अंतर्द्वंद

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मेरी माँ ने अपने माँ बाप की मर्जी से शादी की वो भी वही करती है, जो मैं करती हूँ जब कि मैंने अपने प्यार से शादी की। शायद कृष्ण और राधा साथ रहते तो उनका प्यार भी नार्मल ही गिना जाता उनकी मिशाल नही दी जाती प्रेम के लिए। दूर रहने से ही प्रेम बना रहता है साथ रहने से तो एक दूसरे के अवगुण ही दिखते हैं।

अंतर्द्वंद


मैं मोटी भी हो गयी हूँ।, देखने मे भी अब पहले जैसी नही लगती। काम भी कायदे से नही करती या ये भी हो सकता है उनका मन भर गया हो मुझसे। कुछ भी हो सकता है होने को तो रोज एक ही बात के झगड़े होते हैं, कि तुम करती ही क्या हो,घर भी साफ नही रखती टाइम से खाना नही देती।  मैं सच मे कुछ भी नही करती क्या?
श्रद्धा मिश्रा
श्रद्धा मिश्रा
शायद नही करती। और करूँ भी क्यों? क्या इन सब का ठेका मैने ले रखा है। क्या मैं सिर्फ काम करने के लिए आई हूँ। मैं ये सोच कर तो नही आई थी या शायद यही सोचना था। मेरी भूल थी ये की मैने सपनो को सच समझ लिया।

मन व्यथित है वर्तमान से, व्याकुल है भविष्य के लिए और अतीत तो जैसे तैसे गुजार लिया था। मेरी व्याकुलता का कारण सिर्फ यही है कि माँ बाप की मर्जी के बिना शादी कर ली ये सोच कर की अतीत की कोई भी परछाई मुझ पर न पड़े। मगर क्या औरत का जन्म इसीलिए हुआ ही है, या पुरुष को औरत सिर्फ दासी के रूप में ही चाहिए। कितना कटु है मगर सत्य तो है। लोग प्यार करते है और फिर परेशान रहते है अपने प्यार को हमसफर बनाने के लिए। मगर होता क्या है जरा सोचती हूँ तो मेरी माँ ने अपने माँ बाप की मर्जी से शादी की वो भी वही करती है, जो मैं करती हूँ जब कि मैंने अपने प्यार से शादी की। शायद कृष्ण और राधा साथ रहते तो उनका प्यार भी  नार्मल ही गिना जाता उनकी मिशाल नही दी जाती प्रेम के लिए। दूर रहने से ही प्रेम बना रहता है साथ रहने से तो एक दूसरे के अवगुण ही दिखते हैं।एक समय के बाद प्यार धूमिल पड़ ही जाता है। एक दूसरे पर प्रश्न चिन्ह लग ही जाते हैं। औरत दासी ही हो जाती है। और जो न हो दासी महारानी बनी रहे वो ? उसे तो कोई पुरुष नही चाहेगा सारे संबंध क्षीण होने लगते है जब औरत अपने अधिकार समझने लगती है। जो औरत पुरुष के अनुसार कार्य न करे वो हो जाती है कुलटा।  कितना दूर है प्रेम और विवाह एक दूसरे से,और लोग दोनों को एक साथ बोलते हैं प्रेमविवाह। 

किसी को किसी से प्रेम हो न हो उनके विचार मिलें न मिलें मगर एक चीज अगर हो स्त्री में तो सम्बन्ध जन्म जन्मांतर तक चल जाएगा खामोशी । मगर ये खामोशी कब तक चलेगी दादी से माँ तक माँ से मुझ तक और मुझसे....





रचनाकार परिचय 
श्रद्धा मिश्रा
शिक्षा-जे०आर०एफ(हिंदी साहित्य)
वर्तमान-डिग्री कॉलेज में कार्यरत
पता-शान्तिपुरम,फाफामऊ, इलाहाबाद

COMMENTS

Leave a Reply: 6
  1. जी नहीं श्रद्धा जी, आप दो समय सीमाओं मेंconfuse ho rahi hain. एक समय था जब नारी समर्पित थी. जिसे आज शोषण कहा जा रहा है. एक आज है जब नारी समर्पण चाहती है. दोनों में जमीन आसमान का फर्क है.आप शायद दोनों के मध्यस्थ कडी की बात कर रही हैं इसलिए दुविधा में हैं. उस जमाने का समर्पण, जिम्मेदारी सेवा भाव आज कहाँ है. आज तो टकराव है. हम किसी से कम नहीं. आपकी कहानी या कहें लेख अब पुरानी पड़ चुकी है.

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    1. यही तो विडंबना है कि औरत समर्पण नही सम्मान चाहती है। आपने कथा का मर्म नही समझा सर्।

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    2. मर्म नहीं, आज की नारी पुराने जमाने की नारियों के समर्पण का आधार बनाकर अपनी महत्ता जताते हैं जबकी आज की नारी में समर्पण तो है ही नहीं. समानता की बात कभी करती थी नारी, कंधे से कंधा मिलाने कीपर आज कंधे से कंधा टकराती हैं और अपने बडप्पन का प्रचार करती हैं. इन्हें अबला न कहा जाए पर सुरक्षा चाहिए. समर्थ कहा जाए पर आरक्षण चाहिए. ये दो मुही बातें नारी को कहीं का नहीं छोड़ती. इसमें स्वाभिमान नहीं अभिमान नजर आता है. चित भी मेरा पट भी मेरा... कैसे चलेगा? केवल कानून.समाज को नहीं बदल सकता. मानसिकता बदलनी होगी. दोनों की.

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    3. आश्चर्य है आप जैसे मर्द आज भी हैं।

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    4. सही कहा, हैं आज भी.और रहेंगे. पाँचों उँगली घी में और सर कडाही में चाहिए आप लोगों को. या बराबर पर साथ चलिए या आरक्षण/ सहायता लीजिए. बात तारों की करती हैं तो सहना पड़ेगा यह भी.

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  2. बेनामीजून 19, 2018 10:57 pm

    सही कहा आपने श्रृद्धा जी लेकिन हमेशा गलती पुरुष की हो ऐसा जरूरी नहीं है। आजकल औरतों के लिए इतने कानून हैं। कि आप अपने आप को सबसे ज्यादा शक्तिशाली बता सकते हो।

    जवाब देंहटाएं
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