पर्वत करें पुकार

SHARE:

शुद्ध हवा के कारोबार में भी कम्पनी ने अमीरी और कम अमीरी का भेद कर रखा है। जो ज्यादा अमीर हैं और अतिशुद्ध साँस अफोर्ड कर सकते हैं, उनके लिये 27 डालर कीमत वाली प्रीमियम ऑक्सीजन बोतल और जो शुद्ध साँस में थोड़ी मिलावट झेल सकते हैं, उनके लिये बैंफ एयर की बोतल 24 डालर में।

पर्वत करें पुकार 


पर्वत केवल पर्वतीय लोगों और वहां रहने वाले विविध जीवों की शरणस्थली ही नहीं है अपितु वे अपने आप में अमूल्य प्राकृतिक संपदा समेटे हुए हैं। उनसे मिलने वाले अनेक खनिज पदार्थ, लकड़ी तथा जल नीचे के मैदानों में भी जीवन की आवश्यकता पूरी करते है। भारतीयों ने सदैव ही हिमालय को बर्फ के घर के रूप में देखा है। प्रसिद्ध भारतीय कवि की उपर्युक्त सूक्ति की तरह ही अनंतकाल से हिमालय को विश्व का मणिमुकुट कहा जाता रहा है।इस पर्वत-शृंखला में कई हिन्दू तीर्थ- देवालय हैं जहाँ भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुँचते हैं।हिन्दू पुराणों में हमेशा ही हिमाच्छादित पर्वतों को आध्यात्मिक शांति के साथ जोड़कर देखा गया है। वर्णन मिलता है कि भारतीय आदि गुरु शंकराचार्य 800 ई. में बद्रीनाथ से माना दर्रे को पार कर तिब्बत के गुगे जिले में पहुँचे थे। भारत में भौगोलिक चेतना और जलवायु चेतना अनादि काल से सांस्कृतिक चेतना का मूल अंग थी। कैलाश-मानसरोवर शिव-पार्वती का निवास स्थान है। जंगली परिस्थितियां ही पर्वतों की थाती हैं। छोटे-बड़े पर्वत इन जंगलों को अपने कंधों पर उठाये रहते हैं। पर्वतों से ही निरूसृत होती हैं नदियाँ। हिमाच्छादित पर्वतों के पेड़ों की जड़ों से बूंद-बूंद रिसता है जल और यहीं धारा के रूप में पेड़-पौधों के पद प्रक्षालित करता हुआ प्रवाहित होता है। भारत का किरीट हिमालय वॉटर टावर यूँ ही नहीं कहलाता है। हिमालय ही तो सदानीरा नदियों का पिता धर्म निभाता है। पर्वतों से फूटते हुए झरने, जल प्रपात ही तो नदियों का गात (शरीर) बनाते हैं। कल-कल करते झरने गीत प्यार के गाते हैं। दुनिया के सभी धर्मों ने मनुष्य को प्रकृति की संतान कहा है। इसी कारण प्राचीन मनुष्य ने सदा प्रकृति से साहचर्य के संबंध स्थापित रखे, लेकिन अपने ज्ञान से प्रगति पथ पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य ने अब स्वयं को प्रकृति का स्वामी और नियन्ता मान लिया है। इस स्वार्थी सोच का परिणाम यह हुआ कि अपने लाभ के लिये मनुष्य ने प्रकृति और समस्त प्राकृतिक जीवों, संसाधनों के साथ निर्मम और विनाशकारी छेड़छाड़ का खेल खेलना शुरू कर दिया है।

वैश्विक तापमान वृद्धि का हिमालय पर पड़ने वाला प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा है। अब मध्य हिमालय की पहाड़ियों पर हिमपात नहीं होता। टिहरी के सामने प्रताप नगर की पहाड़ियों और उससे जुड़ी हुई खैर पर्वतमाला पर अब बर्फ नहीं दिखाई देती। यही नहीं, भागीरथी के उद्गम गोमुख ग्लेशियर में बर्फ पीछे हट रही है। हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि वर्ष 2030 में गोमुख ग्लेशियर पूर्णतया लुप्त हो जाएगा। यानी गंगा सिर्फ पहाड़ी नालों से पोषित नदी बनकर रह जाएगी।हिमालय वनों का सरंक्षक है और वन जल के संरक्षक है वन ही मेघों को आकर्षित करते हैं। ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं के शीर्ष ही हिमवान हैं जहाँ हिम नदियाँ (ग्लेशियर) हैं। यही हिमनद ही तो नदियों के पोषक हैं। आज हिमालय तेजी से क्षर रहा है क्योंकि अस्थिर पर्वतों पर बड़े-बड़े बाँध बनाने से जहाँ नदियों का दम घुटा है वहीं पहाड़ों के ऊपर बोझ बढ़ा है। हमें हिमालय के क्षरण को रोकना होगा। हिमालय की धरती को बड़ी निर्लजता और अश्लीलता से रौंदा जा रहा है। हिमालय के पर्वतों,
ग्लेशियर
ग्लेशियर
हिमनदों, नदियों, जलागम क्षेत्रों, वनों, कृषि जोतों और चकबन्दी, गूलों-कूलों-नहरों, सिंचाई, बागवानी, मत्स्यपालन, पशुपालन, वन्यजीवों और मनुष्य के आपसी सम्बन्धों वर्षाजल प्रबन्धन, इत्यादि को लेकर जनपक्षीय नीतियाँ नहीं हैं। जो नीतियाँ हैं उन्होंने या तो जनता और सरकार को आमने-सामने कर दिया है अथवा मानव और वन्यजीवों को आपस में टकराव की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है।पर्वतों का पारिस्थितिकी तंत्र अत्यंत नाजुक होता है तथा तापमान में बदलाव भी उसे काफी प्रभावित करता है। जीवाश्म ईंधनों के अंधाधुंध उपयोग के कारण विश्व भर की जलवायु में परिवर्तन हो रहा है जिससे ग्लेशियर यानी हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। इस कारण लाखों लोगों के लिए शुद्ध जल की कमी का खतरा पैदा हो गया है। इसी प्रकार अन्य मानवीय विकास कार्यों जैसे कृषि तथा वनों के विकास हेतु संसाधनों का दोहन भी वायुमण्डलीय ताप को बढ़ाता है।यदि पिछले 117 सालों की अवधि में ग्लेशियरों के पिघलने की दर देखें तो यह गंगोत्री में 18.1 मीटर, भागीरथी खड़ग में 15.3 मीटर, मयाड़ में 11मीटर, बड़ा शिगरी में 17 मीटर और जेमू में 15.1 मीटर रही है। आने वाले समय में यह हमारे देश के लिए चिंता का एक बड़ा विषय है। लेकिन इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों से लगता नहीं कि हम बहुत सावधान हो पाए हैं। यदि ग्लेसियरों के पिघलने की यही र3तार कायम रहती है तो हमें बड़े संकट का सामना करना पड़ सकता है।

कहीं बाँध बनाने के लिये बारूद बिछाकर पहाड़ों के भीतर सुरंगें बिछाई जा रही हैं तो कहीं पहाड़ों का सीना चीरकर विकास के नाम पर सड़कें खोदी जा रही हैं। तथाकथित आधुनिक विकास के लिये ऐसा करना आवश्यक बताया जाता है
भविष्य में सांसों का व्यापार होगा एक कनाडाई कम्पनी  जो शुद्ध साँस का कारोबार करने सात समंदर पार अमेरिकी महाद्वीप से चल कर दिल्ली तक आ पहुँची है। चीन और भारत के अति प्रदूषित शहरों में प्रीमियम ऑक्सीजन का बाजार तलाश रही इस कम्पनी का दावा है “पर्वतों की शुद्ध हवा वाली बोतल मुँह से लगाओ, एक साँस भरो और प्रदूषणकारी सुस्ती, आलस्य व हैंगओवर से मुक्ति पाओ।”

कम्पनी का भारतीय कारोबार देख रहे पंजाबी कनाडाई जस्टिन धालीवाल के मुताबिक शुद्ध हवा वाली 8 लीटर की बोतल का मूल्य रखा है 2800 रुपए। चीन के शंघाई और बीजिंग में 12 हजार यूनिटें बेंच चुकी वैंकूवर की इस कम्पनी ने भारतीय बाजार के मद्देनजर शुद्ध हवा की सौ बोतलें ट्रायल के तौर पर दिल्ली पहुँचा भी दी हैं।

शुद्ध हवा के कारोबार में भी कम्पनी ने अमीरी और कम अमीरी का भेद कर रखा है। जो ज्यादा अमीर हैं और अतिशुद्ध साँस अफोर्ड कर सकते हैं, उनके लिये 27 डालर कीमत वाली प्रीमियम ऑक्सीजन बोतल और जो शुद्ध साँस में थोड़ी मिलावट झेल सकते हैं, उनके लिये बैंफ एयर की बोतल 24 डालर में।


गांधी के सपनों का स्वराज अभी कायम होना बाकी है। वह तो तभी होगा, जब गांव-गांव भोजन, वस्त्र, शिक्षा और आवास की अपनी आवश्यकताओं में स्वावलंबी होगा। वृक्ष खेती से वह सपना पूरा होगा। हमें खाद्य के लिए काष्ठ फल, खाद्य बीज, तैलीय बीज, मीठे केलिए शहद देने वाले फूल और मौसमी फल, चारा और वस्त्र के लिए रेशम देने वाले वृक्ष, कपास-रेशम के लिए शहतूत, पशुओं के लिए चारा देने वाले वृक्ष प्रजातियों का विभिन्न पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के लिए चयन करना होगा। इस कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। हिमालय जो देश की सीमाओं का प्रहरी है और देश की पारिस्थितिकीय सुरक्षा का स्त्रोत है, इसकी प्रथम प्रयोगशाला बने।पर्यावरण में जिस तीव्रता से परिवर्तन हो रहे हैं उसके अनुसार पर्वत भी अपने आप को अनुकूल नहीं बना पाते हैं। पर्वतीय संसाधनों का और अधिक दोहन केवल पर्वतों के लिये ही नहीं अपितु समूचे विश्व के लिए भी भारी क्षति है। यदि पर्वतों का अस्तित्व बनाए रखना है और उनके अथाह संसाधनों का दीर्घकाल तक उपयोग करना है तो निश्चय ही कुछ ठोस निर्णय लेने होंगे।पर्वत के पारिस्थितिकी में जो बदलाव आ रहे हैं उनकी कीमत केवल पर्वतवासियों को ही नहीं अपितु हम सबको भी चुकानी पड़ेगी। हममें से अनेक जो पर्वतों पर नहीं रहते, फिर भी कहीं न कहीं पर्वत के स्रोतों पर निर्भर रहते हैं। पर्वतों की वन सम्पदा, चारागाह, अथवा जल स्रोत जो हमारी नदियों, झीलों आदि को जल की पूर्ति करते हैं हमे निश्चय ही पर्वतों से जोड़ते हैं। पर्वतों के ग्लेशियर हमारी नदियों के जल के स्रोत हैं तथा हमारी पेयजल आपूर्ति तथा कृषि संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

पर्वतों का संरक्षण - 

यह केन्द्र पर्वतीय क्षेत्र की विस्तृत जानकारी, ज्ञानवर्धन तथा हिमालय की पर्वतीय जनजातियों की जीविका के अस्तित्व को बनाए रखने के लिये बना है। यह अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र हिन्दू कुश-हिमालय क्षेत्र के 8 विभिन्न राष्ट्रों अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान तथा विश्व के समस्त पर्वतीय जातियों के हित में कार्य करता है। सन् 1983 में स्थापित इस केन्द्र का संचालन अपने राष्ट्र मित्रों के सहयोग से नेपाल के काठमांडू शहर से होता है। यह केन्द्र अपने क्षेत्रीय सदस्य राष्ट्र, संगठनों तथा आर्थिक सहायता देने वाले संस्थानों के सहयोग से पर्वत के लोगों तथा वहां के पर्यावरण को सुखद भविष्य देने के लिये कटिबद्ध है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा ने सन् 2002 को पर्वतों का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया था। इसके अन्तर्गत पर्वत तथा उसके निचले क्षेत्रों की जनजातियों को पर्वतों की धरोहर के महत्व को समझाना, वहां के विकास को गति देना तथासंसाधनों को संरक्षण देना सम्मिलित है। साथ ही साथ पर्वतों के पारिस्थितिकी के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्पूर्ण जानकारी देना भी सम्मिलित है। इस पूरे कार्यक्रम-वर्ष के अन्तर्गत अनेक राष्ट्रों ने भाग लिया व अपने सुझाव दिये। इस दौरान विश्व के पर्वतों की विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अनेक कार्यक्रम भी किए गए।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक सरकारें, गैर-सरकारी संगठन तथा अन्य संस्थाओं को एकजुट हो कर पर्वतों में रहने वाले स्थानीय लोगों के हित में छोटी-छोटी विकासशील इकाइयों की स्थापना करनी होगी जिसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय जातियों को संरक्षण, उनकी प्रगति तथा उनका आर्थिक संवर्धन करना होगा। पर्वतीय पर्यटन आदि से संबंधित ऐसी नीतियां बनानी होगी जिससे संसाधनों से हुई आय को संसाधनों को ही अधिक सशक्त बनाने हेतु उपयोग में लाया जा सके।
आज पर्वत निश्चय ही आहत हैं। उनका वर्चस्व संकट में है। यह शक्ति स्वरूप पर्वत अपने अपूर्व सौन्दर्य के साथ निश्चय ही अपना सीना ताने अपनी विशालता का परिचय देते हुए हमारे समक्ष खड़े हैं - लेकिन कहीं अंदर तक कमजोर, आहत और हमारी ओर देख रहे हैं 
संसार के सभी पर्वतों की जीवन कथा हमारे धर्म, दर्शन, काव्य से ही नहीं, हमारे जीवन की सम्पूर्णता से जुड़ी हुई है।


- सुशील शर्मा 

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका