संस्कृति एवं समाज उत्थान में साहित्य का योगदान

SHARE:

संस्कृति एवं समाज उत्थान में साहित्य का योगदान साहित्य नव निर्माण तथा पुनर्निमाण दोनों करता है। नियामक और निर्णायक दोनों भूमिकाओं में यह जीता है। इसमें मनोभावों का प्राधान्य होने से इसका वास्तविक स्वरूप वैश्विक हो जाता है। यह सही है, साहित्य आदेशात्मक या दण्डात्मक भूमिका तो नही निर्वाहित करता, परन्तु इसकी प्रभावात्मक क्षमता प्रच्छन्न एवं परोक्ष रूप से सर्वाधिक प्रबल होती है।

संस्कृति एवं समाज उत्थान में साहित्य का योगदान 


साहित्य नव निर्माण तथा पुनर्निमाण दोनों करता है। नियामक और निर्णायक दोनों भूमिकाओं में यह जीता है। इसमें मनोभावों का प्राधान्य होने से इसका वास्तविक स्वरूप वैश्विक हो जाता है। यह सही है, साहित्य आदेशात्मक या दण्डात्मक भूमिका तो नही निर्वाहित करता, परन्तु इसकी प्रभावात्मक क्षमता प्रच्छन्न एवं परोक्ष रूप से सर्वाधिक प्रबल होती है। मानव मन को इस तरह प्रभावित करता है कि वह तत्काल उस अनुरूप जीवन ढा़लने को कटिबद्ध हो जाता है। साहित्य की प्रकृति वास्तव में उस शमी वृक्ष की भांति होती है, जो बाहर तो शीतल होती, परन्तु भीतर आग्नेय क्रान्ति का बडव़ानल छिपाये होती है। इसकी प्रेरणा क्षणिक या सीमित नही होकर सार्वभौम और सार्वकालिक होती है।

साहित्य में ही समाज निर्माण की शक्ति होती है। कोई भी विचार शब्द में बंधकर भी स्थाई होता है। पीढ़ियों तक पंहुचता है। भावी पीढ़ी विगत की श्रेष्ठताओं के प्रकाश में अपना मार्ग बनाती है। यह निरंतरता ही उसे परम्परा का आकार देती है। श्रेष्ठता संस्कृति का अधिष्ठान बनती है। संस्कृति, साहित्य के अभाव में स्मृति के बियाबान में खो जाती है। कभी कभी विनष्ट भी हो जाती है। जिस देश का साहित्य नष्ट हो जाता है, उसकी संस्कृति स्वतः नष्ट हो जाती है। 

साहित्य का योगदान
साहित्य का योगदान 
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम एवं समृद्ध संस्कृतियो में से एक है। अन्य देशों की की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही है किन्तु भारत की संस्कृति आदिकाल से ही अपने  परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। उसकी उदारता एवं समन्वयवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है लेकिन  अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। समाज निर्माण की पृष्ठभूमि  में समान आचार विचार, समान भाषा साहित्य तथा समान सांस्कृतिक आध्यात्मिक सोच कार्यरत रहते है। समाज ऐसे ही व्यक्तियों का सामुदायिक स्वरूप है। प्रारम्भ में इनका एक साथ रहना आवश्यक होता है। कालान्तर जब जीवन पद्धति रूढ़ हो जाती है, तब इनका पृथक पृथक निवास भी इनकी सामाजिक एकता को विश्रृंखलित नही कर पाता। आज तो विज्ञान ने पूरे भू मण्डल को एक विश्व ग्राम में बदल दिया है।

प्रारम्भ से ही भारतीय संस्कृति अत्यन्त उदात्त, समन्वयवादी, सशक्त एवं जीवन्त रही है, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का अदभुत समन्वय पाया जाता है। वस्तुतः शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास ही संस्कृति की कसौटी है, जिस पर भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से खरी उतरती है। भारत अनके धर्मों, सम्प्रदायो मतों  और पृथक आस्थाओं एवं विश्वास का देश  है, तथापि इसका सांस्कृतिक  समुच्चय और अनकेता में  एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के  लिए आश्चर्य का विषय रहा है। संस्कृति व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होती है। सामाजिक गुण जैसे - धर्म, प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज, कानून, साहित्य, भाषा आदि से मिलकर संस्कृति बनती है। यह सीखा हुआ व्यवहार है, जो अनके पीढ़ियों तक हस्तान्तरित होता रहता है। भारतीय संस्कृति एक गतिशील दर्शन है इसलिए उसमें  देश , धर्म और काल भी लक्षित होते हैं लेिकन संस्कृति वह सीमा भी निर्धारित करती है जिसमें हमें  परिवर्तन और अस्वीकार की दृष्टि मिलती है। कहा जाता है कि जिस संस्कृति में लोकतत्रं एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों  उस संस्कृति के ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाती है। ऐसी ही है - हमारी भारतीय संस्कृति। 

साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है। एक ओर साहित्य का हित और सहित भाव समाज के लिए कल्याणकारी होता है, वही समाज का पारम्परिक आचरण साहित्य को शास्त्र की गरिमा प्रदान करता है। साहित्य को तात्कालिक सामाजिक संक्रमण प्रभावित तो करते हैं  परन्तु सर्जक जो समय और शास्त्र दोनों का ज्ञाता और दृष्टा होता है, वह हंस के नीर क्षीर विवेक की भांति सांस्कृतिक एवं असांस्कृतिक में  से सांस्कृतिक को चुनता है और शब्द के बल पर समाज को देता है। साहित्य की विषय वस्तु समाज है,जैसा समाज और उसका वातावरण होगा वैसा प्रभाव साहित्य पर भी पड़ेगा। साहित्यकार भी उसी समाज में रहते हुए समाज के सुख-दुख रीतिरिवाजों  कल्पनाशीलता को यथार्थ की  मान्यता की कसौटी पर कसता है | साहित्य का समाज पर क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ता है। साहित्यकार समाज का प्रतिनिधित्व करता है और समाज को उच्च विचारों के साथ दिशा प्रदान करता है। समाज जब किसी बुराई की चपेट में आता है,साहित्यकार दूर करने का अथक प्रयास करता है। साहित्यकारों ने सदा ही समाज को सहीं राह दिखाने का काम किया है। साहित्य और समाज दोनों अलग-अलग होकर भी एक दूसरे से जुड़े हैं वैदिक साहित्य के बाद का सृजित साहित्य इसका प्रमाण है। वाल्मीकि ने दशरथ पुत्र श्रीराम का मर्यादा पुरूषोत्तम चरित्र चुनकर जिस महाकाव्य रामायण को छन्द बद्ध किया, वह आज भी समाज निर्माण की भूमिका निर्वाहित कर रहा है। महर्षि वेद व्यास ने महाभारत एवं श्रीमद्भागवत के माध्यम से जिस योगेश्वर चरित्र की सृष्टि की, उसने इन ग्रंथों को भारतीय संस्कृति का प्रतीक ग्रन्थ बना दिया। महात्मा बुद्ध ने तो अपने ज्ञान से जिस बौद्ध साहित्य का निर्माण किया, वह कालान्तर में राजधर्म बनकर पूरे एशिया का धर्म बन गया। जातकों ने जिस ज्ञान की प्रस्तुति दी, उसने सम्यक आचरण, सम्यक चरित्र तथा सम्यक ज्ञान वान समाज की निर्मिति का एक नया इतिहास रचा। बौद्ध समाज जब ज्ञान-पथ से भटका तो आदि शंकराचार्य उसी पुराने वैदिक साहित्य को लेकर, भारत के आसेतु हिमाचल पद यात्री बन गये।
  
भारतीय संस्कृति की भव्यता, अखंडता और दीर्घ जीवन का कारण जीवन में भावना, साहित्य और दर्शन को यथोचित स्थान प्रदान करना है। भारतीय साहित्य शास्त्रमें रसको ब्रह्ममास्वाद सहोदर इसलिए कहा गया है कि जिस प्रकार से आध्यात्मिक साधना मेंसत्वोदेक का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है , उसी प्रकार से साहित्य में भी रस निष्पत्ति सत्वोदेकके बिना संभव नहीं है। गीता के गुणत्रय विभाग योग नामक चौदहवें अध्याय में मानव जीवन मेंगुण विकास के विषय पर प्रकाश डाला गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के युग में भारत कीतामसिक चेतना, सुप्त चेतना, निष्क्रिय चेतना को जगा उसे रजोगुण और सत्व गुण से सम्पन्नकर भावना संस्कार के इसी मार्ग को अपनाया गया था।भावना के संस्कार से ही मनुष्य हैवानसे इंसान बनता है।

अज्ञेय लिखते हैं कि "चिन्तन साहित्य और साहित्यकार को न केवल सीधे-सीधे सामाजिक परिवर्तन से जोड़ता है बल्कि उसे अपना अधिकार समझता है कि साहित्यकार को बताये कि कौन-सा सामाजिक परिवर्तन सही और वांछनीय है। और इसके लिए वह योजना बनाकर साहित्यकार को देना चाहता है-जिस योजना का साहित्कार की अपनी दृष्टि या अपने विवेक से आत्यन्तिक सम्बन्ध होना वह आवश्यक नहीं मानता।जिन संस्कृतियों में लीला-भाव नहीं रहता वे उस हद तक बन्ध्य और स्थितिशील हो जाती हैं, भले ही गम्भीरता उनमें बनी रहे। बल्कि उनकी यह गम्भीरता भी परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है। और जिन साहित्यों में लीला-भाव नहीं रहता वे भी स्थितिशील हो जाते हैं और उनकी गम्भीरता भी रीति और परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है, प्रयोग से कतराती है। "

साहित्य किसी घटना, वस्तु या भावलोक या विचारलोक को उसकी सम्पूर्णता और समग्रता में देखने की दृष्टि प्रदान करता है।साहित्य यथार्थ और कल्पना की सीमा-रेखा पर साहसपूर्वक बढ़ता है और उसी सन्धि-भूमि पर उसका सर्जकत्व क्रियाशील होता है। साहित्य अस्मिता की पहचान कराता है-सामूहिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और आस्तित्विक अस्मित की। साहित्य स्थितिबोध जगाता है, जड़ों की पहचान कराता है, उनके द्वारा अपनी मिट्टी से रस खींचने की प्रेरणा देता है, प्रक्रिया सिखाता है, दक्षता बढ़ाता है। साहित्य बदलाव की पहचान कराता है, बदलाव की सम्भावनाएँ उजागर करता है, बदलने की प्रेरणा देता है। जिस साहित्य को मात्र मनोरंजन के लिए पढ़ा जाता है, उसमेंभी भावोदेक की वह शक्ति होती है, भले ही उसका स्तर निम्न होता है।समाज में व्याप्त  बुराईयों का बहिष्कार कर  मानवता और नैतिकता  और उच्च सिद्धांतों की बात करना है । यह सार्थक परिष्कृत  चिन्तन  भारतीय समाज में आधुनिक साहित्य की उपज ही कहा ही जा सकता है जिसने  भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन किया,  साथ ही  समाज  की उन्नति का आधार भी बना जिसका साक्षात प्रभाव  भारतीय समाज और साहित्य पर दृष्टिगोचर होता  है। 

भारत में पहले प्राय: देखा गया कि संस्कृत को छोड़ अभिव्यति का माध्यम प्राकृत भाषा को बनाया गया था | जिसे सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से भी देखा जा सकता है  सिद्ध साहित्य में  प्रचलित धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और सामाजिक असमानता पर शुद्रों के साथ हो रहे अन्याय और प्रताड़ना को आड़े हाथों लिया और तीव्रता से विरोध किया तथा सभी क्षेत्रों में समान अधिकार की बात की, सामाजिक परिवर्तन को तीव्र करने का बीड़ा उठाया, भारतीय समाज में आ रहे परिवर्तन के कारणों को साहित्य ही दिशा दे रहा था और परिवर्तन स्वर की शंखनाद कर रहा था । आने वाली पीढ़ियों को संस्कारित और नैतिक मूल्यों के उत्थान में भी अहम् भूमिका निभा रहा था। 

फ्रांस की राज्य क्रांति के पहले रुसो, वाल्टेयर, दिदरॉत आदि ने चर्च औरराजा दोनों के अन्याय और जनता की दुर्दशा का जो चित्र अंकित किया, उसी से प्रेरितभावनात्मक उफान के कारण वहाँ क्रांति हुई, लोकतंत्र का बिगुल बजा, जिसका प्रभाव अंतत:सारे संसार पर पड़ा। भारत में जब आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय और विकास हुआ,तो भक्ति आंदोलन युग के साहित्य ने सारे भारत को नई सामाजिक भावनात्मक एकता प्रदानकी।‘उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी तो भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक समाज निर्माण की शताब्दी कही जा सकती है। इस शताब्दी ने स्वतन्त्रता के साथ-साथ समाज सुधार को भी संघर्ष का विषय बनाया। इस काल के साहित्य ने समाज जागरण के लिए कभी अपनी पुरातन संस्कृति को निष्ठा के साथ स्मरण किया है, तो कभी तात्कालिक स्थितियों पर चिन्ता भी गहराई के साथ व्यक्त की है।’’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ ही इसका श्रेष्ठतम उदाहरण कहा जा सकता है। 

समाज और साहित्य का गहरा सम्बन्ध हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक है। समाज शरीर है तो साहित्य आत्मा। साहित्य मानव मस्तिष्क से उत्पन्न होता है। साहित्य मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करता है। मनुष्य न तो समाज से अलग हो सकता है और न साहित्य से।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य एवं संस्कृति का संरक्षण करना समय की आवश्यकता बन गई है, क्योंकि युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से विमुख होने लगी है और उनका रुझान पाश्चात्य सभ्यता की ओर बढ़ रहा है, जोकि चिंता का विषय है। अच्छे साहित्य के सृजन से समाज में सकारात्मक सोच उत्पन्न होती है, जिससे स्वच्छ समाज के निर्माण की कल्पना की जा सकती है।वर्तमान साहित्य मानव को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लेकर चला है। व्यापक मानवीय एवं राष्ट्रीय हित इसमे निहित है। साहित्यकारों में राष्ट्रीय स्तर पर हितावय एवं भयावह में अंतर करने की क्षमता ही नही, दृष्टि की स्पष्टता भी जगी है।  

सन्दर्भ :-1  चक्रवाक् पत्रिका (त्रैमासिकी) अक्टबूर 2015 - मार्च 2016 - 
2  साहित्य और राष्ट्रबोध  - डा0 कैलाष त्रिपाठी 
3 भाषा  के सवाल - डा0 इन्द्रनाथ मदान
4 साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया-अज्ञेय


- डॉ सुशील शर्मा


COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका