं विश्वसनीयता का पाठ पढ़ाते मि० कुल के नाम से विख्यात अपना भरोसेमंद क्रिकेट कप्तान धोनी । यों कहें कि अगर हिंदुस्तान के महान लोगों का अगर गाथा जानना हो तो बनारस जैसे महानगरी में जाओ । वहाँ हर चौराहे, बस स्टैंड, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर इन महारथियों का कारनामा होर्डिंगों की शक्ल में मिल ही जाएगा । और अगर आप कभी भी स्वयं को तन्हा महसुस कर रहे हों, किसी का इंतजार करते बोरियत महसुस कर रहे हों तो समय बिताने के लिए इससे आसान और खुबसूरत तरीका दुसरा न होगा कि आप उन होर्डिंगों को एक बार सरसरी निगाहों से देख लें ।

     चाय मिला और हमलोग चाय सुड़कने लगे । अगल-बगल में बहुत सारे लोग चाय की चुस्कियों के साथ लुफ्त उठा रहे थे , लेकिन भिन्न-भिन्न समूहों में । नौजवान युवकों का अलग टीम था तो, विद्यार्थियों का अलग । और वैसे भी लोगों का झुंड ऐसे स्थानों पर मिल ही जाएगा जो अपने जिंदगी से हताश, परेशान, बेचारगी किस्मत का ढिंढोरा पिट रहे हों । कहीं टॉप के शिक्षण संस्थानों के डिग्री की बातें तो कहीं भारतीय गवर्नमेंट की बातें । कहीं हमारे देश की सर्वोच्य अदालतें क्या कर रही है, उसकी चर्चा । कहीं धर्म की चर्चा, कहीं बॉलीबुड । अरे महाराज, कभी-कभी देश की आर्थिक स्थितियों का घमासान भी यहीं पर मिलेगा । मसलन देश में बेरोजगारी की बेतहासा वृद्धि हुई है । कम्पनियां कर रही है नौकरी में छंटनी । देश की आर्थिक विकास दर की रफ्तार में कमी । सीमापर बढ़ती आतंकवादियों का घुसपैठ । आज लोकसभा में तीन तलाक को लेकर हंगामा । अरे महोदय क्या बताऊँ, कैसे-कैसे लोग हैं हमारे देश में, और कैसी कैसी बातें होती है । आज जीवन में मेरा पहला अनुभव था । मैंने सोचा, काश ! मैं एक मंजा हुआ लेखक होता तो यहाँ तो कथानक गंगा के साथ बह रहा है । एक से बढ़कर एक चरित्र, और शीर्षक का तो कहना ही नहीं है । लेकिन मैं निःसहाय बस ताक रहा हूँ । मेरे जेब में कलम है लेकिन उसमें इतना कौशल कहाँ, और मुझमें इतना सामर्थ्य कहाँ कि हम वहाँ फैले और अस्त व्यस्त होते कथानकों को एक सार्थक शीर्षक के साथ चित्रण कर सकूँ । हम ठहरे भला एक अदना सा इंसान । खैर हम दोनों चाय पी ही रहे थे कि एक महिला आई । फ़टे मैले कुचैले कपड़ों में लिपटी । उमर यही कोई पैतालीस पचास वर्षीय । उसके शरीर से तेज दुर्गंध आ रहा था । उसके साथ ही एक तार तार कपड़ों में लिपटी अठ्ठारह उन्नीस वर्षीय लड़की । उस लड़की पर जवानी इस कदर गर्दिश कर रहा था कि किसी के पाक इरादों में भी खलल डाल दे । निहायत ही खुबसूरत, गोरी इकहरी, लेकिन भुख और तंगहाली ने उसके सौंदर्य को पुरी तरह सत्यानाश कर दिया था । सिर के बाल बेतरतीब से घोसलों की शक्ल ले चुका था । जिसमें न जाने एक चुपड़ी तेल कभी नसीब हुआ भी होगा या नहीं । वह महिला के पीछे-पीछे रही थी । मैंने अनुमान लगाया शायद दोनों माँ बेटी है । वह महिला, वहाँ उपस्थित लोगों के सामने अपना सुखकर बेजान हो चुकी हाथ फैलाती, अपनी बेटी की ओर देखकर इशारा करती, जैसे याचना के स्वर में कह रही हो-"मेरी बेटी भुखी है, कुछ तो दया करो" । बहुतों ने मुँह फेर लिया । किसी ने मन्युसिपैलिटी वालों को गाली दिया । किसी ने सरकार को कोसा, तो किसी ने निर्लज्जता के साथ हंसते हुए ये भी कह दिया, अरे क्यों खामख्वाह परेशान होती हो बुढ़िया, इतना हुर सी खुबसूरत बेटी को लेकर भीख मांगती हो । अरे इसे किसी कोठे पर बिठाओ, इसका जिन्दगी संवर जाएगा । किसी ने बेहयाई की सीमा को ही पार कर दिया । साली इनलोगों का काम ही है पैसे रुपये के लिए अभी हाथ पसरेगी, और मौका मिलते ही किसी लफंगे के साथ मुँह काला करेगी । पुलिसवाले तो बख्शेंगे नहीं । 

तस्वीरों में रिश्ते की तलाश
तस्वीरों में रिश्ते की तलाश
     कहना न होगा कि वहाँ पर उपस्थित भीड़ में किसी ने जहमत नहीं उठाया कि भुख से जार-जार होती उस लाचार माँ बेटी को कुछ खाने को दे दे । अलबत्ता टी स्टाल वाले ने एक वेटर को बुलाकर बासी पूरियां और सब्जियों से भरा हुआ प्लास्टिक उसे दिलवा दिया । वह महिला प्लास्टिक को झपटते हुए एक ओर चली और कुछ कदम आगे बढ़कर खाली जमीन पर बैठ दोनों माँ-बेटी खाने लगी । जैसे कई दिनों की भूखी हो । और यह सारा वाक्या वहाँ चाय सुड़कते लोगों के मनोरंजन का बेहतरीन साधन भी बन गया था । कुछ ऐसे लोग भी थे जो अपने जेब से स्मार्टफोन निकाल कर उन दोनों माँ बेटी का तस्वीर अपने कैमरे में कैद करते जाते थे, जो शायद उनकी फोटो ग्राफी को बेहद सजिन्दगी के साथ सजाते और आय का खूबसूरत स्रोत बन सके । 

     चाय पी लेने के बाद हम दोनों ही वहां से लौटे और वापस कम्पाउंड में आकर अखबार फैलाए और बैठ गए । हमारे टीम के अधिकांश सदस्य वहाँ बैठे आपस मे गपशप कर रहे थे । कुछ अपने थैले से बचे खुचे खाद्य सामाग्री निकाल कर खा रहे थे । कुछ सोने का उपक्रम कर रहे थे ।

     अभी कुछ ही देर हुआ था कि एक लड़का आया । सोलह सत्रह वर्षीय स्मार्ट किस्म का, ग्रे रंग का टी शर्ट और गहरा ब्लू रंग का जीन्स, उसके गोरे और इकहरे शरीर पर खुब फब रहा था । आँखों पर सुनहले प्रेम का चश्मा था । वह परिसर में बने एक मार्बल के बेंच पर बैठ गया । अपने साथ लाये बैग को खोला और उसमें से व्हाइट प्लेन पेपर और पेंसिल निकालकर कुछ लिखने लगा । शुरू में मैं उसपर खास ध्यान नहीं दिया । लेकिन जब मैंने उसे देखा कि लड़का बीच बीच में सामने की ओर शायद बड़ी उत्सुकता से किसी वस्तु को या व्यक्ति विशेष को देखता है और पुनः प्लेन कागजों पर झुककर अपना पेंसिल चलाता है । यह क्रिया वह बार बार करता है । कभी वह स्टेशन परिसर में लगे विज्ञापनों की होर्डिंग्स में जैसे अपने लिए कोई चीज तलाशता हो । पुनः अपने सामने पैड पर चस्पे प्लेन कागजों पर झुक जाता है । कुछ अड़े तिरछे पेंसिल को घुमाता है । इस क्रम में उसके चेहरे का रंग कुछ ऐसे बदल रहा था जैसे किसी शिल्पिकार के चेहरे पर शिल्प गढ़ते समय भाव गर्दिश करता हो । मेरे मन में एक उत्सुकता जगा और मैं शीध्रता से उठकर  उसके नजदीक पहुँचा । बेंच के एक किनारे पर बैठते हुए उसके पैड पर चिपके प्लेन कागजों को देखने लगा । वह लड़का चित्र बनाने में मसगुल था । उसके सामने एक व्यक्ति सिर के नीचे अपना बड़ा सा बैग रखकर सो रहा था, और लड़का उसका तस्वीर अपने पैड पर लगे प्लेन कागजों पर बहुत ही बारीकी से, सहजता के साथ उकेरता जाता ।

       'क्या बात है' ? मैं उत्सुकता वश पुछ लिया-"यार तुम किसी की आकृति या छवि को, या चेहरा को देखकर तस्वीर बना देते हो" । यह मेरे लिए निहायत ही खुबसूरत पल था । 
      "निःसन्देह, आपका भी बना सकता हूँ" । वह मुस्कुराते हुए बोला ।
      "तब तो मेरा बना ही दो" । प्रत्युत्तर में मैं भी मुस्कुराया ।
      "बस अभी जस्ट पांच मिनट में" ।
      मैं उसके सामने बैठा और वह मेरा तस्वीर बनाने लगा । लगभग पाँच मिनट बाद मेरा तस्वीर मेरे सामने था । ब्लैक एंड व्हाइट कलर में । बिल्कुल हुबहू । जबरदस्त ! मैं भावविभोर हो उठा । लड़का एक और तस्वीर बनाने में मशगूल था ।
      "तुम बनारस में रहते हो" ?
      "हां B.H.U में स्नातक का स्टूडेंट हूँ" ।
      "ये तस्वीर क्यों बना रहे हो" ?
      "ये वार्षिक चित्रकला प्रदर्शनी में लगाया जाता है । जो तस्वीर खुबसूरत और जीवंत होगा, उसको चुन लिया जाएगा और उसपर चित्रकला पुरस्कार मिलता है" ।
       अचानक मेरे मन में उस वृद्ध महिला का ख्याल आया और मैं उठते हुए उसका हाथ पकड़ा---"चलो मेरे साथ" !
       " कहाँ..." ? वह चौंकते हुए मुझे देखने लगा ।
       "चलो ना... बस पास ही में चलना है । एक तस्वीर बनाना है , बिल्कुल जीवंत" ।
       मैं उसे लेकर सड़क पर किया । मेरे नजरें उस अधेड़ महिला को तलाशने लगा । कुछ ही दूरी पर वह दोनों माँ-बेटी बासी पूरियां और दुर्गंध देती सब्जियां खा रही थी । आंखे वीरान लेकिन चेहरे पर तृप्ति । मैं उस लड़के से कहा-"देखो जीवंत तस्वीर है । भला इससे जीवंत तस्वीर दुसरा हो सकता है क्या ? महोदय, जहाँ एक ओर नित्य विकास की बातें हो रहा है, समृद्धि के नए-नए कृतिमान गढ़े जा रहे हैं, वहीं दुसरी ओर बनारस जैसे इस पवित्र महानगरी में देश की संस्कृति आहत हो रही है । इसे अपने तस्वीर में उतारो, लेकिन ध्यान रहे, तस्वीर में जीवंतता और सजीवता आना ही चाहिए ।
      वह कुछ बोलना चाहा लेकिन फिर चुप रहकर ही तेजी से अपना कैनवास व्यवस्थित किया और उस दोनों माँ बेटी का तस्वीर तेजी से बनाने लगा । मैं लगातार कभी उसके तस्वीर को, कभी उसके चेहरे पर आते जाते भावों को देख रहा था । मैं चकित था कि उस दोनों माँ बेटी को देखकर वह लड़का कुछ असहज सा क्यों महसुस कर रहा है ? उसके अंदर एक बेचैनी सा क्यों दिख रहा है ? करीब आधे घंटे के बाद वह लड़का उस तस्वीर को फाइनल टच देकर उठा । उसके आँखों में आँसुओं के कण झिलमिला रहे थे । 
      मैंने उससे पुछ लिया---"भाई तुम अचानक इस माँ बेटी को देख इतने परेशान क्यों लग रहे हो" ?
      वह बोला कुछ नहीं । चुपचाप मायुस आँखों से देखते हुए उसने अपना कैनवास मुझे पकड़ाते हुए टुटते स्वर में बोला---"पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा है जैसे इससे मेरा कोई करीबी रिश्ता रहा हो । ऐसा लग रहा है कि जैसे वर्षों पहले मेरी खोई हुई माँ मिल गई" ।
      "माँ मिल गई, मैं समझ नहीं" मेरे मुँह से अनायास निकला और मैं उत्सुकता से उसके चेहरे को देखने लगा । 
      "ये तो मैं भी नहीं जानता, क्योंकि माँ की सुरत मैं आजतक नहीं देखा । जब होश संभाला तो खुद को ताऊ जी के घर में स्वयं को पाया" ।
      "फिर तुम्हारे ताऊ, तुम्हारी माँ के बारे में  कुछ नहीं बताते थे" ।
      "सिर्फ इतना कि मेरी माँ बनारस में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगो की भेंट चढ़ चुकी होगी या खो गई होगी" । कहते कहते वह लड़का उस दोनों माँ बेटी के पास पहुंचा । वृद्ध महिला उस लड़के को ऐसे देखने लगी जैसे कुछ याद कर रही हो । जैसे सालों पहले का  कोई अपना बिछुड़ा हुआ अचानक मिल गया हो । 
      लड़का भी बहुत ही शांति के साथ कौतुहल नेत्रों से कभी उस वृद्ध महिला को कभी उस जवान लड़की को याचना और पवित्रता के साथ देखे जा रहा था । लेकिन मुँह से एक भी शब्द नहीं निकल रहे थे । मैं फौरन महिला के पास गया और धीरे से पुछा--"चाची, आप इस लड़के को ऐसे क्यों देख रहे हैं जैसे इसे आप जानते हैं" ।
       "आँ हाँ, लेकिन याद नहीं आ रहा है कि इसे कहाँ देखा हूँ, कब देखा हूँ" । 
       "याद नहीं आ रहा है, अच्छा ये बताइए, आपके परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति जो आप लोगों से बिछुड़ गया हो" । मैनें उसके चेहरे पर आते जाते भावों को देखता रहा ।
       वह शायद सहानुभूति के एक शब्द सुन कर तड़प उठी थी । फिर मेरे  एक प्रश्न पर जैसे वह रो ही तो पड़ी । उसका चेहरा तेजी से बनने बिगड़ने लगा था । वह करुणा से भर आईं । जैसे पीड़ा से उसका समूचा जिस्म कराह उठा हो । हृदय में बेचैनी का तुफान उठा । नेत्र में एक जिजीविसा, एक पीड़ा, एक विषाद आंसुओ के रूप में तिरोहित होने लगा । बेहद लाचार और दयनीय स्वर में बोली---"छोटा सा एक बेटा था, जब वह दो साल का था, तब से आज तक ढूंढ रही हूँ । लेकिन आजतक नहीं मिला" ।
      मैं कुछ पूछता उससे पहले ही लड़का जो देरों से उस महिला की बात बहुत ही खामोशी और बेचैनी के साथ सुन रहा था पुछा-"आपका घर कहाँ है" ।
      "होशंगाबाद कोठार में" ।
      "बस..." !  लड़का तेजी से बोला-"आपने अपना बेटा खोया है, मैंने अपनी माँ खोया है । सिर्फ इतना बताइए कि आपके परिवार में और कौन कौन रहते थे, और आपका पुत्र कैसे बिछुड़ा" ।
      महिला रोने लगी । रोटी हुई बोली-"ये मेरी बेटी है । इसके बाद एक पुत्र था । तब वह 2 साल का था । बड़ा ही नटखट था और चंचल । मेरी एक जेठानी थी । वह संतानहीन थी, सो हमसे कहीं ज्यादा हमारे पुत्र को वही स्नेह देती थी । मेरा पति शराबी था, जो पूरी तरह स्वयं को शराब में डाल चुका था । उसके हरकतों से मैं अजीज आ गई थी । सो मैं फैसला कर लिया था कि अगर मुझे अपनी बेटी और पुत्र का परवरिश करना है तो मुझे खुद ही उधम करना पड़ेगा । सो मैं कुछ दिन दूसरों के घर में काम करके अपनी बच्ची का पढ़ाई और बेटे का पालन पोषण करने लगा । उस पर भी मेरा शराबी पति मेरे कमाए हुए पैसे पर आँख गड़ाए हुए रहता और मौका मिलते ही मुझे मारपीट करके मुझसे मेरा पैसा छीन लिया करता । वह कभी कभार कमाने के लिए बनारस आया करता था । एक दिन वह मुझसे बनारस आने के लिए कहने लगा, लेकिन मैं नहीं माना । वह बहुत तरह से मिन्नतें किया, बेटे का वास्ता देकर कहने लगा कि चलो, बनारस में एक आफिस में लिखा पढ़ी का काम है, तुम पढ़ी लिखी हो, अगर वह काम फिट हो गया तो ठीक है नहीं तो दो दिनों में वापस लौट आएंगे । मैं जाने को तैयार नहीं था और वह हठ कर रहा था । मेरी जेठानी भी मुझे समझाने लगी कि जीवन में पहली बार तुम्हारा पति इतने प्यार से कह रहा है तो चली जाओ । न चाहते हुए भी मजबूरन मुझे तैयार होना पड़ा । फिर ये लड़की भी तंग करने लगी कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी । जेठानी के कहने पर मैं इस चार वर्षीय बच्ची को लेकर बनारस आ गई । तबतक मुझे अपने पति के कारनामों का कोई जानकारी नहीं था । अचानक मुझे उसकी असलियत उस वक्त मालूम चला जब मैं कोठे पर बेच दी गई । चूँकि उस वक्त मैं दो बच्चों की माँ बनने के बाबजूद भी निहायत की खूबसूरती थी और बदतमीज लोगों की भुखी आँखे मुझे नोच खाने के लिए उठती रहती । खैर सच्चाई यही था कि मैं कोठे पर बिक गई थी और मेरा पति कोठे की मालकिन से पैसे वसूल कर फरार हो चुका था । तब से मैं रोजों रोती रही, गिड़गिड़ाती रही और लोगों के वासना की शिकार होती रही । बारह वर्षों तक लाख कोशिशों के बावजूद भी उसके कैद से नहीं निकल सकी । तबतक मैं मृत लाश की तरह अपने जीवन को ढोती रही । जब एक दिन अचानक कोठे की मालकिन की नजर मेरी जवान बेटी पर पड़ी और वह उसे भी जिस्म फ़रोसी का धंधा करने के लिए मुझसे बोली तो मैं सन्न रह गयी थी । मैं ऐसा हरगिज नहीं चाहती थी । मैं मन ही मन एक कठोर फैसला कर लिया कि मुझे कैद से निकलना होगा । और एक दिन जान पर खेलकर कैद से निकल भागी । उसी दौरान भागते हुए सड़क पर एक टेंपो से टक्कर होने के कारण मेरी बेटी जख्मी हो गई और सुध बुध खो बैठी । मैं पुरी तरह बेसहारा और हताश हो गई । जख्मी पुत्री को लेकर मैं अस्पताल गई । बड़े बड़े डॉक्टरों से मिन्नतें की, रोइ, गिड़गिड़ाई । कुछ तरस खाकर डॉक्टरों ने मलहम पट्टी कर दिया । दवाएं दी । जख्म तो भर गया लेकिन दिमाग में चोट लगने के कारण यह अपना होशो हवस खो बैठी । घर जाने के लिए मैं दो बार ट्रेन में  बैठी लेकिन दोनों बार मजिस्ट्रेट चेकिंग में पकड़ी गई । पेट की आग बुझाने के लिए अन्न चाहिए सो मैं भिखारियों की कतार में आकर भीख मांगने लगी" । इतना कहकर वह चुप हो गई । वह लड़का बहुत ही तन्मयता के साथ उस  महिला की बातें सुन रहा था । वह कुछ पुछना चाह रहा था, लेकिन बोल नहीं पा रहा था ।
      मैनें उस महिला से पुछा-"आपके पति और ज्येष्ठ का नाम क्या था" ?
      "होरी और शालिग्राम" । वह आहत स्वर में बोली ।
      लड़का हर्षातिरेक से चिल्ला उठा-"माँ... माँ... तुम मेरी माँ हो । मैं तुम्हारा वही दो साल का बिछुड़ा हुआ बेटा हूँ । जब होश संभाला तो अपने आप को ताई और ताऊ के गोद में पाया । पिता को मैं अपने होश में देखा नहीं । बाद में ताऊ ही बताए थे कि तेरा बाप दंगे फसाद का  बलि चढ़ गया और माँ का पता नहीं । तब से मैं उन्ही को अपना सबकुछ मानकर जीवन जी रहा हूँ । लेकिन पिछले वर्ष एक कार एक्सीडेंट में वे दोनों चल बसे । तब से मैं यहीं बनारस में अपना पढ़ाई के साथ साथ चित्रकारी करता हूँ" । 
      महिला लड़के को अपने अंक में भरकर रोने लगी । वह लड़का भी रो रहा था । जबकि वह लड़की चकित भाव से दोनों को देख रही थी । मेरे आँखों में भी आँसू निकल आये । देरों तक दोनों माँ बेटे रोते रहे । लोगों का भीड़ लग गया था । घण्टो बाद वह लड़का जिसने अपना नाम सिद्धान्त बतलाया, उठा और मुझसे कृतघ्नता के साथ बोला-" भैया, आपका किस मुख से शुक्रिया करूँ, आपके ही प्रताप से मुझे मेरी खोई हुई माँ मिल गई ।
      "नहीं बन्धु, अपने चित्रकारी को धन्यवाद दो, जिसके लिए मैं तुम्हे यहाँ तक लाया" ।
      फिर सिद्धान्त उन दोनों को लेकर वहाँ से चल पड़ा । जाते जाते उसने मेरा मोबाइल नम्बर लिया । 
      मैं पुनः दिल में सन्तोष और अनुराग लिए परिसर में पहुँचा । 
      सुवह करीब आठ बजे तक सभी लोग तैयार होकर मीटिंग हॉल की तरफ चले तभी सिद्धान्त का फोन आया-"भईया, आज शाम चार बजे B.H.U. में आ जाइएगा । चित्रकारी प्रदर्शनी लगने वाला है" ।
      "ओके सिद्धान्त" ! मैं उसको आने का आश्वासन देकर मीटिंग में पहुंच गया । दिनभर मीटिंग चलता रहा । करीब तीन बजे मीटिंग हॉल से निकल अपने टीम के अन्य लोगों को बतला कर B.H.U. के लिए टेम्पू पकड़ा दस मिनट बाद मैं B.H.U. के मुख्य द्वार पर पहुंचकर सिद्धान्त को फोन लगाया । 
      चित्र प्रदर्शनी लगा हुआ था । लोगों का भीड़ कला के एक एक नमूने को देख रहे थे । एक से बढ़कर एक तस्वीरें लगाई गई थी । प्रतियोगिता का आयोजन शुरू हुआ । कला के मर्मज्ञ चित्रकारी के एक एक नमूने को परखने लगे । करीब चार घण्टे बाद जजों ने सिद्धान्त के उस तस्वीर को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जो उसकी बिछुड़ी हुई माँ और बहन की थी । जिसमें एक दर्द था । सिद्धान्त का तड़प था ।


- सुरेन्द्र प्रजापति 
ग्राम-असनी, पोस्ट-बलिया , 
थाना-गुरारू, गया (बिहार)

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