आमा हिंदी कहानी

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आमा ममा आपने ये कैसे किया? आप एक और जादू करो ना ! आप जादू से ना एक बिस्किट ला दो फिर मत करना जादू। और मैें ही जानती थी कि वह तो कोई जादू था ही नहीं । बस अपनी बात मनवाने के लिये एक जादू कहलाने वाला खेल था और बच्चों का कौतुहल।

आमा


ममा आपने ये कैसे किया? आप एक और जादू करो ना ! आप जादू से ना एक बिस्किट ला दो फिर मत करना जादू। और मैें ही जानती थी कि वह तो कोई जादू था ही नहीं । बस अपनी बात मनवाने के लिये एक जादू कहलाने वाला खेल था और बच्चों का कौतुहल। ऐसा ही कौतुहल होता था जब आमा अपनी अल्मारी के पास जाया करती थी। आमा दिन भर रन्न फन्न करती इधर-उधर बीमार थी पर काम कुछ नकुछ करती ही रहती। कुछ भी सामान बाजार से आता आमा थोड़ी ही देर में अपनी अल्मारी के पास,  बच्चे रोज सोचा करते कि जाने इस अल्मारी में कौन सा खजाना छिपा है? पर कभी देख नहीं पाए, फिर भी बच्चों को उस खजाने से कुछ न कुछ खाने को तो मिल ही जाता था। आमा; मध्यम कद ,चेहरे की झुर्रियां जैसे चारपाई पर पड़ी चादर को समेट दिया हो। सिर पर सफेदी थोड़ी सी कालिमा के साथ पुति हुई थी। सीधे पल्ले की धोती पहने गले में मूंगे की माला और कुछ साधारण सी मोती माला के साथ अपनी छोटी सी तिजोरी की चाबी। यही वो चाबी थी जो सब बच्चों का ध्यान आकर्षित करती थी।

अलमारी
किसी के लिये बोलचात का ढंग किसी के लिये अपना काम निकलवा मेने का तरीका और लोगों के लिये उनके चेहरे की चमक; जो सहज ही अपनी ओर खींच लेती।बीमार रहने के बावजूद भी उनके बोलने और अपना काम निकलवा लेने का हुनर उनके काम आ ही जाया करता। धनाभाव से युक्त होने के बाद भी राह चलते मजदूरों को भी लालच देकर अपना काम करवा लेती। लकड़ी के एक गट्ठर के लिये एक गिलास चाय के साथ दो बासी रोटी। इससे अधिक उनके बस का भी नहीं था। जीवन में रोटी के संघर्ष ने दमा का मरीज बना दिया था। बिन खाए , बिन आराम रात दिन देखे बिना काम करने के परिणाम स्वरूप दो वक्त की रोटी तो मिली पर भोगने को शरीर का सुख नहीं रहा। फिर भी जिजीविषा की कोई कमी नहीं थी। सांस फूलने और काम करने की परेशानी के बाद भी रगड़-रगड़ कर या फिर झुकी कमर के साथ परिवार के लिये दोपहर का भोजन स्वयं बनाती। चूल्हे पर धुंवे के बीच खाना पकाना फिर कुछ कोयले निकालकर अंगीठी में राख के नीचे ढंक देना। अपने हर दिन के काम कुछ ऐसे ही किया करती फिर चूल्हा लिपवाना हो या फिर बरतन धुलवाने हो तो घर की छोटी बिटिया को लालच देती। आ पोथी , मेरी ईजा, मेर बाबू काम कर दे मेैं लड्डू दयूल। तेरी मतारी थक बेर आलि, कर मेर बाबू। वह भी लालच में आकर काम कर देतीे।

ऐसा नहीं था कि वह किसी एक ही बच्चे से काम करवाती वह बारी बारी सभी चारों भाई- बहनों से काम करवाती सब को एक ही लालच देती। लालच में सब काम कर भी देते थे क्योंकि वह केवल लालच नहीं होता। अगर उनके पास एक लड्डू होता तो वह लडडू दिया भी करती बस तरीका थोड़ा भिन्न था। वह हाथ पर तो पूरा रखती पर चैथाई वापस ले लेती। ऐसा सबके साथ होता हाथ पर आता पूरा लडडू आंखों में चमक पैदा कर देता और उसी पल वह चमक वापस चली जाती। आमा आज से कोई काम नहीं करेंगे। ना बाबू ऐसा नहीं कहते; अगली बार दुंगी तुझे ,पूरा दुंगी अभी नहीं है ना किसी को मत बताना चुपचाप दुंगी हां। हां-हां छुपा रखा है अल्मारी में दे नहीं रही है। दुंगी ना चुपचाप दुंगी किसी पहीं बताएंगे।बस फिर अगली बार का लालच। उसके पास कोई दुकान नहीं थी बस बाजार से जो कुछ भी आता उसमें कुछ संभाल कर अल्मारी में छिपा देती। खुद कभी नहीं खाती उसी से काम करवा लेती। 

पर बाल मन तो बाल मन ही होता है बच्चों को सदा ही लगता कि जरूर उस अल्मारी में बहुत सा सामान है। बहुत बार कोशिश करते कि उसमें झांक कर देखा जाय, क्या है उसके अंदर ? पर कभी देख नहीं पाए वह अल्मारी के आगे कुछ ऐसे बैठती कि वह पूरी ढंक जाती और उसका दरवाजा भी इतना ही खोलती कि केवल वही उसके अंदर झांक सके। बच्चों का कौतुहल दिन प्रतिदिन बढ़ता ही रहा। एक दिन सभी बच्चों ने योजना बनाई कि आमा की चाबी चुराई जाय। अनेक सुझाव आए कि चाबी को कैसे चुराया जाय किन्तु सभी में कोई न कोई कठिनाई ही नजर आती अंत में सहमति हुई कि जब वह सो रहीं होंगी तो चुरा लेंगे, और  आमा की सबसे भरोसेमंद बच्ची को तय किया गया कि चाबी चुरानी है।भरोसेमंद केवल नाम से ही नहीं काम से भी किन्तु बच्चों की गैंग से बाहर भी नहीं होना था। 

असमंजस यह था कि हां तो कह दिया है किन्तु यह बहुत मुश्किल काम था। अब हर समय यही उधेड़बुन   कि
चंचल गोस्वामी
चंचल गोस्वामी
चाबी चुरानी है।  यदि काम ना भी करना चाहो तो बाकी सब याद दिलाते रहते अब तो कोई चारा भी नहीं था कि उससे बाहर निकला जाय। एक दिन फिर मौका मिला तो वह दोपहर में हिम्मत करके आमा के पास गई और साथ में लेट गई कि मुझे भी सोना है। आमा बोली आ- ईजा, नीन लागि रेै, आ पड़ जा। पर नींद कहाॅ? चाबी जो चुरानी थी। धीरे-धीरे डर-डर कर आमा की गले की चाबी वाली डोर को पकड़ा पर वो तो बहुत छोटी निकली सारे किये कराए पर पानी फिर गया। वो तो गले से निकल ही नहीं सकती थी और आमा ही जानती होंगी कि उसकी गांठ जाने कभी खुली हो अंत में वह योजना भी विफल हो गई। हारी हुई वह सिपाही दल के पास वापस आ गई हांॅ चलते फिरते कभी - कभी उस चाबी को बच्चे बारी-बारी यूं ही छू लेते पर वह कभी ेकिसी के हाथ लगी ही नहीं। धीरे-धीरे दल के सदस्य अपनी उम्र के साथ कम भी होने लगे , पर कहीं न कहीं सबके मन में यह जिज्ञासा अवश्य थी कि एक बार उस अल्मारी में देखा जाय।

मिटटी वाले उस कमरे में सीढी के नीचे रखी उस अल्मारी को दिन में एक बार देखना अवश्य होता कि क्या पता कभी आमा उसे खुला छोड़कर भूल जाय? कई बार ताला भी खींच कर देखते पर कभी वह खुला  रहा ही नहीं। कहीं न कहीं आमा को भी पता था कि सब बच्चे अल्मारी के आस - पास मंडराते ही रहते हैं। जब धीरे -धीरे छोटी बच्ची उनके सब काम करने लगी और उनकी विश्वास पात्र बन गई तो एक दिन कुछ सामान रखने के बहाने उन्होंने अपनी चाबी दे ही दी। यह आहट मिलते ही सब चैकन्ने हो गए। चाबी तो मिल गई साथ में यह हिदायत भी थी कि जितना कहा है उतना ही काम करना है खैर ईमानदारी का परिचय देते हुए अल्मारी की ओर बढ़ चली। अल्मारी खोली तो उसमें दो खाने थे कुछ एक दो टिन के डिब्बे थे ,एक आम रखा था एक मिठाई का डिब्बा था, एकाध डिब्बे नीचे वाले खाने में भी थे। ईमानदारी के ईनाम में आधी मिठाई भी मिली यह कहकर कि किसी को मत बताना। वह बची हुई मिठाई दूसरी बार किसी और से काम करवाने के काम आ गई। यह हमेशा ही होता था यह सब जानते थे पर यह भी तो अच्छा ही था कि कुछ तो मिल ही जाता है फिर कभी बार-बार काम करने पर वह पूरी मिठाई किस्तों में  मिल ही जाती थी। 

समय बीतने लगा और सब बच्चे पढ़ाई में व्यस्त होने लगे अब आमा के साथ उतना समय भी नहीं बिताते थोड़ा उनका काम कर देते तो कभी झिड़क भी देते। आमा क्या है काम करते तो हैं हर समय काम कर, काम कर  जब देखो काम -काम नहीं करते। धीरे-धीरे आमा के साथ वह कुछ खाने का लालच भी कम होता चला गया। आमा तो आज भी वही थी जो कुछ न कुछ बच्चों के लिये छुपा कर रख लेती थी किन्तु बच्चे अब वो न रहे जो आमा की वह छोटी - छोटी खुशी को जियें। वह अधिक बीमार रहने लगीं। जब ठंड बढ़ती तो सांस लेने में तकलीफ बढ़ने लगती। अब उन्हें निवृत्ति का भी ध्यान नहीं रहता। शौचालय वह जा नहीं पाती। घर के गड़े होते तो वह ले जाते किन्तु जग वह नहीं होते बच्चों को यह काम करना होता पर बच्चे कहीं न कहीं बचने की कोशिश करने लगते। एक दिवस काफी ठंड में निवृत्ति के बाद गर्म पानी मांगती रही पर बच्चे अपने खेल में ही मग्न सुन कर भी अनसुना करते रहे उस दिन जैसे आमा शांत सी हो गई। निवृत्ति के बाद चुपचाप किसी प्रकार अपने बिछावन तक आकर लेट गर्ठ फिर कभी न उठने के लिये।  अब वह सबकुछ छोड़कर अनंत में विलीन हो गई थी। नम आंखों के साथ सब लोग अपनी- अपनी सोच के साथ दुखी थे ,अथवा उदास थे। बच्चे भी दुखी थे पर कहीं नकहीं यह विचार भी था कि अब हर समय काम करने को कोई नहीं कहेगा। 

फिर तेरहवीं के बाद वह चाबी बच्चों के हाथ  आ ही गई। अल्मारी चाहिये तो ले लो। बच्चे  बड़े उत्साहित  हो गऐ। बड़े ही उत्साह के साथ वह अल्मारी खोली गई कि आज तो अंदर जो भी खजाना है वह सब हमारा होगा। उत्साह और खुशी के साथ वह अल्मारी खोल कर एक एक कर उसमें रखे डिब्बे निकाले, उन्हें खोला गया। डिब्बे खोलने पर उनमें एकाध सिक्के पाॅच,दस, बीस पच्चीस पचास पैसे के थे। कुछ खराब हो चुकी मिठाई, पिघल चुकी टाॅफी और सड़ चुका संतरा मिला। शायद यह सब इंतजार में खराब हो चुके थेें क्योंकि अब तो बच्चों के पास इन्हें खाने का समय ही नहीं था। आमा के साथ वह भी विदा हो चुके थे। अंत समय में आमा जिसके लिये तरसने लगी थी आज उन चीजों में से आमा का छिपा हुआ वह स्नेह पिघल कर बाहर टपक रहा था। अब बच्चे उससे कितना दूर हो गए थे। आमा के पास कोई खजाना नहीं था बस वह उस अल्मारी के बहाने अपने लिये सम्मान और भोला  बचपन अपने पास समेटकर रखे रहना चाहती थी जिसे बचपन ही नहीं देख पाया। उनका स्नेह तो पिघल कर बह गया और रह गई वह लकड़ी की जड़, रंग हीन, भाव हीन अल्मारी। 

                                                    
                                                          
   - चंचल गोस्वामी
                                                             ग्राम- सन्न  पों0आॅ0- वडडा
                                                            जिला - पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड
                                                   

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