भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल bhakti kaal swarn yug The Golden Era of Hindi Literature in Hindi भक्ति काल एक स्वर्ण युग भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल कहा जाता है ।भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग किसने कहा भक्ति काल को स्वर्ण काल किसने कहा
भक्ति काल हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग है
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल bhakti kaal swarn yug The Golden Era of Hindi Literature in Hindi भक्ति काल एक स्वर्ण युग भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल कहा जाता है ।भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग किसने कहा भक्ति काल को स्वर्ण काल किसने कहा - समय की शिला पर साहित्य युग के चित्र बनते रहते हैं, किन्तु सभी चित्र स्वर्णीम नहीं बनते ।युग चित्र को स्वर्णीम बनाने का पूर्ण दायित्व उस युग के चित्रकार साहित्यकार का होता है, परिस्थितियाँ तो केवल पृष्ठभूमि प्रस्तुत करती हैं .युग चेतक साहित्यकारों की लेखनी से साहित्य अपने भाव कला से जीवन चित्रित से संयुक्त होकर लोक मंगल की सतत् साधना करता हुआ जब किसी देश, जाति, समाज की अक्षय और स्थायी सम्पत्ति बन जाता है तो स्वर्णीम का है। ऐसे साहित्य का युग ही स्वर्ण युग कहलाने का अधिकारी होता है।
भक्तिकाल ही स्वर्णकाल क्यों ?
हिन्दी साहित्य के चार कालों में केवल भक्तिकाल ही अपने सामाजिक, नैतिक साहित्यिक मान्यताओं के कारण स्वर्णकाल कहा जा सकता है। आदिकाल आश्रयदाताओं को प्रशस्ति गान है। वीरगाथाकाल निश्चयतः युद्ध के भयानक जाद, तलवारों की झनझनाहट तथा तीरों के सनसनाहट का युग है। इस काल का साहित्य केवल वीर तथा श्रृंगार रस तक सीमित है। इस युग की वीरता निश्चित रूप से अद्वितीय हैं जो मुर्दा दिलो को जीवित कर सकती हैं परन्तु यह भाव लोकहित के विपरीत है।हिन्दी का रीतिकाल वासना तथा विलासिता का कुंज है।इस प्रकार हिन्दी साहित्य का आदिकाल और रीतिकाल तो इसकी प्रतिद्वन्द्वता में बिल्कल नहीं ठहर सकते । आधुनिक काल का साहित्य अपनी व्यापकता और विविधता की दृष्टि से विचारणीय है।अनुभूतियों की गहनता और भाव प्रवक्ता के क्षेत्र में यह काल भक्तिकाल के समक ही आ पाता है।दूसरी बात है कि आधुनिक काल साहित्यिक उपलब्धियों के होते हुए भी अपनी प्रवृत्ति में नित्य परिवर्तनशील है।
भक्तिकाल के साहित्य का उद्देश्य सर्व उत्थान है। तुलसी ने लिखा है -
कीरति अति भूरि भल सोई ।
सुरसार अड़ सकर हित होई ।।
आचार्य द्विवेदी के शब्दों में "समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है, इसी का नाम भक्ति साहित्य है।यह एक नई दुनिया है। भक्ति साहित्य एक महती साधन और प्रेम उल्लास का साहित्य है।यहाँ जीवन के सभी विषाद निराशाएँ तथा कुठायें मिट जाती हैं ।इसने निमज्जन करके भारतीय जनता को अलौकिक सुख और शान्ति मिलती है। यह सुख, शान्ति अन्य किसी काल में सम्भव नहीं है।"
भक्तिकाल ईश्वरोपासना सगुणात्मक तथा निर्गुणात्मक दोनों प्रकार की है। यह भिन्नता केवल साधन की दृष्टि से हैं। मध्यकालीन भक्ति धारा 3 रूपों से प्रवाहित हुई है। एक धारा हठयोग के रूप में कबीर आदि सन्तों की वाणी में प्रकट हुई है। दूसरी धारा जयदेव तथा विद्यापति के माध्यम से मधुर पदों में व्यक्त हुई है और तीसरी धारा राम तथा श्रीकृष्ण की सगुण भक्ति रूप में प्रकट हुई है। इन तीनों धाराओं की अपनी विशेषताएँ हैं भाव की भक्ति काव्य में हृदय, बुद्धि और आत्मा को एक-साथ तृप्त कर देने की शक्ति और क्षमता है। इसमें ज्ञान, कर्म तथा भक्ति की त्रिवेणी बहती है । इसका काव्य सौन्दर्य तथा धार्मिक भावुकता हृदय को आनन्दित कर देती है । भक्ति साहित्य में हृदय और मस्तिष्क भाव और विवेक, का ऐसा मणिकांचन संयोग हुआ है कि पाठक को बार-बार कहना पड़ता है -
भक्तिकाल ईश्वरोपासना सगुणात्मक तथा निर्गुणात्मक दोनों प्रकार की है। यह भिन्नता केवल साधन की दृष्टि से हैं। मध्यकालीन भक्ति धारा 3 रूपों से प्रवाहित हुई है। एक धारा हठयोग के रूप में कबीर आदि सन्तों की वाणी में प्रकट हुई है। दूसरी धारा जयदेव तथा विद्यापति के माध्यम से मधुर पदों में व्यक्त हुई है और तीसरी धारा राम तथा श्रीकृष्ण की सगुण भक्ति रूप में प्रकट हुई है। इन तीनों धाराओं की अपनी विशेषताएँ हैं भाव की भक्ति काव्य में हृदय, बुद्धि और आत्मा को एक-साथ तृप्त कर देने की शक्ति और क्षमता है। इसमें ज्ञान, कर्म तथा भक्ति की त्रिवेणी बहती है । इसका काव्य सौन्दर्य तथा धार्मिक भावुकता हृदय को आनन्दित कर देती है । भक्ति साहित्य में हृदय और मस्तिष्क भाव और विवेक, का ऐसा मणिकांचन संयोग हुआ है कि पाठक को बार-बार कहना पड़ता है -
“गिरा अनयन नयन बिनु बानी।"
डॉ० श्यामसुन्दरदास ने भक्तिकाल के सम्बन्ध में लिखा है- “जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, सुप्रसिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरणों से निकल देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चय ही यह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग था। इस कथन का भी यही आशय है कि भक्ति काल अपने पूर्ववर्ती तथा परवर्ती कालों से श्रेष्ठ है। "
भक्तिकाल की साहित्य भूमि उज्जवल तथा पंक रहित है। इस काल के एक-दो कवियों को छोड़कर सभी आश्रय दाताओं के चंगुल से मुक्त रहे ।ये कवि स्वतन्त्रत भाव से काव्य रचना करते थे।इन कवियों ने साहित्य को लक्ष्मी के हाथों गिरवी नहीं रखा।यह युग हृदय तथा मन की साधना का युग है इसी साधना सम्बन्ध से हिन्दी साहित्य उन्नतमुखी हो सका है।
इस युग के कवियों के काव्यों का यदि मूल्यांकन किया जाय तो कहना पड़ेगा कि कबीर ने अपनी अटपटी वाणी और खिचड़ी भाषा में जो कुछ कहा है अद्वितीय है। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक दुर्भाव को तोड़कर उन्हें एक भाव धारा में बहाने की शक्ति कबीर के काव्य में थी।सूफी मुसलमान कवियों ने भी हिन्दू चरित्र काव्यों की योजना बनाकर हिन्दू मुसलमान एक्य का भाव प्रसारित किया। इसी कारण करना पड़ा।
इस युग के कवियों के काव्यों का यदि मूल्यांकन किया जाय तो कहना पड़ेगा कि कबीर ने अपनी अटपटी वाणी और खिचड़ी भाषा में जो कुछ कहा है अद्वितीय है। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक दुर्भाव को तोड़कर उन्हें एक भाव धारा में बहाने की शक्ति कबीर के काव्य में थी।सूफी मुसलमान कवियों ने भी हिन्दू चरित्र काव्यों की योजना बनाकर हिन्दू मुसलमान एक्य का भाव प्रसारित किया। इसी कारण करना पड़ा।
"इन मुसलमान हरिजन पर कोटिज हिन्दू वारिये।”
काव्य और भाषा की दृष्टि से तुलसी का साहित्य बेजोड़ है। इनमें सभी रसों का परिपाक मिलता है। ऐसा समर्थ कवि आज तक हिन्दी साहित्य को नहीं मिला है ! हरिऔध के शब्दों में -
कविता करके तुलसी न जसे,
कविता पा लसी तुलसी की कला।
भक्ति काल का साहित्य कला के लिए न होकर जीवन के लिए है। यह राष्ट्र, समाज तथा जाति का उद्धारक साहित्य है हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में यद्यपि इन भावनाओं का सुन्दर निरूपण हुआ है। परन्तु देश-काल की दृष्टि से भक्तिकाल यह चित्र अधिक लोक हितकारी है।
काव्य की दृष्टि से भी यह काल श्रेष्ठ सिद्ध होता है। इन कवियों की कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यन्त उदात्त है। इन्होने वाणी का उपयोग प्रशस्ति गान के लिए नहीं किया है।इन कवियों को न तो सिकरी से सरोवर या; न किसी राजा महाराजा की फरमाइश की परवाह।यह सानिश्छल आत्माभिव्यक्ति है।
काव्य की दृष्टि से भी यह काल श्रेष्ठ सिद्ध होता है। इन कवियों की कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यन्त उदात्त है। इन्होने वाणी का उपयोग प्रशस्ति गान के लिए नहीं किया है।इन कवियों को न तो सिकरी से सरोवर या; न किसी राजा महाराजा की फरमाइश की परवाह।यह सानिश्छल आत्माभिव्यक्ति है।
भक्तिकाल की महत्ता अन्य कालों से इस कारण भी बढ़ जाती है, क्योंकि इसमें समन्वय की विराट चेष्टा मिलती है।भाव-कला, सण-निर्ग, काव्यरूप, भाषारूप आदि सभी दृष्टियों से समन्वय की भावना दिखायी पड़ती है। भारतीय संस्कृति केवल भक्ति काल में ही सुरक्षित है।तुलसी ने नाना पुराण निगमागमन का सहारा लेकर भारतीय संस्कृति को पुष्ट किया है।तुलसी साहित्य में ही नहीं सभी भक्त कवियों में भारतीय संस्कति के मल तत्व सन्निहित है।भारतीय संस्कृति की चर्चा करके इन कवियों ने लोक आदर्श का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार काव्य रूप, लोकप्रियता संगीतात्मकता, रचना शैली, आध्यात्मिकता आदि बातों के आधार पर हम इसी निष्कर्ष पर आते हैं कि भक्ति काल ही हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल कहलाने का अधिकारी है .
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Bhut hi zyada helpful tha ye hmare liye,its sufficient for examination point of view
जवाब देंहटाएंखड़ी बोली हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग आधुनिक काल का स्वर्ण युग कब कहलाता है
जवाब देंहटाएंThoda or explaining hona chahiye tha..but okk it's fine
जवाब देंहटाएंKabir Das
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