गिरना

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माँ , अब मैं समझ गया मेरी माँ बचपन में मुझे एक राजकुमारी का क़िस्सा सुनाती थी राजकुमारी पढ़ने-लिखने घुड़सवारी , तीरंदाज़ी सब में बेहद तेज़ थी वह शास्त्रार्थ में बड़े-बड़े पंडितों को हरा देती थी घुड़दौड़ के सभी मुक़ाबले वही जीतती थी तीरंदाज़ी में उसे केवल ' चिड़िया की आँख की पुतली ' ही दिखाई देती थी फिर क्या हुआ -- मैं पूछता एक दिन उसकी शादी हो गई -- माँ कहती उसके बाद क्या हुआ -- मैं पूछता फिर उसके बच्चे हुए -- माँ कहती फिर क्या हुआ -- मैं पूछता फिर वह बच्चों को पालने-पोसने लगी -- माँ के चेहरे पर लम्बी परछाइयाँ आ जातीं

गिरना


बचपन में जब कभी मैं 
चलते-चलते गिर जाता तो 
दौड़े चले आते उठाने 
माँ-बाबूजी 

किशोरावस्था में जब कभी चलाते हुए 
फिसल जाती मेरी साइकिल 
और गिर जाता मैं सड़क पर तो 
मदद करने आ जाते 
साथ चलते राहगीर 

पर यह कैसा गिरना है कि 
कोई कितना भी उठाए 
उठ नहीं पाता मैं 
एक बार जो गिर गया हूँ 
अपनी ही निगाहों में 

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नफ़ीस और मैं और 2014 का चुनावी साल


बाबरी मस्जिद के ध्वंस 
या गुजरात दंगों के बावजूद 
चुनावी साल
धर्म-निरपेक्ष था हमारा देश --
मैं और मेरा मित्र नफ़ीस 
यही पढ़ते-सुनते हुए बड़े हो रहे थे 

वह सन् 2014 का चुनावी साल था 
लुटी हुई हवाओं में अपरिचय की 
तीखी दुर्गंध थी 

देखते-ही-देखते 
डर ने एक भयावह शक़्ल 
अख़्तियार कर ली थी 
उस शक़्ल में से गूँजती थी 
तेज़ाबी चिंघाड़ें
जिससे सारी तितलियाँ मर जाती थीं 
सारे फूल मुरझा जाते थे 

यह जंग हम हार गए हैं --
चुनाव-परिणाम की घोषणा 
के बाद उदास हो कर 
तुमने कहा था नफ़ीस 

वह सन् 2014 का चुनावी साल था 
फ़िज़ा में मौत की सड़ाँध फैली हुई थी 
और मैं तुम्हारी आँखों में 
धर्म-निरपेक्षता की इमारत को
ढह कर खंडहर बनते हुए देख रहा था ...


इक्कीसवीं सदी


सदी की शुरुआत 
बर्बरता को ढो रही है 
इस कंक्रीट-जंगल में 
हमसे इंसानियत खो रही है 

होठ हँस रहे हैं 
पर आँखें उदास हैं 
भीतर तक भिगो सके 
वह जल नहीं पास है 

मिनरल-वाटर बोतल में बंद पानी 
आज़ाद होने के लिए मचल रहा है 
सड़कों पर अपरिचय 
किसी डरावनी फ़ैंटेसी के 
अदृश्य दैत्य-सा चल रहा है 

देश अपनी अस्मिता 
खो रहा है 
गंगा-जमुनी तहज़ीब को 
डुबो रहा है 

आदमी के रास्ता काट जाने पर 
बिल्ली चिल्ला रही है --
मेरा दिन अच्छा नहीं है 
अपना ही नंबर मिलाने पर 
एक डरावनी आवाज़ आ रही है --
यह नंबर मौजूद नहीं है ...


------------०------------


माँ , अब मैं समझ गया


मेरी माँ 
बचपन में मुझे 
एक राजकुमारी का क़िस्सा 
सुनाती थी 

राजकुमारी पढ़ने-लिखने 
घुड़सवारी , तीरंदाज़ी 
सब में बेहद तेज़ थी

वह शास्त्रार्थ में 
बड़े-बड़े पंडितों को
हरा देती थी 

घुड़दौड़ के सभी मुक़ाबले 
वही जीतती थी 

तीरंदाज़ी में उसे 
केवल ' चिड़िया की आँख की पुतली ' ही 
दिखाई देती थी 

फिर क्या हुआ -- 
मैं पूछता 

एक दिन उसकी शादी हो गई --
माँ कहती 

उसके बाद क्या हुआ --
मैं पूछता 

फिर उसके बच्चे हुए -- 
माँ कहती 

फिर क्या हुआ -- 
मैं पूछता 

फिर वह बच्चों को 
पालने-पोसने लगी --
माँ के चेहरे पर 
लम्बी परछाइयाँ आ जातीं 

नहीं माँ 
मेरा मतलब है 
फिर राजकुमारी के शास्त्रार्थ 
घुड़सवारी और 
तीरंदाज़ी का 
क्या हुआ -- 
मैं पूछता 

तू अभी नहीं 
समझेगा रे 
बड़ा हो जा 
खुद ही समझ जाएगा -- 
यह कहते-कहते 
माँ का पूरा चेहरा 
स्याह हो जाता था ...

माँ 
अब मैं समझ गया 



वियोग


एक बार समुद्र ने सपने में पाया 
सतरंगी बुलबुला 
उसने उसे नीली व्हेल को दे दिया 
नीली व्हेल ने उसे दिखाया 
अपना अद्भुत जल-नृत्य 

किंतु अगले कई हफ़्तों तक 
नीली व्हेल नहीं लौटी 
समुद्र के उस जल में 

चिंतित समुद्र ने 
अन्य मछलियों से पूछा
नीली व्हेल का पता 
किंतु कोई उसे कुछ न बता सका 

विकल समुद्र हर गुज़रते 
नाविक से पूछता 
नीली व्हेल का कुशल-क्षेम 

एक दिन जब उसे पता चला कि 
नीली व्हेल नृशंस शिकारियों के 
हारपूनों का शिकार बन गई थी तो 
समुद्र के भीतर का धड़कता अंश मर गया 

नीली व्हेल की याद में 
समुद्र बहुत रोया 
उसके आँसुओं के अम्ल से 
उसके भीतर पलने वाले 
सभी मूँगे मर गए 
सभी मछलियाँ कहीं और चली गईं 

जहाँ नीली व्हेल का 
शिकार किया गया था 
अब समुद्र में वहाँ 
एक भयावह भँवर है

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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय 
A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी , 
वैभव खंड , 
इंदिरापुरम , 
ग़ाज़ियाबाद -201014
मो: 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com

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