कभी सोचा था किसी ने ?

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कोरोना नामक बीमारी नहीं है वह भी अपने आपको कोरोना रूपी वायरस समझने लगता है तो क्यों ना हम यह सोचे कि या हमें प्रकृति ने एक तरह से वरदान दिया है जिसके कारण हम अपने घर मैं रहते हुए परिवार में बैठकर मिलजुल कर एक दूसरे को समझ पा रहे हैं और कितने ही वर्षों वर्षों वर्षों उपरांत सभी से मिल पा रहे हैं।

 कभी सोचा था किसी ने ?


कभी सोचा था किसी ने  ?    
दिन कभी ऐसा भी आएगा.
हर व्यक्ति घर रह जाएगा.
पूरा परिवार मिल बैठेगा साथ.
और अपनी पुरानी यादें ताजा कर पाएगा.

नमस्कार मित्रों जय महेश में मनमोहन अपनी कुछ भावनाएं आपकी इस प्रतियोगिता के माध्यम से और वर्तमान परिस्थितियों  कोरोना वायरस के संबंध में मन में जो जिज्ञासा हैं वह इस निबंध के माध्यम से लिखना चाहूंगा - 

बात करते हैं मेरी उस शुरुआती कविताओं के साथ कि हमने सोचा नहीं था कि हम पूरा परिवार इस तरह साथ
कोरोना
कोरोना 
बैठ पाएंगे और एक दूसरे को जान पाएंगे परंतु संभव हुआ है प्रकृति ने मौका दिया है और प्रकृति में ही सामर्थ्य था हमें इस तरह का मौका देने का वरना हम व्यवसाय हो फिर कोई अन्य कार्य में  संभव नहीं था हमारे लिए परिवार के लिए इतना समय निकालना’ इस कलयुग के समय में जहां हमें 1 दिन भी  घर पर रुकने के लिए विचार ही नहीं करना पड़ता कितनी ही तरह की आज्ञा भी लेनी पड़ती है जहां तक मेरा सोचना  है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहां है कि हर विपरीत परिस्थितियों में नकारात्मक सोचने की बजाय कुछ आशावादी बनके भी सोचना उचित रहता है यदि हम नकारात्मक सोचते हैं तo कुछ फायदा तो नहीं होता और जहां तक मेरा मानना है इतना जरूर हो जाता है कि जिसे कोरोना नामक बीमारी नहीं है वह भी अपने आपको कोरोना रूपी वायरस समझने लगता है तो क्यों ना हम यह सोचे कि या हमें प्रकृति ने एक तरह से  वरदान दिया है जिसके कारण हम अपने घर  मैं रहते हुए परिवार में बैठकर मिलजुल कर एक दूसरे को समझ पा रहे हैं और कितने ही वर्षों वर्षों वर्षों  उपरांत सभी से मिल पा रहे हैं।

कामयाबी ईश्वर कभी ना कभी किसी ना किसी को देता ही है और इस बार कामयाबी ईश्वर ने प्रकृति को समर्पित करते हुए प्रकृति को वरदान ही तो दिया है आज ईश्वर और प्रकृति ने भी कल्पना नहीं करी होगी वहां तक मानव पहुंचकर प्रकृति को दूषित कर चुका है आज प्रकृति भी तो एकांत ही मांगती है जो मानव तो नहीं दे पाया परंतु प्रकृति ने उससे ले लिया   शब्द मानव से कहें - 
    
मांगा था तूने मैंने दिया ही दिया. . 
अब मैंने मांगा तो कुछ विश्राम ही है ... 

और इसी विश्राम के बाद शुरू होगी वही पुरानी आपाधापी वाली जिंदगी जिसे हम अपनी भाषा में जीवन कहते हैं और हां जहां तक सवाल व्यापार रोजगार और मजदूरी का है तो मैं सोचता हूं हमारे पूर्वज भी तो शांति से कामकाज करते हुए जीवन यापन करते ही होंगे तो आइए कुछ दिनों की अपनी विलासिता वाली जिंदगी को छोड़ते हुए आनंद लेते हैं ईश्वर की दी हुई विपदा का जिसका जन्मदाता मनुष्य ही तो है और अंतिम में कुछ कविताओं के साथ अपनी बात को समाप्त करते हुए -

कहते हैं तेरे घर में अंधेर नहीं है
जीवन भी तू ही है और मृत्यु भी तो ही है
हम तो कठपुतली हैं तेरे बनाए हुए इस आंगन की
 करता भी तू ही है विघ्नहर्ता भी तू ही है
स्वस्थ रहिए मस्त रहिए घर में रहिए


 - मनमोहन सारड़ा,
 लोहारदा जिला देवास
 Mobile 9302111853

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