गोदान उपन्यास का उद्देश्य

SHARE:

गोदान उपन्यास का उद्देश्य गोदान में प्रेमचंद का उद्देश्य गोदान उपन्यास का उद्देश्य लिखिए गोदान कहानी का उद्देश्य godan upanyas ka uddeshya गोदान उपन्यास की रचना का रहस्य प्रेमचन्द जी गाँधी जी के रामराज्य जैसे समाज की स्थापना करना चाहते थे। एक ऐसे समाज की परिकल्पना उन्होंने की थी, जो अन्याय, अत्याचार, शोषण तथा सामाजिक विरूपताओं से रहित हो। लोगों में परस्पर सद्भाव हो।

गोदान उपन्यास का उद्देश्य


गोदान उपन्यास का उद्देश्य गोदान में प्रेमचंद का उद्देश्य गोदान उपन्यास का उद्देश्य लिखिए गोदान कहानी का उद्देश्य godan upanyas ka uddeshya गोदान उपन्यास की रचना का रहस्य - हम साहित्य को मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें चित्रण की स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाई का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे सुलावे नहीं।" - प्रेमचन्द 

प्रेमचन्द प्रेमचन्दजी की दृष्टि बहुत साफ थी। प्रगतिशीलता उनकी रग-रग में समायी थी। धन को उन्होंने बहुत महत्त्व नहीं दिया। साहित्य सेवा में ही स्वयं को आजीवन लगाये रहे और भारतीय समाज को एक-से-एक कालजयी कृतियाँ प्रदान कर सके। इन कृतियों का सृजन सोद्देश्य किया गया है। 

सुषुप्तावस्था में पड़े भारतीय जनमानस में नवीन चेतना का संचार तथा सामाजिक विषमता एवं विरूपता को दूर करने का यत्न ही उपन्यासकार एवं कहानीकार प्रेमचन्दजी का मुख्य उद्देश्य था। आलोच्य कृति गोदान उनका सर्वाधिक प्रौढ़ उपन्यास है।आलोचकों की दृष्टि भी इसी कृति पर सर्वाधिक बार टिकी है।उनके द्वारा इसमें उठायी गयी समस्याओं का अनुसंधान तथा प्रस्तुत महाकाव्यात्मक औपन्यासिक कृति के सृजन के उद्देश्यों पर प्रकाश भी डाला गया है। प्रेमचन्द जी के उपन्यास गोदान के उद्देश्य निम्न है - 

भारतीय कृषक के विसंगतिपूर्ण जीवन की अभिव्यंजना

गोदान में दो कथाएँ हैं- पहली, ग्रामीण जीवन की कथा तथा दूसरी शहरी, जीवन की कथा। इन दोनों कथाओं के अलग-अलग पात्र हैं। पूरे उपन्यास में एकमात्र पात्र रायसाहब ग्रामीण और शहरी कथा के बीच की कड़ी का काम करते हैं। वस्तुत: ग्रामीण जीवन में जी रहे पात्रों की दशा बहुत ही दयनीय है। ग्रामीण परिवेश की धुरी में मूलतः किसान ही है, जिसका शोषण सेठ-साहूकार और जमींदार करते हैं और परिणामतः वह मजदूर बनने को विवश है। कृषकों की दयनीय दशा का मूल कारण उनकी अज्ञानता ही है। उनकी रूढ़िवादिता, भाग्यवादिता तथा अज्ञानता उन्हें प्रगति पथ पर चलने से रोकती है। गोबर को समझाता हुआ होरी कहता है कि "छोटे-बड़े भगवान् के घर से बन कर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा तो भोगें क्या?" अज्ञानता में जी रहे भारतीय कृषक की यह सोच है। लेकिन होरी के उक्त कथन का खण्डन प्रेमचन्दजी उसी के पुत्र गोबर से करवाते हैं और इस प्रकार तत्कालीन कृषकों के सामने गोबर जैसे प्रगतिशील युवक का चरित्र प्रस्तुत करते हैं।
गोदान उपन्यास
गोदान उपन्यास

गोदान में कृषक जीवन की त्रासदी को दर्शाया गया है। यह त्रासदी उसकी व्यक्तिगत खामियों के कारण है। वह अपने दूसरे किसान भाई को देखकर ईर्ष्या करता है, रूढियों में जकडा हुआ है। भोला स्पष्टतः कहता है कि- “कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ। आदमी वह है जिसके पास धन है, अख्तियार है, इल्म है। हम लोग तो बैल हैं और खेत में जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक दूसरे को देख नहीं सकते। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।" 

सामाजिक शोषकों का यथार्थ चित्रण 

'गोदान' उपन्यास की कथावस्तु शोषणकारी शक्तियों की स्थिति को अपने में समेटे है। प्रेमचन्दजी इस स्थिति का मार्मिक चित्रण यथार्थ के धरातल पर करते हैं। शोषणकारी शक्तियों के विविध रूप हैं। वस्तुत: इनका एक जाल है, जिसमें उलझकर किसान अपने को असहाय महसूस करने लगता है। जहाँ एक तरफ छोटे स्तर पर महाजन, साहूकार, पटवारी, कारिन्दा, कारकुन तथा अन्य छोटे कर्मचारी किसानों का शोषण करते हैं, वहीं दूसरी तरफ समाज के तथाकथित गणमान्य लोग जैसे- पुरोहित, जमींदार, थानेदार तथा गाँव के मुखिया भी इन किसानों का दोनों हाथों से गला दबाने में नहीं चूकते। तत्कालीन किसान की दयनीय दशा का चित्रांकन होरी के निम्न कथन से हो जाता है। कथन द्रष्टव्य है "उसी की चिंता तो मारे डालती है, दादा। अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। जमीदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा।जमींदार तो एक है, पर महाजन तीन-तीन हैं। सहुआइन अलग और मंगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग। किसी का भी ब्याज पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपये बाकी पड़ गये। सहुआइन से फिर रुपये उधार लिये तो काम चला। सब तरह से किफायत करके देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसीलिए हुआ है कि अपना रक्त बहाएँ और बड़ों का घर भरें। मूल का दुगना सूद भर चुका, पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है।" 

समाजवादी व्यवस्था की स्थापना पर बल

प्रेमचन्दजी प्रगतिवादी विचारधारा से ओत-प्रोत थे। समाज में निरन्तर विसंगति का बोल-बाला बढ़ता जा रहा था। अर्थात् अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही थी। अमीर अधिक अमीर तथा गरीब अधिक गरीब होता जा रहा था। उपन्यासकार ने इस स्थिति को देखकर ही अपनी कृति में खन्ना जैसे पूँजीपति का चरित्र गढ़ा, जो मजदूरों का शोषण करके अपनी धन-सम्पदा में निरन्तर बढ़ोत्तरी कर रहा था। 

प्रेमचन्द जी ने इस प्रतिनिधि पूँजीपति को गर्त में मिलते हुए और मजदूर वर्ग को सचेत होते हुए . , प्रदर्शित किया है। खन्ना की पत्नी गोविन्दी सात्विक विचारधारा की महिला है, वह मिल (फैक्ट्री) के जल जाने पर खन्ना को समझाती है कि- "जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उन्हें लूटने में नहीं। मेरे विचार से तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सके तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है।" 

क्रान्तिधर्मी नारी-चरित्रों की सृष्टि

प्रेमचन्द की प्रगतिशीलता बहुआयामी थी। वे नारी को परदे की वस्तु नहीं बनाना चाहते थे। उनका लक्ष्य था- तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में नारी की भूमिका की तलाश करना। आलोच्य उपन्यास में उनकी तलाश पूरी भी हुई है। उन्होंने धनिया, मिस मालती, गोविन्दी, झुनिया, चुहिया, सिलिया, सोना तथा रूपा आदि चरित्रों के माध्यम से अपनी प्रगतिशील विचारधारा अपने पाठकों तक संप्रेषित की है। प्रेमचन्द अपने पाठकों से मिस मालती का परिचय इस प्रकार कराते हैं, “दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए है और जिनकी मुख छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैण्ड से डाक्टरी पढ़ कर आयी हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात् प्रतिमा हैं। गात कोमल पर चपलता कूट-कूट कर भरी हई है। झिझक या संकोच का कहीं नाम भी नहीं। मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर जवाब, पुरुष मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्त्व मानने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण । जहाँ आत्मा का स्थान है वहाँ प्रदर्शन जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव, मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया हो।" . 

आदर्श समाज की स्थापना

प्रेमचन्द जी गाँधी जी के रामराज्य जैसे समाज की स्थापना करना चाहते थे।एक ऐसे समाज की परिकल्पना उन्होंने की थी, जो अन्याय, अत्याचार, शोषण तथा सामाजिक विरूपताओं से रहित हो। लोगों में परस्पर सद्भाव हो। वैसे भी भारतीय दृष्टि बहुत व्यापक है। वह वसुधैव कुटुम्बकम्' और 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' का उद्घोष करती है। इसी तरह के समाज की परिकल्पना करती हई मालती कहती है कि- "ससार म अन्याय का, आतंक की, भय की दुहाई मची हुई है। अन्धविश्वास और स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है। हम इन सबको समाप्त करने की ओर अग्रसर रहें।" 

निष्कर्षतः कह सकते हैं कि गोदान एक उद्देश्यपरक रचना है।इसमें समस्याओं का उद्घाटन करके लेखक ने उनका निराकरण भी किया है। 

COMMENTS

Leave a Reply: 1
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ हमें उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !
टिप्पणी के सामान्य नियम -
१. अपनी टिप्पणी में सभ्य भाषा का प्रयोग करें .
२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका