वतनपरस्ती

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हाजी साहब को ज़मीन की कागज़ात से सम्बन्धित कुछ काम याद आ गया | वे बाहर जाने के लिए कपड़े बदल रहे थे | मध्यम कद-काठी और साँवले बदन के मालिक हाजी साहब की पोशाक की बात करें, तो वे सफ़ेद कुर्ता और लुंगी पहनते थे | सर पे सफ़ेद पगड़ी बाँधना, सुरमा-अतर वगैरह लगाना, गर्दन तक लम्बे बाल और तकरीबन 5 इंच लम्बी दाढ़ी उनके व्यक्तित्व को ख़ूब फबता था | आज भी कुछ वैसा ही आकर्षक अंदाज में हाजी साहब नज़र आ रहे थे |

वतनपरस्ती

                    

"...जंग का चाहे जो भी रूप हो, इम्तिहान की चाहे जो भी कसौटी हो, प्रतिस्पर्धा सरल हो या कठिन, कोई बाजी जीतता है, तो किसी का हारना सुनिश्चित है, किन्तु सही मायने में वही हारता है, जो अपने मन और तन से हार जाता है, जिसकी इन्द्रियों में शिथिलता समा जाती है...| बेशक, हम उस वक़्त तक परास्त नहीं हो सकते, जबतक हम परास्त होना न चाहें...|"

                                

                  20 वर्षीय आमीन अपने दादा के कब्र के सिरहाने ग़मग़ीन मुद्रा में खड़ा था | दादा को खोने का ग़म उसकी आँखों से बहने वाले आँसू बयाँ कर रहे थे | वह बेहद अफसोस से भरा था | उसकी आँखें इस सच्चाई को कबूल नहीं कर पा रही थीं कि अब उसके दादा उस दुनिया की तरफ चल बसे, जहाँ से किसी का लौटना नामुमकिन है | दादा से बेइन्तेहा मोहब्बत का नतीजा था कि आमीन के अंत:करण में मौन चीखें रह-रहकर गूँज रही थीं | उसके मस्तिष्क पटल पर आहिस्ता-आहिस्ता गुज़रे पलों की तमाम स्मृतियाँ सक्रिय होने लगी थीं | और बारी-बारी दादा के सोहबत में बिताए उन अंतिम लम्हों का अध्याय पन्ना-दर-पन्ना खुलता चला गया |

           
वतनपरस्ती
वतनपरस्ती
वर्ष 2012 , तकरीबन अपना आधा सफ़र तय कर चुका था | हर वर्ष की भांति इस बार भी गर्मी की छुट्टियाँ बिताने, आमीन अपने दादा-दादी के पास आया था | मई का अंतिम पखवाड़ा समाप्त होने में अभी 8 दिन का समय शेष था | यानि यूँ समझ लीजिए गर्मी अपने विदाई के अंतिम पड़ाव पर थी | घर में ख़ुशियों का माहौल था | ऐसा होना भी स्वाभाविक है | आख़िर आमीन अपने दादा-दादी की आँखों तारा जो ठहरा | और ये तारा, बहुत कम वक़्त में अपनी मौजूदगी से दोनों बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी में ख़ुशियाँ भरने हर वर्ष आता है... |

   घर में आमीन के अलावा दादा हाजी अब्दुल लतीफ़ और दादी सलीमन बीवी थे | कहने को तो हाजी साहब के सात औलाद हैं, जिनमें पाँच बेटे और दो बेटियाँ शामिल हैं | दुनियावी रीति-रिवाज़ों के मुताबिक हाजी साहब अपनी दोनों बेटियों की शादी  दो अलग-अलग परिवारों में कर दी | रही बात बेटों की, तो पाँच में से किसी एक ने भी बूढ़े माँ-बाप के साथ ग्रामीण परिवेश में रहने की हिम्मत नहीं जुटाई | सभी बारी-बारी गाँव से दूर शहर की तरफ कमाने-खाने के उद्देश्य से पलायन करते रहे और बसते चले गए |

सभी तो नहीं, पर कुछ बेटों ने बहुत कोशिश की बूढ़े माँ-बाप को अपने साथ ले जाने की, मगर नाकामयाब रहे | दरअसल, हाजी साहब ठहरे वतनपरस्त किस्म के इंसान | जिस तरह नवजात शिशु माँ की छाती से लिपट कर सुकून पाता है | जिस तरह दूध और पानी को कोई जुदा नहीं कर सकता | जिस तरह आसमान में फैले सितारों को कोई गुलाम नहीं बना सकता | ठिक उसी प्रकार हाजी साहब को अपने गाँव की मिट्टी से जुदा करना असम्भव था | उनके चट्टान से भी ज्यादा मजबूत इरादे को ध्वस्त करना असम्भव था | वे स्वाधीन मिज़ाज के इंसान थे | उन्हें पराधीन बनाना लोहे के चने चबाने के बराबर था | बेटे जब भी अपने साथ ले जाने की बात करते, तो हाजी साहब का जवाब भी सूफियाना रहता --------------

" ज़िंदगी का सफर भी अजीब सुहाना है, 
  औलादों से बढ़कर न कोई ख़जाना है, 
  वतनपरस्त हैं, वतन को ताउम्र चाहेंगे, 
  वतनपरस्ती ही इबादत, चाँदी और सोना है |

वाह ! हाजी साहब, आपने भी क्या ख़ूब वतनपरस्ती निभाई है | हंसते-हंसते तन्हाई क़बूल कर ली, किन्तु उस मिट्टी के घर को छोड़ना मुनासिब नहीं समझा, जहाँ अापके बाप-दादा की यादें बसी हैं | वाकई, जिस मिट्टी में सारा ख़ानदान अबतक सुपुर्देख़ाक होता आया था, उस मिट्टी की ख़ुशबू से कैसे दूर जाते हाजी साहब ? जिस गाँव की गोद में पलकर बुढ़ापे की दहलीज़ पर पाँव रखे थे, क्या मुमकिन था उस मातृभूमि से दूर जाना ? कम से कम हाजी साहब के लिए तो बिल्कुल भी नहीं | और फिर...! माधो साव, रजाक ख़लीफ़ा, अकलीम ख़लीफ़ा, बालदेव साव, निरंजन महतो इत्यादि बचपन के हमउम्र साथियों को छोड़ना ज़रा भी गवारा नहीं था उनको.... | लिहाज़ा, दोनो बुज़ुर्ग दम्पति गाँव के घर में एक-दूसरे का सहारा बनकर रह गए | 

10-12 कट्ठा की ख़ानदानी ज़मीनें थीं, जिसमें फसल उग आते थे | परन्तु, कभी-कभार मौसम की आँखमिचोली से
मनव्वर अशरफ़ी
मनव्वर अशरफ़ी
उन उम्मीदों पर भी पानी फिर जाता था | बेशक, हाजी साहब के कुछ बेटों में इतनी इंसानियत बाकी थी कि अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से बूढ़े माँ-बाप का खर्च भेज दिया करते थे | या फिर ख़ुद आकर पूछ-परख कर लिया करते थे |
   
हाजी साहब के संझले बेटे का बड़ा बेटा है आमीन | आमीन अपने दादा-दादी के सभी पोते-पोतियों में सबसे दुलारा पोता है | बेशक आमीन को अपने दादा-दादी का सोहबत पसंद है | शायद यही वजह है कि वह अपनी गर्मी की छुट्टियाँ दादा-दादी के साथ गुज़ारता है | उनकी ख़ूब ख़िदमत करता है |उसका सबसे महान और जज़्बाती किरदार तब दादा-दादी का दिल जीत लेता है, जब आमीन उन्हें हर साल तोहफ़े के रूप में एक गुल्लक भेंट करता है | बेशकीमती बात यह है कि वह सालभर अपनी फिजूलखर्ची इच्छाओं को दरकिनार करके एक-एक रूपया गुल्लक में जमा करता है | और हर गर्मी की छुट्टी में आकर अपने बुज़ुर्ग दादा-दादी को अपनी तरफ से एक ख़ास तोहफ़ा सौंपता है... | 
वह तोहफ़ा सचमुच ! महज़ पैसों से भरा एक गुल्लक नहीं हो सकता | उस तोहफ़े के पीछे छिपी असीमित प्यार की खुशबू केवल वे दोनों बुज़ुर्ग ही महसूस कर सकते थे | एक बेरोज़गार पोते के बुलंद हौसले के सामने दादा-दादी का नतमस्तक होना स्वाभाविक था | उन्हें अपने पोते की महानता पर ग़ुमान था... |

एक रोज तो आमीन की मासूमियत शब्दों में कुछ यूँ ढली थी -------- " जब मैं कमाने लगूंगा न दादा! तो आपलोग मेरी शादी कर दीजिएगा और अपनी बहु को अपने पास रखिएगा | देखिए तो दादी को कितना तकलीफ़ होती है चूल्हा-चौकी करने में | अब आप दोनों की उम्र आराम करने की है, न कि काम करने की | और आप भी इतनी तेज धूप में खेतों पर मत जाया कीजिए, भला 70 बरस के बाद भी कोई खेतों में काम करता है ! "

पोते की मासूमियत और वफ़ादारी देखकर हाजी साहब गदगद ही हो गए थे | पोते के कंधों पर हाथ रखते हुए कुछ यूँ अपने जज़्बात साझा किए थे ------ 
" बेटा !  तुम्हारी बेशुमार कामयाबी की हम हरपल दुआएँ करते हैं | तालीम हासिल करने के सफ़र में तुम चाहे जितना भी आगे निकल जाओ, पर एक बात हमेशा याद रखना, मुल्क और माँ में कोई फर्क नहीं होता | इसलिए मुल्क से कभी गद्दारी मत करना | इससे गद्दारी का मतलब, अपनी माँ से फरेब करना है..." |

जवाब में आमीन बोलता है ---------" शुक्रिया दादा, आपने जो मुझमें वतनपरस्ती का भाव भरा है, इसे मैं हरगिज़ न भूलूंगा | आपका ये पैगाम सदा अपने दिल में ज़िंदा रखूँगा | ये मेरा वादा है आपसे " ---------- आमीन की जज़्बाती बातें सुनकर दादा-दादी ख़ुशी से फूला न समा रहे थे | वह 20 बरस का युवा, अपने बाप-चचा को चुनौती दे रहा था | जिन बाप-चचा ने वर्षों पहले गाँव में माँ-बाप के साथ रहने से इनकार कर दिया था | आज उन्हीं के औलादों में से एक औलाद पुश्तैनी मकान से दिल्लगी कर रहा था | आज अपने दादा के नक़्शेकदम पे चलते हुए ग्रामीण परिवेश से मोहब्बत का मिसाल देे रहा था |

अब विदाई का लम्हा आ चुका था | हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी आमीन न चाहते हुए भी दादा-दादी से दूर जाने को मज़बूर था | ढेर सारी दुआएँ लेकर देखते ही देखते वह दादा-दादी की नज़रों से ओझल हो चुका था | आमीन के जाते ही घर में सन्नाटा पसर गया | कुछ वक़्त पहले खुशहाली की जो तस्वीर नज़र आ रही थी, अब वह तस्वीर बदरंग हो गई थी | और आख़िरकार , वे दोनों तन्हाई के हथकड़ी में कैद हो गए थे | और आहिस्ता-आहिस्ता वक़्त का पहिया आगे बढ़ने लगा...|

उस रोज हाजी साहब ज़ोहर (दोपहर) की नमाज़ से फ़ारिग होकर बरामदे में रखी एक लकड़ी से निर्मित कुर्सी पर बैठे ही थे कि उनकी शरीकेहयात सलीमन बीवी दस्तरख़्वान लगाते हुए बोली थीं-------" आईए जी, खाना खा लीजिए... " | 
बेचारी सलीमन बीवी, कमर की तकलीफ़ से हरदम परेशान रहती है | बुढ़ापे की कमज़ोरियाँ अब सही से कदम बढ़ाने नहीं देती | दवाइयों से नाता तो ऐसा जुड़ा है कि अब उसके बगैर रहना भी खतरे से खाली नहीं | मगर फिर भी अबतक अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह नहीं मोड़ी | लड़खड़ाते कदम के सहारे ही चुल्हा-चौकी करती है | घर के छोटे-बड़े कामों को अंजाम देती है | उनकी जिम्मेदारियाँ यहीं ख़त्म नहीं होती, बल्कि ख़ुदा की याद में पाँच वक़्त का नमाज़ भी अदा करना वह नहीं भूलती |

दोनों बुज़ुर्ग दम्पति खाना खाकर अपने मालिक(ख़ुदा) का शुक्रिया अदा किए | तभी हाजी साहब को ज़मीन की कागज़ात से सम्बन्धित कुछ काम याद आ गया | वे बाहर जाने के लिए कपड़े बदल रहे थे | मध्यम कद-काठी और साँवले बदन के मालिक हाजी साहब की पोशाक की बात करें, तो वे सफ़ेद कुर्ता और लुंगी पहनते थे | सर पे सफ़ेद पगड़ी बाँधना, सुरमा-अतर वगैरह लगाना, गर्दन तक लम्बे बाल और तकरीबन 5 इंच लम्बी दाढ़ी उनके व्यक्तित्व को ख़ूब फबता था | आज भी कुछ वैसा ही आकर्षक अंदाज में हाजी साहब नज़र आ रहे थे | पर कहते हैं न ! नियति का लिखा कोई टाल नहीं सकता | अगले पल हमारे साथ क्या होने वाला है, इसका कोई पूर्वानुमान नहीं होता | हाजी साहब  बाहर दरवाजे तक जाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे, कि अचानक उनका सर चकराने लगा | आँखों के सामने अंधेरा छा गया | सम्भलते -सम्भलते ज़मीन पर पीठ के बल गिर गए | लगभग दो-चार मिनट तक मौत से दो-दो हाथ किए | अंतत: हमेशा-हमेशा के लिए आँखें मूँद ली | देखते-देखते वे जनाजे में तबदील होकर आशियाने कब्र की तरफ़ निकल पड़े...........|

वाह ! हाजी साहब, खुद्दारी का सबक कोई आपसे सीखे | बड़े से बड़ा तकलीफ़ों का पहाड़ आपने हँसते-हँसते फ़तह कर ली, मगर औलादों के सामने ख़ुद को मोहताज होने न दिया | आपने बता दिया कि अगर इरादे बुलंद हो, तो बूढ़ी हड्डियों में भी शेर जैसी ताकत समा जाती है........ |

यकायक आमीन दादा की यादों से बाहर निकलता है | उसकी आँखों से अब भी आँसूओं की कतार ज़ारी थी | उसके हाथ में एक गुल्लक था | पर अफ़सोस कि उस गुल्लक का असली हकदार सुपुर्देख़ाक हो चुका था......... |

                                      
                     
                          -     लेखक
                  मो. मनव्वर अशरफ़ी 
                       7974912639
            manowermd@gmail.com

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