भारतीय संस्कार

SHARE:

भारतीय संस्कार हिन्दू धर्म के सोलह 16 संस्कार - प्राचीन ग्रंथों में षोडश संस्कारों,यानि सोलह संस्कारों का विधान बताया गया है|यद्यपि जन्म से मृत्यु तक मनुष्य के जीवन में अनेक संस्कार होते हैं,तथापि उनमें सोलह संस्कारों को ही विशेष रूप से प्रधानता दी गई है:आजकल एक बात हमें अधिकांशत: सुनने को मिल जाती है –‘वर्तमान पीढ़ी में संस्कारों का चलन कम हो गया है,यह पीढ़ी संस्कारी नहीं है,इनको संस्कारों का ज्ञान ही नहीं है,इत्यादि-इत्यादि|’

हमारे जीवन में संस्कारों की घटती प्रासंगिकता


आजकल एक बात हमें अधिकांशत: सुनने को मिल जाती है –‘वर्तमान पीढ़ी में संस्कारों का चलन कम हो गया है,यह पीढ़ी संस्कारी नहीं है,इनको संस्कारों का ज्ञान ही नहीं है,इत्यादि-इत्यादि|’
इन सब बातों से एक बात तो स्पष्ट है कि संस्कार हमारे जीवन में अति महत्वपूर्ण हैं तथा इनके हनन से हमारे बड़े-बूढ़ों को तकलीफ़ भी होती है| यह चिंता सही भी है कि क्योंकि भारतीय संस्कृति में मानव का संपूर्ण जीवन धर्म से संबंधित है तथा इन्हीं संस्कारों से मानव जीवन सार्थक एवं सफ़ल बनता है|संस्कार प्राचीन काल से ही मानव-जीवन में पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं तथा मनुष्य-जीवन के अनिवार्य अंग हैं|
चरक ऋषि संस्कार का अर्थ बताते हुए कहते हैं-
“संस्कारों हि गुणान्तराधानमुच्यते”

संस्कार
संस्कार
अर्थात् संस्कार मनुष्य के अन्दर पहले से विद्यमान दुर्गुणो को निकालकर उनकी जगह सद्गुणों का आधान कर देने का नाम है|  
संस्कार मानव जीवन के प्रथम चरण से आरंभ होते हैं तथा जीवन के अंत तक रहते हैं|हिन्दू परिवारों में जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत के संस्कारों का विधान प्राचीन धर्म-शास्त्रों के अनुकूल किया गया है|श्री शिवसहाय चतुर्वेदी संस्कारों का महत्व इस प्रकार बताते हुए कहते हैं कि हिन्दू जाति में संस्कारों का विशेष महत्व है| उनका मत है कि किसी वस्तु के दोषों को दूर करके उसे विभूषित करना ही संस्कार कहलाता है|
इसी प्रकार सावित्री चन्द्र कहती हैं-“प्रत्येक मनुष्य का जीवन तथा व्यवहार उसके सामाजिक परिवेश एवं उनसे प्राप्त नैतिक,भावात्मक तथा परम्परागत संस्कारों पर आधारित रहता है|यह आदान-प्रदान एक पक्षीय नहीं है|प्रत्येक मानव का जीवन जहाँ समाज में प्रचलित मान्यताओं,विश्वासों,त्योहारों एवं जीवन-दर्शन से नियंत्रित होता है,वहाँ साथ ही प्रत्येक अपने व्यक्तिगत व्यवहार एवं सहानुभूति से उन परम्परागत संस्कारों को चालित तथा परिवर्तित करता हुआ समाज के लिए नए तथा उन्नत आदर्शों को प्रतिष्ठापित करता है|”(सोलहवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में समाज और संस्कृति,पृष्ठ.147)

हिन्दू धर्म के सोलह 16 संस्कार - 

प्राचीन ग्रंथों में षोडश संस्कारों,यानि सोलह संस्कारों का विधान बताया गया है|यद्यपि जन्म से मृत्यु तक मनुष्य के जीवन में अनेक संस्कार होते हैं,तथापि उनमें सोलह संस्कारों को ही विशेष रूप से प्रधानता दी गई है:-
1)गर्भाधान (गर्भ धारण करने का संस्कार)
2)पुंसवन (गर्भ स्थिर हो जाने पर पेट में बढ़ रही संतान की रक्षा एवं शारीरिक विकास का संस्कार)
3)सीमन्तोन्नयन (गर्भ में शिशु के मानसिक विकास का संस्कार जिसमें स्त्रियों के सुहाग का संवर्द्धन होता है)
4)जातकर्म (संतान के उत्पन्न होने का संस्कार)
5)नामकरण (संतान को नाम देने का संस्कार)
6)निष्क्रमण (बच्चे को गृह से पहली बार निकलने तथा सूर्य दिखाने का संस्कार)
7)अन्नप्राशन (संतान को पहले-पहल अन्न खिलाने का संस्कार)
8)चूड़ाकर्म या मुंडन (संतान के सिर के बालों को उतारने का संस्कार)
9) कर्णबेध(संतान के कानों को बींधने का संस्कार)
10)उपनयन (संतान को यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कराने का संस्कार)
11)वेदारम्भ (गुरुकुलों में शिष्य को शिक्षा प्रारंभ करवाने का संस्कार)
12)समावर्तन (युवावस्था में शिक्षा समाप्त होने पर गृहस्थ जीवन के लिए तैयार होने का संस्कार)
13)विवाह (संतान की उत्पत्ति तथा धार्मिक एवं सामाजिक कर्तव्यों के पालन का संस्कार)
14)वानप्रस्थ (गृहस्थ जीवन को पूर्णत: भोगने के पश्चात् उसे त्यागने की तैयारी)
15)सन्यास (सभी कर्मों से विरक्त होकर पृथ्वी पर परोपकाराय विचरने का संस्कार)
16)अंत्येष्टि (मृतक शरीर का अंतिम संस्कार)
यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि आज के व्यस्त जीवन में इन संस्कारों की महत्ता अब उतनी नहीं रह गई जितनी कि पहले होती थी|इनमें से कई संस्कार तो आधुनिकता व समय के तेज प्रवाह में बह गए|अब प्राय: आठ यानौ संस्कार ही सम्पादित किए जाते हैं|इनमें जातकर्म,नामकरण, अन्नप्राशन,चूड़ाकर्म,कर्णबेध,यज्ञोपवीत,विवाह तथा अंत्येष्टि प्रमुख है| बल्कि इनमें से भी कई संस्कारों का क्षय होता जा रहा है|बदलती हुई परिस्थितियों में बहुत से संस्कार मनुष्य की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर निर्भर हैं|संस्कारों के प्रति प्राचीन काल में जो धार्मिक भाव लोक जन के हृदय में बना हुआ था वह आज विस्मृत सा हो गया है|अब संस्कार मात्र जन्म,मृत्यु तथा विवाह तक ही सीमित रह गए हैं|किन्तु मेरा मानना है कि भले ही हम कुछ संस्कारों को मानें या निभाएं पर हमें अपने संस्कारों तथा संस्कृति का ज्ञान अवश्य होना चाहिए|



लेखिका-
इलाश्री जायसवाल(हिंदी अध्यापिका)  
नॉएडा 201301 

COMMENTS

Leave a Reply: 2
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ हमें उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !
टिप्पणी के सामान्य नियम -
१. अपनी टिप्पणी में सभ्य भाषा का प्रयोग करें .
२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका