तड़ी-पार

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मुझे ऐसा लग रहा है कि उसने अपना हाथ बढ़ाकर मेरे चेहरे से मेरा मुखौटा उतार दिया है। अब वहाँ कोई चमड़ी, कोई मांस नहीं। वहाँ सिर्फ़ एक खोपड़ी है। ऐसा भी लगता है कि बदन पर कोई कपड़ा नहीं है। न चमड़ी, न माँस है। मैं न सिर्फ़ नंगा हूँ, पर जैसे एक जीता जागता मुर्दा हूँ

तड़ी-पार

लेखक:मोहन कल्पना
अनुवाद: देवी नागरानी 
मुझे ऐसा लग रहा है कि उसने अपना हाथ बढ़ाकर मेरे चेहरे से मेरा मुखौटा उतार दिया है। अब वहाँ कोई चमड़ी, कोई मांस नहीं। वहाँ सिर्फ़ एक खोपड़ी है। ऐसा भी लगता है कि बदन पर कोई कपड़ा नहीं है। न चमड़ी, न माँस है। मैं न सिर्फ़ नंगा हूँ, पर जैसे एक जीता जागता मुर्दा हूँ। एक हड्डियों का ढाँचा हूँ, जिसके साथ मेरी चेतना, मेरा वजूद जुड़ा हुआ है।
मैं एक दुकानदार हूँ। मेरी एक होटल है। सूरज डूबता है और होटल खुलता है, सूरज चढ़ता है और होटल बंद हो जाता है। सामने म्यूनिसिपल नाका और बाहर नैशनल हाइवे है। सारी रात रोशनी और लोगों का आना-जाना जारी है।
यहाँ ड्राइवर, क्लीनर और आते-जाते लोग चाय पीते, डबलरोटी, बिस्कुट खाते हैं। कुछ अंदर जाकर चुस्की भी भर आते हैं। कहते हैं, ‘वाह साईं सिंधी, चाय नहीं अफ़ीम का प्याला है। पूरे हिंदुस्तान में ऐसी चाय कहीं न मिली।’ बादशाह चाय, लश्करी चाय, हिंदू चाय, मुस्लिम चाय, इस सिंधी चाय के सामने कुछ नहीं है। मैं चाय में खसखस डालकर उनकी जेबें काटता हूँ।
मोहन कल्पना
मोहन कल्पना
मगर आज मेरा तमाम वजूद मुझसे छीना गया है या वजूद मेरा क़ायम है, बाक़ी पूरा शरीर छीना गया है और एक हड्डियों का ढाँचा (अस्थिपंजर) उस वजूद से जुड़ा हुआ है। अब उसे कोई जलाए या जमीन में गाड़ दे, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उस बदमाश ने साबित कर दिया है कि मैं कोई मिस्र का मकबरा, कोई मोहजोदड़ो हूँ और अब मुझे यूँ लगता है कि मैं वही हड्डियों का ढाँचा हूँ, जिसे दफ़नाने के लिए कोई धरती नसीब न होगी।
वसंत, सितारा का दादा है। उसने तीन ऐसे गुनाह किए कि उसे चैप्टर केस में फँसाकर तड़ी पार किया गया है और वसंत ने उल्हासनगर में पनाह ली है।
होटल में कभी गाली-गलौच, मुक्केबाजी होती है, तो मैं शटर नीचे करता, पर वसंत दादा के बाद मुझे उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। वह पीछे शिव मंदिर के ढके आँगन में सोता है, जहाँ रात को उसका धंधा चलता है। सुबह को कहता-‘सिंधी साईं, चाय दो कप “
गुज़रे कई दिनों से उसका धंधा बंद है, कारण-नया इंस्पेक्टर सख़्त है। अक्सर इस शहर में सख़्त इंस्पेक्टर आते हैं और तीन सालों के तजुर्बे के बाद नर्म बनकर तबादले के तहत चले जाते हैं।
मैंने दुकान पर कुछ इस तरह के बोर्ड लगाए हैं-‘आज नक़द-कल उधार’, ‘उधार मुहब्बत की कतरनी है’, ‘नक़द यहाँ, उधार अगली दुकान पर।’ मगर वसंत अनपढ़ है। उसने हफ़्ते-भर से पैसे नहीं दिए हैं, इसलिए आज मैंने उससे कुछ कहा।
भीतर पीले बल्बों की रोशनी और कोनों पर लटकते जाले, कुछ देवताओं एवं फ़िल्मी अदाकारों के फ़ोटो, बाहर प्रभात की गुलाबी रोशनी।
वह आया और कहने लगा-‘सिंधी साईं, दो कप चाय।’
मैंने कहा-‘भाई पहला हिसाब चुकता करो तो चाय दूँ।’
मैंने देखा कि जब दर्द-भरे चेहरे पर मुस्कान बिखरती है, तो वह बहुत रमणीय लगती है।
मुस्कराते कहा-‘हरामी इतना कमाते हो, गणपति की तरह पेट बाहर निकल आया है, पर पैसों से मोह नहीं निकला है। ऊपर तो ख़ाली हाथ जाओगे।’
मैंने भी कहा-‘हरामी होगे तुम, तुम्हारा बाप। हम ऊपर की नहीं सोचते। सब-कुछ यहाँ के लिए चाहिए। मगर तुम बेशरम, तड़ी-पार...’
मैं समझा कि झगड़ा होगा, पर वह और मुस्कराया, जैसे आपरेशन थियेटर में मेरे शरीर और आत्मा को अलग करना था। जैसे मुझे अपना असली चेहरा दिखाना था, जो मेरे पास नहीं था। फक़त एक खोपड़ी थी। आँखों में ख़ालीपन, सिर ख़ाली। दाँत सलामत।
कहा-‘सिंधी बाबू! मैं तो फक़त थोड़े समय के लिए तड़ी पार हूँ- मगर तुम्हें तो सिंध वतन ने हमेशा के लिए तड़ी पार किया है।’



लेखक परिचय 
मोहन कल्पना (१९३०-१९९२) 
जन्म: सिंध (पाकिस्तान), करीब २५० कहानियाँ प्रकाशित. सिंध एवं हिन्द के कथा साहित्य में एक अहम नाम, कहानी को एक नया मोड देकर एक नए क्षितिज तक लाने वाले लेखकों में से एक। कहानी के सिवा अन्य सिन्फ़ पर भी कलम आज़माई। कहानी सं. ४, उपन्यास - ५, कविता सं. १, समालोचना - २ एवं आत्मकथा तथा अन्य पुस्तकें प्रकाशित । कहानी में विख्यात संग्रह- ‘मोही-निर्मोही, चाँदिनी और ज़हर, फरिश्तों की दुनिया’ और ‘वह शाम’ हैं। उनके प्रमुख उपन्यास –‘लगन’ और ‘विश्वास-अविश्वास’। सिंध में भी कई पुस्तकें प्रकाशित। अ.भा.सि.बो.सा. सभा, मुम्बई द्वारा १९८३ में पुरस्कृत तथा ‘वह शाम’ कहानी संग्रह पर १९८४ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।  

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