मेरा परिचय

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मेरा परिचय तुम्हारा परिचय, तुम्हारी पहचान क्या है? यही पूछा था न, तुम्हारे बातों के सवालों ने। मुझसे हर बार हर पल में करूणा। मेरी आंखों की गोलाईयों ने, तुमसे वो हर पहचान कह गया था। लेकिन तुमनें न पहचाना करूणा। क्योंकि तुमनें मुझे उतना ही जाना, जहां से शुरू हुआ था आखिरी। तुम्हारे कदमों के बराबर ही तो थे, मेरे कदमों के निशां। parichay वक्त के लहरों ने उसे मिटा दिया था। जो तुम्हारे पैरोें की लकीर थे, शायद तुमनें ही मोड़ लिया था। अपनें कदमों के दिशा। शायद छूना भी तुम्हारे हक में नही था।

मेरा परिचय


तुम्हारा परिचय,
तुम्हारी पहचान क्या है?
यही पूछा था न,
तुम्हारे बातों के सवालों ने।
मुझसे हर बार हर पल में करूणा।
मेरी आंखों की गोलाईयों ने,
तुमसे वो हर पहचान कह गया था।
लेकिन तुमनें न पहचाना करूणा।
क्योंकि तुमनें मुझे उतना ही जाना,
जहां से शुरू हुआ था आखिरी।
तुम्हारे कदमों के बराबर ही तो थे,
मेरे कदमों के निशां।
parichay
वक्त के लहरों ने उसे मिटा दिया था।
जो तुम्हारे पैरोें की लकीर थे,
शायद तुमनें ही मोड़ लिया था।
अपनें कदमों के दिशा।
शायद छूना भी तुम्हारे हक में नही था।
मेरे अछूत कदमों के निशां को।
मेरी आवाज भी है,
तुम्हारे आवाज के पीछे।
महसूस करना कभी तुम,
बैठना कभी शान्त कमरे में,
खुलते हुए दरवाजे की आवाज में है मेरे शब्द,
कभी रोना जब तुम करूणा,
अपनें आंसुओ को एक अंगुली पर रख लेना,
देखना उसके बूंद में,
थमा है उसमें मेरा बिस्मृत चेहरा।
कभी भीड़ से देखना तुम,
रेल स्टेशन के किसी खाली पडे़,
कुर्सी के पास बैठा हूं चुपचाप।
कभी पढ़ लेना दु:ख की कहानी,
उसके किसी एक नायक में,
घबाराता हुआ नज़र आऊँगा तुम्हें।
कभी सुन लेना अपनों से तहरीर,
उसमें जिन्दा किसी शक्ल में ढल जाऊंगा।
कभी जलाना अन्धेरे में एक दीया,
तुम्हें सबसे पहले दिखाई दूंगा,
तुम्हारे घर के किसी चीज में।
कभी पेड़ों के सरसराहट को सुनना,
मेरे ही अल्फाज सुनायेगें तुम्हें,
उसकी सबसे कमजोर डालियाँ।
जब अन्न ग्रहण करना तुम करूणा,
तुम्हें जली हुई रोटी के एक सुराख़ में,
झलकता हुआ नज़र आऊंगा।
कभी किताबों को खंगालना,
किताबों में दबी सबसे नीचले,
किताब के उपर धूल में तुम्हें मिल जाऊंगा।
और कितना पहचान दूं तुम्हें करूणा।
मुझे पहचानें के लिए आंखों की नही,
कुछ आदत बदलनें की जरूरत है तुम्हें।
उंच-नीच की जंजीर तोड़ने की आदत,
नज़र को नही नजरिया बदलनें की आदत।
शोख बातों का अर्थ बदलनें की आदत,
किसी मां के दुखी चेहरे को खुशियों में,
बदलनें की आदत।
उसके छलकते ममता में मेरा अक्श होगा।
किसी बच्चे को गलेे लगाने की आदत,
उसके उजले चेहरे में,
मेरी मुस्कुराहट का पैमाना होगा।
किसी किसान के नजरों में बदल कर देखना,
मैं मुरझाये फसलों के बीज में छूपा रहूंगा।
बस एक बार धूप में चलने की आदत डाल लेना,
मैं परछाई का रूप ले लूंगा।
और हां कभी चलते-चलते,
पीछे मुड़ कर देखने की आदत बना लेना,
मैं दुनिया के सबसे पीछे,
तुम्हें एकेला खड़ा दिखाई दूंगा।करूणा!

                 


- राहुलदेव गौतम

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