हिंदी साहित्य का इतिहास काल विभाजन

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हिंदी साहित्य का इतिहास काल विभाजन

हिन्दी साहित्य का इतिहास काल विभाजन एवं नामकरण - हिंदी साहित्य का इतिहास एक हज़ार अथवा उससे अधिक वर्षों की साहित्यिक धारा का इतिहास है . इस काल विभाग में आये इतिहास का भिन्न - भिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न रूपों में वर्गीकरण किया है और उसका भिन्न - भिन्न नामकरण किया है . इसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,डॉ.श्यामसुंदर दास  ,डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी ,डॉ.रामकुमार वर्मा ,राहुल सांकृत्यायन,मिश्रबंधु आदि विद्वान इसमें सम्मिलित है . आचार्य शुक्ल के शब्दों में - "साहित्य जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिविम्ब होता है .आदि से अंत तक  इन्ही चित्त वृतियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखलाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है." आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य के प्रमाणिक इतिहासकार हैं . इनके परवर्ती अधिकांश इतिहासकारों ने इन्ही के काल - विभाजन के मानदंड को स्वीकार किया है . इनके अनुसार हिंदी साहित्य का इतिहास चार - भागों में विभक्त किया जा सकता है - 

१. वीरगाथाकाल (आदिकाल ) - सं १०५० से १३७५ तक (सन ९९३ से सन १३१८ ई .तक)
२. भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल ) - सं १३७५ से १७०० तक ( सन १३१८ से सन १६४३ ई. तक)
३. रीतिकाल (उत्तर मध्य काल ) - सं १७०० से १९०० तक ( सन १६४३ से सन १८४३ तक )
४. आधुनिक काल ( गद्य काल ) - सं १९०० से अब तक (सन १८४३ से अब तक )


हिंदी साहित्य  काल विभाजन एवं नामकरण का आधार - 

शुक्ल जी का मत है कि जिस काल खंड के भीतर किसी विशेष प्रकार की रचनावों की अधिकता दिखलाई पड़े उसका नामकरण उन रचनाओं में निहित मुख्य प्रवृति के आधार पर किया जाय . प्रत्येक काल का एक प्रधान लक्षण निर्धारित किया जा सकता है . शुक्ल जी के अनुसार ग्रंथों की प्रसिद्धि काल - निर्धारण में मुख्य निभाती है . 
शुक्ल जी का यह काल -विभाजन तथा नामकरण बहुत कुछ वैज्ञानिक एवं तर्कसम्मत माना जाता है जबकि उनके पहले कई विद्यनों ने इस दिशा में अथक प्रयास किया ,लेकिन उनकी मान्यता उतनी सबल नहीं दिखाई पड़ी . सर्वप्रथम प्रांसीसी विद्वान गार्सा दा तासी ,फिर डॉ. ग्रियसन ,शिवसिंह सेंगर ,मिश्र बन्धु आदि ने इस क्षेत्र में अपना अपना प्रयास किया, लेकिन उसमें शुक्ल जी का विभाजन अधिक तर्कयुक्त ,वैज्ञानिक तथा सबल आधार का था . शुक्ल जी के बाद डॉ.श्यामसुंदर दास ,डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी ,डॉ.रामकुमार वर्मा ,डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि ने शुक्ल जी के नामकरण और काल विभाजन को स्वीकार करते हुए रीतिकाल को श्रृंगार काल कहा है .अंततः हिंदी साहित्य के इतिहास का काल - विभाजन तथा नामकरण इस तरह किया जा सकता है - 

विविध काल की रचनाओं की विशेष प्रवृति के अनुसार ही इसका नामकरण किया गया है.परन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि एक काल में दूसरी प्रवृति की रचना होती ही नहीं थी . यदि हम भक्तिकाल या रीतिकाल को लें तो उसमें वीर रस के अनेक काव्य मिलेंगे जिनमें वीर राजाओं की प्रशंशा उसी ढंग से की गयी होगी जिस ढंग की वीरगाथाकाल में थी . परन्तु ऐसे काव्यों की प्रवृति यहाँ शिथिल और न्यून होगी . इसी तरह आदिकाल ( वीरगाथाकाल ) में भी भक्तिपरक तथा रीतिकाल विषयक सामग्री भरपूर मिलती है . इन सबका क्रमानुसार परिचय नीचे  दिया गया है - 

1. वीरगाथाकाल 
२. भक्तिकाल - निगुण भक्तिधारा ( ज्ञानमार्गी शाखा , प्रेम मार्गी शाखा ), सगुण भक्तिधारा ( राम भक्तिधारा ,कृष्ण भक्तिधारा ) 
३. रीतिकाल - रीतिबद्ध काव्य , रीतिमुक्त काव्य . 
४. आधुनिक काल - भारतेंदु युग , छायावादी युग , प्रगतिवादी युग ,प्रयोगवाद , नयी कविता 




१. वीरगाथा काल - 

आचार्य शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को वीरगाथाकाल ने नाम से संबोधित किया है . इस काल के भीतर इन्होने दो प्रकार की रचनाएं बताई - अपभ्रंश की और देशज भाषा को . अपभ्रंश पुस्तकों में विजयपाल रासो ,हम्मीर रासो ,कीर्तिलता और कीर्तिपताका मात्र चार साहित्यिक रचनाएं . इनके अतिरिक्त देशज भाषा की आठ कृतियों का उल्लेख किया है . खुम्मान रासो ,बीसलदेव रासो ,पृथ्वीराज रासो ,जयचंद प्रकाश , जय मयंक जयचन्द्रिका ,परमाल रासो ,खुसरों की पहेलियाँ और विद्यापति पदावली .इनमें से पहली ६ कृतियाँ वीर गाथा से सम्बन्ध रखती है और पिछली दो स्वतंत्र हैं . इन्ही पुस्तकों के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल को वीरगाथाकाल कहा है . परन्तु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इनके काल - विभाजन और नामकरण से सहमत नहीं है . आचार्य शुक्ल ने जहाँ वीरगाथाकाल की सीमा को संवत १०५० से १३७५ माना है वहाँ आचार्य द्विवेदी जी ने  इस काल की सीमा सातवीं शताब्दी के मध्य से मानते हैं . जिन रचनाओं को शुक्ल जी ने असाहित्यिक माना था ,उनमें भी द्विवेदी जी साहित्य का स्रोत खोजकर इस काल का नाम आदि बताते हैं . 


२. भक्तिकाल - 

हिंदी साहित्य के इस काल को कुछ लोग पूर्व मध्यकाल और कुछ लोग धार्मिक काल कहते हैं , परन्तु धर्म इस काल को कोई प्रवृति नहीं है .इस काल की मूल रूप से तीन प्रवृतियाँ हैं - ज्ञानमार्गी ,प्रेममार्गी ,भक्तिमूलक . इनमें भक्ति - भावना प्रमुख प्रवृति हैं . इसकों सगुण और निर्गुण दो काव्य धाराओं में बाँटकर प्रत्येक के दो विभाग किये गए हैं .सगुण धारा में रामाश्रयी तथा कृष्णाश्रयी शाखा और निर्गुण में ज्ञान्श्रायी तथा प्रेमाश्रयी शाखा . राम के चरित्र करने वाले कवियों को रामाश्रयी के अंतर्गत तथा श्रीकृष्ण के चरित्र करने वाले कवियों को कृष्णाश्रयी शाखा के अंतर्गत माना जाता है . प्रथम शाखा में तुलसीदास और दूसरी शाखा में नन्द दास ,सूरदास ,मीरा ,रहीम आदि प्रमुख है . निर्गुण धारा में प्रेमाश्रयी शाखा के अंतर्गत जायसी ,कुतुबन ,मंझन आदि प्रसिद्ध है तथा ज्ञानाश्रयी शाखा में कबीरदास ,मलूकदास ,पल्टूदास ,रैदास आदि प्रमुख हैं . भक्तिकाल की रचनाएँ संख्या तथा गुण की दृष्टि से बेजोड़ हैं . साहित्यिक विशेश्तावों के कारण इस काल के इतिहास को स्वर्णकाल कहा जाता है . 

३. रीतिकाल - 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने इस काल में रीति ग्रंथों ,रस अलंकार ,ध्वनि की मूल प्रवृति के कारण इस काल को रीतिकाल कहा है . इस काल की प्रवृति श्रृंगारिकता से भरपूर होने के कारण आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल कहना उचित मानते हैं . किन्तु इन नामों में रीतिकाल अधिक प्रचलित और मानी हैं . इस काल के प्रायः सभी कवि राजाओं के आश्रित कवि थे . इनका उदेश्य आश्रयदाताओं की प्रशंसा अथवा मनोरजन करना मुख्य था . समाज में विलासिता का बोलबाला होने के कारण काव्यों में श्रृंगारिकता सीमा को लांघ गयी . राधा - कृष्ण की प्रेमलीला के नाम पर घोर अश्लील हाव - भाव ,विलास आदि का वर्णन किया गया . युगल छवि की भक्ति और उपासना तो बहाना मात्र थी . इस काल में भूषण ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने श्रृंगार रस को छोड़कर वीर रस में कविताएँ लिखी है . 

४. आधुनिक काल - 

हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल का विशेष स्थान है . शुक्ल इसे गद्याकाल कहते हैं . इनके अनुसार गद्य का अभिर्वाव इस काल की सबसे प्रधान घटना है . कहने का तात्पर्य यह है कि इसी काल में साहित्य की गद्य विधा का सम्यक विकास हुआ और वह गद्य खड़ीबोली में लिखा गया . इस युग में काव्य में अतिरिक्त उपन्यास ,कहानी ,निबंध ,समालोचना ,नाटक आदि अनेक गद्य विधावों का प्रणयन हुआ है . इस काल में गद्य में समक्ष पद्य साहित्य दब - सा गया है .आज की कविता भी गद्य से प्रभावित है .आचार्य शुक्ल ने गद्य काल के इतिहास को तीन उत्थान कालों में विभक्त किया है यथा भारतेंदु युग ,द्वेदी युग तथा छायावादी युग . यदि भारतेंदु विकास का युग है तो द्ववेदी युग का परिस्कार का छायावादी युग विकास का चरम उत्कर्ष काल है . काव्य के विकास की दृष्टि से आधुनिक काल को भी अनेक युगों में विभाजित किया गया है - भारतेंदु ,द्वेदी युग ,छायावादी युग ,प्रगति युग, प्रयोगवाद युग तथा नयी कविता . 


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COMMENTS

Leave a Reply: 25
  1. Kya aap Hindi sahiyya Ke Kal vibhajan pr conclusion de skte hai

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  2. प्रशंसनीय प्रस्तुति

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  3. ये कुछ point पाढ़ kar mujhe bahut achha laga.. Or samjh me bhi aaya..

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  4. Thank you for above articles i don't have hindi 2nd so i often used to study hindi kunj

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  5. प्रत्येक काल की विशेषताएं एवं कवियों के ना
    भी अपडेट कर दीजिए 🤗🤗

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