मैं कौन हूं काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता, मुझे समझाता,बताता, मैं कौन हूं, क्यों हूं,किसलिए हूं, खोलते मेरे मोह के जंजीर, जिसमें छटपटाता मैं अकेला अर्जुन! जिस जिस को अपना समझने चला था, मैं अपनें जीवन के कुरूक्षेत्र में, उसको अपने विरूद्ध पाया, अपने वेदना के खिलाफ! किसे समझूं मैं अपना, रह गया मैं फंसा अपने दु:ख में अकेला! काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
मैं कौन हूं
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता,
मुझे समझाता,बताता,
मैं कौन हूं,
क्यों हूं,किसलिए हूं,
खोलते मेरे मोह के जंजीर,
जिसमें छटपटाता मैं अकेला अर्जुन!
जिस जिस को अपना समझने चला था,
मैं अपनें जीवन के कुरूक्षेत्र में,
उसको अपने विरूद्ध पाया,
अपने वेदना के खिलाफ!
किसे समझूं मैं अपना,
रह गया मैं फंसा अपने दु:ख में अकेला!
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
मुझे दिखाते अन्नंत के छण,
हो जाता शाश्वत चिरन्तर जीवन का भान!
मैं कौन था,
क्या हो गया मुझे,
अस्तित्व का पथ पग के नीचे,
कहां चल रहा थका हारा,
कौन है अपना,
कौन है पराया,
असत्य ठहर जाता कुछ छण के लिए,
टूट जाते सब बंधन के पाश,
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
जो ज्योति देते अखण्ड नेत्रों में,
हो जाता मुझे सत्य का दर्शन,
छूट जाते सब दु:ख दर्द,
रह जाते मात्र वहीं एक सत्य!
जी भर के रो लेता,
हाथ जोड घुटने टेकता उनके सामने,
खुल जाते अपनत्व का जाल!
उनके कंधे पर जी भर सिसक लेता,
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
खूब डर लेता उनके स्पन्दन से,
कह देता सारी व्यथा,
रह जाता सिर्फ मैं शेष,
हल्का खाली बस खोखला,
रह जाता मेरा जीवन,
शान्त निशब्द निडर,
हर अधर्म शह लेता,
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
जो समझाते मुझे सिखाते,
कोई नही है यहां तेरे लिए,
चलना है तुझे एकेले,
कर निर्माण एक नये युग,
एक नये जीवन,
एक नये बीज पल्वित का,
जिसमे सच हो,
न हो फरेब न हो कोई अपना पराया,
बस हो प्रेम,
बस हो कलरव,
उन्मुक्त परियों का,
हो संस्कार न हो मतभेद,
ना हो रिश्तो का षडयन्त्र,
ना हो महत्वकांक्षी की प्रतिस्पर्धा,
बस हो बदलाव!
कोई जख्म के लिए मरहम होता!
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
जो होता सिर्फ मेरे लिए होता,
ना हो प्यार का पट हरण,
न छिनता कोई दु:शासन,
बन कर आता मैं भीम,
तोड देता मोह का पैर!
न अफसोस होता न आंसु होता,
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
जो दिखाता जो बनाता,
मेरा अस्तित्व जो न था न है!
असीम घनघोर धुन्ध,
रह जाते निशक्त,
बन जाता मैं फिर से एक शशक्त मनुष्य,
रह जाता मैं तृप्त,
न फंसता अभिमन्यु की तरह,
इस दुनिया के चक्रव्युव में,
एकेला अधीर बेबस,
क्या मैं जिसे अपना समझा,
वही खडे हैं मेरे सामने,
अपने अपने स्वार्थ का हथियार लिए!
जो प्यासे थे मेरे लाचारी का रक्त पीने के लिए!
मेरे सत्य की हत्या के लिए,
मैं कहां जाऊं किससे कहूं,
जज्बातों का एक पहिया लिए,
किस किस से लडूँ!
निराधार होकर मैं खो जाता,
काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता!
मुझे सबल बनाता मनुष्य बनाता!
यह रचना राहुलदेव गौतम जी द्वारा लिखी गयी है .आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की है . आपकी "जलती हुई धूप" नामक काव्य -संग्रह प्रकाशित हो चुका है .
संपर्क सूत्र - राहुल देव गौतम ,पोस्ट - भीमापर,जिला - गाज़ीपुर,उत्तर प्रदेश, पिन- २३३३०७
मोबाइल - ०८७९५०१०६५४
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