तौलिये एकांकी उपेन्द्रनाथ अश्क

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तौलिये उपेन्द्रनाथ अश्क Tauliye by Upendra Nath Ashk तौलिये एकांकी उपेन्द्रनाथ अश्क Tauliye by Upendra Nath Ashk तौलिए एकांकी तौलिये उपेन्द्रनाथ अश्क का एक सामाजिक पारिवारिक एकांकी है .आजकल के बदलते हुए सामाजिक मूल्यों के युग में घरेलू जीवन की छोटी - छोटी बातें भी बहुत महत्वपूर्ण होती है .

तौलिये उपेन्द्रनाथ अश्क
Tauliye by Upendra Nath Ashk


तौलिये एकांकी उपेन्द्रनाथ अश्क Tauliye by Upendra Nath Ashk तौलिए एकांकी तौलिये उपेन्द्रनाथ अश्क का एक सामाजिक पारिवारिक एकांकी है .आजकल के बदलते हुए सामाजिक मूल्यों के युग में घरेलू जीवन की छोटी - छोटी बातें भी बहुत महत्वपूर्ण होती है .मध्यवर्ग के परिवार में उच्च वर्ग के संस्कारों से अनेक ऐसी समस्याओं उत्पन्न हो जाती है ,जिसमें अनजाने ही पारिवारिक सुख शान्ति नष्ट हो जाती है .कभी कभी ये संस्कार मन ने इतने गहरे पैठ जाते हैं कि  चाह कर भी मनुष्य उनमें सुधार नहीं कर पाता .इस एकांकी में ऐसी ही साधारण समस्या को लेकर पारिवारिक जीवन की झांकी प्रस्तुत की गयी है .पति पत्नी की वैचारिक विषमता और भिन्न भिन्न जीवन दृष्टिकोण को लेकर नाटककार ने एक नाटकीय कथा की सृष्टि की है .शिष्टाचार और स्वच्छता की सनक रखने वाला व्यक्ति जिंदगी को पूरी तरह जी नहीं पाता ,यही इस एकांकी का कथ्य है .

तौलिये उपेन्द्रनाथ अश्क सारांश /Tauliye ekanki upendranath ashk tauliye summary - 

तौलिये एकांकी की कथा का विस्तार एक छोटी सी बात को लेकर हुआ है .बसंत यह मानता है कि एक तौलिये का प्रयोग कई व्यक्ति कर सकते हैं जबकि उसकी पत्नी मधु सफाई के सिद्धांत से प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग अलग तौलिया रखना चाहती है .बसंत हजामत बनाकर मदन के तौलिये से मुंह पोछने लगता है .मधु उसे दूसरे के तौलिये के प्रयोग से रोकते है .दोनों में विवाद छिड जाता है .वसंत का कहना है कि ऐसे शिष्टाचार से जीवन का सुख और पारस्परिक प्रेम कम हो जाता है .यह शिष्टाचार मात्र एक ढोंग या दिखावा है .बिमारियों से सुरक्षा केवल सफाई से नहीं ,बल्कि शरीर और मन की भीतरी शक्तियों से होती है .बचपन से वे छ : भाई एक ही तौलिये से बदन पोंछते थे और किसी को कोई बीमारी नहीं हुई .वह बताता है कि मधु के आने से पहले वह अपने मित्रों से जाड़े के दिनों में एक ही चारपाई पर बैठकर घुटनों तक रजाई ओढ़ कर बातें करता था .अब वे मित्र अलग - अलग अपरिचित से कुर्सियों पर बैठे रहते हैं .इससे आत्मीयता समाप्त हो जाती है .

मधु इसे गन्दी आदत मानती है .यह दूसरे के तौलिये का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक समझती है .वह
तौलिये
तौलिये
अपने  बिस्तर पर किसी को पाँव नहीं रखने देती .यह विवाद इतना बढ़ता है कि पति - पत्नी में कटुता उत्पन्न हो जाती है . मधु अपने पिता के घर जाने को तैयार हो जाती है .उसी समय वसन्त को अपने कार्यलय में कार्य से दो महीने के लिए बनारस जाना पड़ता है .यहाँ कथानक में एक नाटकीय मोड़ उत्पन्न होता है .मधु समझती है कि उसका पति उससे नाराज होकर चला गया है .इसीलिए वह अपनी आदतों को बदलना चाहती हैं उसे कुछ सफलता भी मिलती है .इस परिवर्तन को दूसरे दृश्य में मधु की बचपन की सहेलियां चिन्तो और सुरों के आगमन और वार्तालाप द्वारा दिखाया गया है .दोनों सहेलियां मधु की चारपाई पर साथ ही बैठकर बातें करती हैं ,वहीँ चाय पीती हैं और एक ही तौलिये से मुंह पोंछती हैं .

इसी समय बसंत आ जाता है .मधु के स्वभाव परिवर्तन से वह बहुत प्रसन्न होता है .वह मधु से प्रेमपूर्ण बातें करता है .मधु समझ जाती है कि उसका पति तो उससे बिलकुल नाराज नहीं .अतः फिर उसकी पुरानी सनक जाग उठती हैं और पति - पत्नी में फिर तौलिये को लेकर विवाद छिड़ जाता है .इसी बिंदु पर एकांकी समाप्त हो जाता है .

तौलिये एकांकी अभिनय की दृष्टि से - 

इस एकांकी की कथावस्तु जीवन की वास्तविक यथार्थता से ग्रहण की गयी है .अश्क प्रायः अपने भोगे हुए जीवन के अनुभवों के क्षेत्र से ही एकांकियों के लिए वस्तु का चुनाव करते हैं ,तौलिये का कथानक भी इसका अपवाद नहीं .अंत में मधु के चरित्र के जैसा का तैसा हो जाने में नाटकीय सौन्दर्य निखर आया है .संकलनत्रय देश और कार्य का भी उचित निर्वाह हुआ है .कथानक एक ही ड्राइंग रूम में घटित हुआ है .एकांकी में दो दृश्य हैं जिनमें दो महीने का अंतराल है किन्तु कथा संगठन इस कौशल से किया गया है कि यह अंतराल खटकता नहीं .अभिनेता की दृष्टि से यह अत्यंत सफल एकांकी है .इसके संवाद अत्यंत स्वाभाविक और पात्रानुकूल हैं .

तौलिये एकांकी के पात्रों का चरित्र चित्रण - 

चरित्र चित्रण की दृष्टि से मधु और वसंत दोनों ही जीवंत पात्र हैं .दोनों के चित्रण में मनोवैज्ञानिक गहराई हैं .मधु उच्चवर्ग के संस्कारों से पीड़ित हैं .सफाई के संस्कार उसमें सनक की सीमा तक पहुँच गए हैं .अपने पति की इच्छानुसार वह अपने को बदलने का प्रयास करती हैं किन्तु बदल नहीं पाती .पंजाबी में एक कहावत हैं - वादियां सुजात दियां जप शरीरा नाल .अर्थात बचपन के संस्कार और आदतें जीवन के साथ जाती हैं .नाटक के अंत में मधु के चरित्र से इसी सत्य की ओर संकेत किया गया है .वसंत खुली और आडम्बरहीन जिंदगी जीने वाला पात्र है .उसमें किसी सनक के प्रति विश्वास नहीं .एकांकीकार ने इस नाटक द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अपने को सनक से बांधते चले जाना जिंदगी की सीधी सादी खुशियों से वंचित करते जाना है बल्कि जिंदगी को अमहत्वपूर्ण बातों से अक्रांत होते जाना भी है . 


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