कुरुक्षेत्र रामधारी सिंह दिनकर कुरुक्षेत्र राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित तथा सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है जिसका प्रकाशन सन १९४६ में हुआ था .इसकी रचना के सम्बन्ध में स्वयं दिनकर जी ने कहा है - कुरुक्षेत्र की रचना भगवान व्यास के अनुसरण पर नहीं हुई है और न महाभारत को दुहराना ही मेरा उद्देश्य था .मुझे को कुछ कहना था ,वह युधिष्ठिर और भीष्म का प्रसंग उठाये बिना भी कह सकता था किन्तु तब यह रचना शायद प्रबंध के रूप में न उत्तर कर मुक्तक बनकर रह गयी होती .
कुरुक्षेत्र रामधारी सिंह दिनकर
कुरुक्षेत्र राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित तथा सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है जिसका प्रकाशन सन १९४६ में हुआ था .इसकी रचना के सम्बन्ध में स्वयं दिनकर जी ने कहा है - कुरुक्षेत्र की रचना भगवान व्यास के अनुसरण पर नहीं हुई है और न महाभारत को दुहराना ही मेरा उद्देश्य था .मुझे को कुछ कहना था ,वह युधिष्ठिर और भीष्म का प्रसंग उठाये बिना भी कह सकता था किन्तु तब यह रचना शायद प्रबंध के रूप में न उत्तर कर मुक्तक बनकर रह गयी होती .
समस्या प्रधान महाकाव्य -
यह समस्या प्रधान महाकाव्य है .आपसी विद्वेष तथा हिंसा की आग ने मानवीय सभ्यता के इतिहास को रक्तमय
करके उसे शमशान सा बना दिया है .युद्ध समस्या का हल नहीं हैं .भयानक युद्ध के उपरान्त ग्लानी ,पशाताप के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता .ये युद्ध राष्ट्रनायकों की प्रेरणा से होते हैं .इनमें असंख्य लोगों की बलि देकर राष्ट्रनायक अपने को सुरक्षित कर लेते हैं .इस समस्या पर प्रकाश डालने के उपरान्त कवि स्पष्ट करता है कि प्राचीन काल में एक बार कुरुक्षेत्र में भयानक युद्ध हुआ था ,भीषण नरमेध हुआ था .ब्रजांग भीम ने दुशासन के वक्ष का रक्त पीकर अपनी पैशाचिक पिपासा शांत की थी और द्रोपदी ने उसी रक्त से अपनी वेणी आरक्त कर १३ वर्ष उसे संवारा था .युद्ध में सभी कौरव समाप्त हो गए थे .धृतराष्ट्र तथा गांधारी शेष थे .ये दोनों कौरावों के दाह संस्कार देखने के लिए जीवित थे .दूसरी ओर पांडव अपनी विजय पर फूले नहीं समा रहे थे .उनके शिविर जयघोष से मुखरित थे .परन्तु कुरुक्षेत्र में उनकी हंसी सुनने वाला भी न था .
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कुरुक्षेत्र |
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।
कृत्रिम शान्ति सशंक आप
अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
कभी नहीं करती है।
मानवतावादी -
सम्पूर्ण महाकाव्य का कथानक सात सर्गों में विभक्त हैं .रचना के पूर्व कवि के समक्ष जो ज्वलंत प्रश्न था - विश्व को क्या दे गया ,इतना बड़ा संग्राम ,उसी का समाधान सभी सर्गों में चितित्र है .कवि मानस में मानव कल्याण की भावना निहित है .युधिष्ठिर की विरक्ति का मूल कारण कुरुक्षेत्र के मैदान में हुआ मानवीय विनाश है .ज्यों - ज्यों वह इस पर सोचते हैं ,उनकी आत्मग्लानि बढ़ती जाती है .आज की तथाकथित सभ्यता पर कवि का कोई विश्वास नहीं हैं .वह ईश्वर से पूछता है - धर्म का दीपक दया का दीप ,कब जलेगा ,कब जलेगा विश्व में भगवान् .कुछ लोग कुरुक्षेत्र को समाजवादी रचना मानते हैं .परन्तु इस पर भारतीय आदर्श वाद ,गीता के कर्मवाद ,गांधीवाद आदि का का स्पष्ट प्रभाव है .इसका प्रतिपाद्य मूलतः मानवतावादी है .
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