बच्चे और स्मार्टफोन

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बच्चो को उनके परिवेश,उनके समाज से जोड़ने वाले खेल-खिलौने अब नही रहे ।वो चाकी,चूल्हा गुड्डे-गुड़िया,घरौंदे,चौके के बर्तन ,घोड़ागाड़ी,बैलगाड़ी----------ये सब अब बच्चो की दुनियां में शामिल नही और ना ही ये बच्चों को पसंद है और हो भी क्यो जब झुनझुने से खेलने की उम्र में बच्चे मोबाईल गेम में उलझे हुए हैं

बच्चे और स्मार्टफोन


आया रे खिलौने वाला खेल-खिलौने लेके आया रे-आया रे--------!पर खिलौने वाले की इस आवाज को सुनकर मचलने वाले बच्चे तो अब 'स्मार्टफोन' में व्यस्त हैं ।अरे खिलौने वाले इस गली में शोर ना मचाओ । जाओ,भागो यहाँ से ,इस गली में स्मार्ट बच्चे रहते हैं ।गुड्डे-गुड्डियों से खेलने वाले गँवार नही.....!
स्मार्टफोन
हाय बच्चों के खिलौनों का ,परम्परागत संसार अब लुप्त हो गया। ये वीडियो गेम का दौर है गुड्डे-गुड्डियो का नही।। अब बच्चे लकड़ी,प्लास्टिक,पत्थर के खिलौनों से नही 'स्मार्टफोन' से खेलते हैं।तकनीक शरीर के  पूर्ण विकसित होने से पहले ही उसे नष्ट करने पर तुली है ।नन्ही आँखे वीडियो गेम की आदी होकर रौशनी खो रही हैं। नन्हे-मुन्नों की आँखों पर भारी भरकम चश्मा---!वर्तमान खेल-खिलौने समझ का विकास नही विनाश कर रहे हैं।

बच्चे वीडियो गेम में उलझकर अवसाद में डूबने  को बाध्य हैं ।अब न मेले दिखते हैं न ही मेले में खिलौनों की जिद करते बच्चे ..!!गर्मी की सुनसान दोपहरी में दूर से आती मदारी के डमरू  की आवाज.." न तो अब वो डमरू  की आवाज  सुनाई देती है और न ही उस आवाज की दिशा में दौड़ते बच्चे दिखते हैं,,कभी डमरू की आवाज सुनते ही बच्चे ऐसे घर द्वार छोडकर दौड़ते थे जैसे गोप-गोपियाँ बांसुरी की धुन की दिशा में दौड़ रहे हों।अब गली में शीटी ,बांसुरी,गुब्बारे बेचने वाले नही आते और न ही बच्चे ये सब खरीदने में रूचि  रखते हैं,  

कभी जब गली में बांसुरी और गुब्बारे वाले आते थे तो बच्चे इन रंग-बिरंगे गुब्बारों को पाने के लिए मचल उठते थे। अब गुब्बारे खेलने नही सजाने के काम आते हैं । बच्चो को उनके परिवेश,उनके समाज से जोड़ने वाले खेल-खिलौने अब नही रहे ।वो चाकी,चूल्हा गुड्डे-गुड़िया,घरौंदे,चौके के बर्तन ,घोड़ागाड़ी,बैलगाड़ी----------ये सब अब बच्चो की दुनियां में शामिल नही और ना ही ये बच्चों को पसंद है और हो भी क्यो जब झुनझुने से खेलने की उम्र में बच्चे मोबाईल गेम में उलझे हुए हैं ।स्मार्टफोन ने सारी दुनिया बच्चो की अँगुलियों  के नीचे रख दी हैं । एक दौर वो था जब कपड़ो के खिलौने हमारी दादी-नानी बना देती थीं कुम्हार बाबा हमारे मिट्टी के खिलौने,बढ़ई काका हमारे लकड़ी के खिलौने बना दिया करते थे ।ये खिलौना निर्माण देखकर बच्चे भी खिलौनों के प्रति रचनात्मक हो जाते थे ।वो खिलौनों के बारे में सोचते थे और नये-नये खिलौनों का निर्माण भी खुद ही बना लेते थे ।ये  बच्चों को देश-विदेश की संस्कृति से जोड़ने वाले खेल-खिलौने अब  गायब हो  चुके हैं ।इन खिलौनों का बच्चों के शारीरिक,मानसिक,सामाजिक व भावनात्मक विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान था ।

विकसित होती तकनीक ने  परम्परागत खिलौनों की दुनियाँ उजाडकर बच्चों के हाथों में जानलेवा खेल पकड़ा दिया ।प्यारी-प्यारी तोतली कहानियाँ सुनाने की उम्र में बच्चों को वीडियो  गेम ने अवसाद में डुबो दिया ।जब हम बच्चे थे तो सारा दिन गुड्डे-गुडियो की दुनियाँ में खोये रहते थे ।उनके लिए नये कपड़े बनाने की टेंसन,नया  नास्ता बनाने की टेंसन और तो और हमारे गुड्डे-गुड्डियों को बुखार भी आता था ।रविवार को हम पड़ोस वाले डॉक्टर अंकल के पास गुड़िया को दिखाने ले जाते और उनके पानी वाले इंजेक्शन से हमारी गुड़िया बिलकुल चुस्त-दुरुस्त हो जाती थी ।
बच्चों की अल्हड़ दुनियां को स्मार्ट बनाकर हमने उनसे संवेदना ,उनका बचपना सब छीन लिया ,हमने उन्हें अमानवीय बना दिया।"स्मार्टफोन की आभासी दुनियां"ने बच्चों के खिलौनों का भोला-भला संसार लूट लिया,उजाड़ दिया.................!




मीनाक्षी वशिष्ठ
जन्म स्थान ->भरतपुर (राजस्थान )
वर्तमान निवासी टूंडला (फिरोजाबाद)
शिक्षा->बी.ए,एम.ए(अर्थशास्त्र) बी.एड

विधा-गद्य ,गीत ,प्रयोगवादी कविता आदि ।

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