आ: धरती कितना देती है

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आ: धरती कितना देती है 
Aah ! dharati kitna deti hai by Sumitranandan Pant


मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे 
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे , 
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी , 
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा ! 
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा , 
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला । 
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये । 

व्याख्या - पन्तजी कहते हैं कि मैंने बचपन में घरवालों से छिपाकर जमीं में कुछ पैसे इस आशा के साथ गाड दिए थे इन पैसों  से सुन्दर तथा प्र्यारे - प्यारे पेड़ उत्पन्न होंगे जिन पर चमकीले तथा चाँदी के समान सुन्दर रुपयों की सरस फसलें उगेंगी और हवा के झोंका आने पर रुपये खनकेंगे.उन रुपयों को मैं तोड़कर तोड़कर इक्कठा करूँगा और थोड़े ही दिनों में मैं मोटा सेठ बन जाऊँगा . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उस बंजर जमीन पर उनका एक भी अंकुर नहीं निकला क्योंकि उसने एक भी पैसा किया था परिणामस्वरूप उन पैसों को बो कर मैंने सेठ बनने का जो स्वप्न देखा था ,वह धरासायी हो गया . मैं हताश होकर बहुत दिनों टक इनकी प्रतीक्षा करता रहा और अपनी बाल कल्पना के पांवड़े बिछाता रहा कि कब पैसों के पेड़ उगेंगे . 

२. मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक , 
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर । 
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे , 
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था । 

व्याख्या - कवि कहता है कि पैसों को जमीं में बोने के बहुत दिनों के बाद टक वह आशा की दृष्टि से एकटक उनको देखता रहा . परन्तु उन्हें जमता नहीं न देखर उसे बड़ी निराशा हुई . अब बड़ा होने पर कवि स्वीकार करता है की उसने अनुचित बीज बोये थे . ऐसे बीजों से पेड़ उगने की आशा करना मुर्खता थी . 

३. अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे । 
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने 
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई 
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन । 
और जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये 
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर 
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की 
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर 
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे । 
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों । 

व्याख्या - कवि का विचार है कि प्रथम अर्थात पैसों के बीज बोने की घटना को बीते पचास वर्ष हो चुके हैं . उसके जीवन की अर्धशती हर्हरती हुई निकल गयी है .तब से न जाने कितनी बार बसंत तथा पतझड़ की ऋतुएँ आई और देखते -देखते बीत गयी .इसी बीच कभी ग्रीष्म ऋतु की तपन आई ,कभी वर्षा ऋतु की झड़ी लगी और कभी शरद ऋतु भी अपनीसुन्दरता लेकर जीवन में आई . कवि का कहना कि उसके जीवन में पुनः एक बार बर्ष ऋतु का आगमन हुआ ,जब काजल की तरह काले - काले बादल ह्रदय में गहरी लालसा लेकर पृथ्वी पर बरस पड़े थे ,तब कवि ने उत्सुकतावश अपने गृह - आँगन के कोने की गीली मिटटी की पर्त को उँगली से सहलाकर कुछ सेम के बीजों को मिटटी के नीचे दबा दिया था .वह कहता कि उन सेम के बीजों में बोना वैसा ही लगा जैसे उसने धरती के आँचल में मणि और माणिक्य के दानों को बो दिया था . 

४. मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को 
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन । 
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे 
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा , 
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से । 
देखा आँगन के कोने मे कई नवागत 
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है । 
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की; 
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी - 
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे 
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे 
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से । 

व्याख्या - कवि कहता है कि आँगन में सेम के बीज बोने की छोटी घटना को वह जल्द ही भूल गया . उसके लिए यह कोई महत्वपूर्ण बात भी नहीं थी कि उसे मन में याद रखा ही जाय . अतः भूलना स्वाभाविक था . लेकिन एक दिन अचानक संध्या समय अचानक आँगन में टहलते समय ,उस समय मैंने वहाँ जो दृश्य देखा ,उसे देख मैं ख़ुशी से पागल हो गया . मैंने आँगन के कोने में जहाँ सेम के बीज बोये थे ,उसमें सेम का अंकुर देखा . अतः कवि के आनंद की कोई सीमा नहीं रही . उसने देखा कि उस आँगन में अनेक नए -नए पौधे छोटे -छोटे छातों को तानकर खड़े हो गए हैं . यहाँ कवि पत्तों को छाता मान रहा है . कवि को लगता है कि जैसे वे अंडा तोड़कर निकले हुए पक्षियों के बच्चे हों जो छोटे - छोटे पंखों को फैलाकर उड़ने का पर्यंत कर रहे हों .भाव यह है कि सेम के छोटे - छोटे पौधे बढ़ने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ रहे थे . 

५. निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता- 
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले 
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में, 
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन 
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से, 
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है! 
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे 
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ, 
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे! 
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा, 
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का 
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,- 
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है! 
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे 
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर 
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से, 
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से! 
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी! 

व्याख्या - आँगन में नव -अंकुरित सेम के पौधों को कवि एकटक देखता रहा . सहसा उसे स्मरण हो आया कि उसने स्वयं कुछ दिन पूर्व यहाँ सेम के बीज धरती में गाड़ा था . उसी के फलस्वरूप छोटे - छोटे पौधों की यह सेना मेरी आँखों से सामने गर्व से भरी पड़ी है . कवि कहता है कि उसका आँगन सेम के पौधों की हरि भरी झाड़ियों से भर गया . धीरे -धीरे हरि भरी झाड़ियाँ आँगन में चारों ओर फ़ैल गयी .उनको देखने से ऐसा लगता था मानों हरे -भरे मखमल के तम्बू आँगन में तान दिए गए हो . पन्त जी ने फूलों की उपमा आकाश के तारों तथा फूल के बूटों से दी है .ल कवि का मानना है कि असंख्य लहराती हुई श्यामल लताओं से सफ़ेद पुष्पों की सुरंद्ता झाग जैसी प्रतीत हो रही है ,उन्हें देखर वह अमावश्य काले बादलों को याद करता है . कवि और हैरान हो जाता है कि जब कुछ दिन उपरान्त उन लताओं में निकली सेम की फलियाँ भी तोड़ी जाति है . 

६. कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,- 
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती! 
लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं 
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी, 
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती, 
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल 
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी! 

व्याख्या - कवि कहता है कि उसके द्वारा लगायी गयी सेम की लता में निरंतर फलियाँ लगती गयी . प्यारी -प्यारी ,ढेर की ढेर ,कुछ पतली -पतली ,कुछ चौड़ी चौड़ी असंख्य फलियों से लताएँ भर गयी . फलियों से लड़ी इन लताओं का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि उनका स्वरुप लम्बी -लम्बी उंगलियाँ तथा छोटी तलवारों जैसा लगता था अथवा इसा प्रतीत होता जैसे वे पन्ने से निर्मित सुन्दर हार हों . सेम की फलियाँ सच्चे मोती की ढेरियाँ की तरह खिली हुई थी .इस प्रकार झुण्ड की झुण्ड सेम की लटकती हुई फलियाँ ऐसी लगती थी जैसे आकाश में झिलमिलाते तारों के छोटे -छोटे समूह हो .

७. आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई, 
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के 
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई 
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने 
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !- 
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ! 
यह धरती कितना देती है! धरती माता 
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को! 
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,- 
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!

व्याख्या - कवि कहता है कि उसके द्वारा रोपी गयी सेम में इतनी अधिक निकली की सुबह शाम पास पड़ोस क एलोग खाते खाते उब गए . वह कहता है कि परिचितों अपर्चितों के बीच भी फलियाँ बाटी गयी . इनता ही नहीं ,उसके बन्धु -बान्दवों ,मित्रों मेहमानों तथा मोहल्ले भर के लोगों द्वारा भी उसके आँगन की फलियाँ जी भर कर खायी गयी . कवि धरती माता की उदारता पर प्रकाश डालता हुआ कहता है की यह धरती कितनी दाल्शाली है . यह अपने प्यारे पुत्रों  को कितना स्नेह प्रदान करती है .इस सन्दर्भ में वह अपनी लोभ की प्रवृति और पैसा बोने वाली घटना को स्मरण कर उसकी निंदा करता है . 

८. रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ। 
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है; 
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है, 
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,- 
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें 
मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ- 
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। 

व्याख्या -  पन्त जी कहते है कि सेम की फलियों को देखकर अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि धरती रत्न उपरत्न करती है इस कारण लोभ और स्वार्थ से रहित होकर हमें इसमें सच्ची ममता के बीज बोने होंगे . इससे अंकुरित ,पुष्पित और फलित ममता के दालों को हमें घर - घर पहुँचाना होगा .कवि अपनी इच्छा व्यक्त करता है कि धरती के गर्व में हमकों मनुष्य की शक्ति का बीज बोना चाहिए और उससे उत्पन्न शक्ति की फलियों को घर -घर में बात कर लोगों में समर्थ बनने का भाव भरना चाहिए . 



आ: धरती कितना देती है समरी /केन्द्रीय भाव / summary

आ: धरती कितना देती है कविता में कविवर पंत ने स्वार्थ तथा भाग्यवाद के प्रति विद्रोह तथा परिश्रम ,त्याग ,परोपकार तथा मानवता के महत्व को दर्शाया गया है।  आ : धरती कितना देती है कवि की मानवतावादी अभिव्यक्ति है।  जब मनुष्य स्वार्थ से प्रेरित होकर कोई कार्य करता है तो उसका प्रतिफल अच्छा नहीं होता किन्तु जैसे ही वह परोपकार से प्रेरित होकर कार्य संपन्न करता है उसका फल अच्छा हो जाता है।

एक बार कवि ने अपनी बालयवस्था में पृथ्वी में कुछ पैसे इस आशय से बोया था कि उनमें से रुपयों के फल लगेगें। उनका विचार था कि जिस प्रकार अन्न की खेती होती है ,उस प्रकार पैसों की भी खेती की जा सकती है।  किन्तु पैसों के पेड़ नहीं उगे और उनकी आशा पूर्ण न हो सकीय।  कुछ समय बाद अपने आँगन में सेम के कुछ बीज बोये।  कुछ ही दिनों में वे सेम के बीज फूट निकले।धीरे - धीरे सेम की लताएँ बढ़ने लगी।  अगणित सेम की फलियाँ लगी। कवि के परिवार के सभी सदस्यों ,पड़ोसियों ,परचितों ने उन फलियों को आनंद के साथ खाया।

कवि को जब धरती में पैसे बोन पर निराशा मिली थी तो उसे इस कथन को असत्य मान लिया था कि व्यक्ति जैसा बोटा है वैसा ही पाटा है।  किन्तु सेम की फलियाँ पाकर इस कथन की सत्यता का उसे ज्ञान हुआ और वह मान बैठा कि धरती अपने पुत्रों को बहुत कुछ प्रदान करती है।  वास्तव में यह धरती माता के सामान है। अपने पुत्रों के प्रति उसमे अपार स्नेह और ममता है।  अतः कवी इस निष्कर्ष पर आता है कि समस्त धरती पर प्रेम ,त्याग ,सज्जनता ,उदारता और मानवता का दाना बोना है। मानवता का विकास होगा। मनुष्य का श्रम सार्थक होगा।


आ धरती कितना देती है कविता के प्रश्न उत्तर


प्रश्न. 'आ: धरती कितना देती है' कविता में निहित संदेश को बताते हुए कविता का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर- 'हम जैसा बोएँगे वैसा पाएँगे' इस पंक्ति का अर्थ है हम जैसा करेंगे परिणाम भी वैसा ही होगा। इस पाठ में कवि यहीं कहना चाहते हैं। अपनी इसी बात को उन्होंने बचपन की एक घटना के माध्यम से व्यक्त किया है। कवि अपने बचपन में स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर भूमि में एक पैसा बोता है और ऐसा सोचता है उस बोए गए पैसे से पैसों का एक पेड़ बनेगा। उस पेड़ में पैसों के फल लगेंगे। इस प्रकार उन पैसों से कवि सेठ बन जाएगा।

सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, 
रुपयों की फलदार मधुर फसलें खनकेंगी, 
और फूल-फलकर, मैं मोटा सेठ बनूँगा।

यहाँ इन पंक्तियों में कर्म करने के पूर्व ही कवि की एक तृष्णा दिखाई देती है। इसमें कवि का स्वार्थ निहित है जिसे कवि अबोध बालक के रूप में मनुष्य की अज्ञानता को प्रदर्शित करता है। जैसे अबोध बालक किसी भी प्रकार के बीज का चुनाव कर सकता है। उसी प्रकार मनुष्य भी अज्ञानता में फँसकर पैसे रूपी लालच और तृष्णा के बीज बोता है, जो कि गलत बीज है-
 
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोए थे, 
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।
 
इतना ही नहीं इस स्वार्थ के वश में किए गए कर्म का परिणाम भी नकारात्मक ही होता है। वहीं दूसरी बार जब कवि बिना किसी लालच व स्वार्थ के सेम के बीजों को मिट्टी में दबा देता है अर्थात् बिना किसी फल की अपेक्षा से कर्म करता है।
 
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर; 
मैंने कौतूहलवश, आँगन के कोने की गीली 
तह को यों ही उँगली से सहलाकर; 
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे।
 
यहाँ दूसरी बार 50 सालों के बाद बिना किसी अपेक्षा के कवि ने सेम के बीज मिट्टी में दबा दिए। इस बार जो कर्म किया गया, उसमें किसी फल की आशा नहीं है। कविता में इस कार्य का परिणाम सबसे अलग दिखाई देता है-

देखा आँगन के कोने में कई नवागत 
छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं। 
आ: धरती कितना देती है।

यहाँ कवि को सफलता दिखाई दे रही है। वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है कि यह नए-नए अंकुरित बीज धरा से बाहर निकलकर इस प्रकार दिखाई दे रहे हैं मानो उन्होंने छाता लगा रखा है।
 
इस प्रकार कविता में जहाँ एक ओर निष्काम कर्मयोग की भावना पर बल दिया गया है वहीं दूसरी ओर मानवता का संदेश सुनाते हुए यह श्रम की प्रतिष्ठा भी करती है।
 
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं, 
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं। 

इसी प्रकार श्रम की प्रतिष्ठा में यह कहता है कि-
 
मानवता के जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ, 
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।
 
कवि इन पंक्तियों में जहाँ श्रम की प्रतिष्ठा करता है वहीं दूसरी पंक्ति में कर्म की प्रधानता का संदेश देता है। कवि यह कहता है कि जिस प्रकार के कर्म करेंगे, कर्मों का परिणाम भी उसी के अनुरूप ही होगा ।

इस प्रकार इस कविता का उद्देश्य मानवता, श्रम व कर्म के सिद्धान्तों को प्रकट करना प्रतीत होता है। इस कविता में श्रम, मानवता व कर्म को प्रतिपादित कर जनसामान्य तक इस संदेश को पहुँचाने का प्रयास किया गया है जिसमें कवि को पर्याप्त सफलता भी मिली है।
 
प्रश्न. 'नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को' यहाँ कवि किसके महत्व को समझने की बात कर रहा है और उसे यह महत्व कब तथा कैसे समझ में आता है?
 
उत्तर - प्रस्तुत कथन में कवि धरती के महत्व के बारे में बता रहा है। कवि यह बताता है कि जब वह छोटा था उसमें बचपन था इसलिए उसने प्रारम्भ में धरती को बंध्या कह दिया, क्योंकि वह बचपन में अज्ञानी था। इसलिए धरती के महत्व को नहीं जानता था। वह स्वार्थ के वशीभूत होकर कार्य करता है।
 
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा, 
बंध्या मिट्टी ने न एक ही पैसा उगला,
 
वही कवि अब अनजाने में ही बिना कुछ महत्व दिए सेम के बीज को मणि-माणिक की तरह बाँध देता है। कवि इस घटना को तो भूल भी जाता है। वह उसे कोई महत्व ही नहीं देता। सेम के बीज की वह रोपाई कोई ऐसी घटना नहीं थी जिसे कवि याद रखता। लेकिन कवि ने सेम के बीज को बोते समय किसी स्वार्थ की कल्पना नहीं की। इस प्रकार सेम को बोने का कर्म बिना फल की आशा से होता है।
 
कवि को सेम के उस बीज को अंकुरित देखकर बहुत ही खुशी की अनुभूति होती है । कवि सेम के उन नवागत अंकुरों को देखकर उन्हें अनेक उपमानों से. सजा देता है। कभी वह उसे छाता ताने मेहमान कहता है तो कभी उनके पल्लवों को विजय पताका समझता है। समय आगे बढ़ता जाता है। उस सेम की बेल में अनेक पत्तियाँ उग जाती हैं और वह सेम की बेल बन जाती है। धीरे-धीरे उस लता में फूल लग जाते हैं। उन फूलों को देख कवि अनेक उपमाएँ देता है और धीरे-धीरे उस महत्व को समझने लगता है।
 
सुंदर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से, 
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों से।
 
इसके बाद कवि यह देखता है कि सेम की उन लताओं में जब फलियाँ लग जाती हैं तो उन्हें देखकर कवि को यह पता चलता है कि धरती अपने प्यारे पुत्रों के लिए कितना त्याग करती है। यह सब देख कर ही कवि धरती के महत्व के बारे में जान जाता है। वह यह जान जाता है कि लोभ और स्वार्थ में पैसे बोकर गलत बीज का चुनाव किया। आज सेम की फलियों को देखकर उसे यह आभास हो जाता है और वह जान जाता है कि धरती का महत्व क्या है।

प्रश्न . बचपन में कवि ने पृथ्वी में क्या बोया था और वर्षों के बाद बड़े होकर क्या बोया था? दोनों स्थितियों का क्या परिणाम हुआ ? कवि ने परिश्रम के महत्व को कब समझा ?
 
उत्तर- बचपन में कवि अनजान और अबोध था। उसने सोचा कि पृथ्वी में जो बोते हैं वह कुछ दिन बाद बहुलता में उग आता है। अतः उसने चुपचाप बिना किसी को बताये जमीन खोदकर पैसे गाढ़ दिये और सोचने लगा कि कुछ समय बाद पैसों के पेड़ उगेंगे और उन पर ढेर सारे पैसे लगेंगे, तब मैं धनी सेठ बन जाऊँगा। सभी सुख मुझे प्राप्त हो जायेंगे, लेकिन जब अधिक दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद भी कुछ नहीं उगा तो उसे बड़ी निराशा हुई, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि उसने गलत बीज बोये थे। यह सब उसने लोभ, लालच और स्वार्थवश किया था इसलिए निष्फल हुआ।
 
उसके बाद पचास वर्ष ऐसे ही जल्दी से बीत गये। उनमें कई बसंत, पतझड़, वर्षा, ग्रीष्म, शरद और हेमन्त ऋतुएँ निकल गईं। फिर एक दिन काले बादल आये और बरसने लगे। कवि ने कौतूहल वश अपने आँगन के एक कोने में जमीन में खोदकर सेम के कुछ बीज दबा दिये । बिन कुछ सोचे हुए उसने ऐसा किया और इस बात को भूल गया क्योंकि यह कोई ऐसी महत्वपूर्ण बात नहीं थी जिसे याद रखा जाये। एक दिन जब वह अपने आँगन में टहल रहा था तो उसने अपने आँगन में सेम के अंकुरों को उगते हुए देखा तो आश्चर्य और हर्ष से वह उछल पड़ा। उसने देखा कि हरे-भरे कई अंकुर एक बेल से फूट निकले हैं। कवि सोचता है कि उनकी पत्तियों को उनकी विजय पताका कहे या उनके हाथ की खुली हथेलियाँ । कवि को वह छोटी-छोटी पत्तियाँ ऐसी लग रही थीं जैसे कोई चिड़िया का बच्चा अण्डा तोड़कर बाहर निकला हो और पंख फैलाकर उड़ना चाहता हो। वह निर्निमेष उनको देखता रहा । फिर उसके दिमाग में आया कि कुछ समय पूर्व उसने अपने आँगन में सेम के कुछ बीज बोये थे। यह उन्हीं बीजों की फसल है। तभी कवि ने सोचा कि पृथ्वी हमको कितना कुछ देती है । जो हम बोते हैं उसका हजारों गुना करके हमें लौटा देती है। वह हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करती है। हम धरती का उचित उपयोग करें तो हम बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। उन्नत भारत की लालसा में धरती माता अपना भरपूर सहयोग करती है। मनुष्य अपने परिश्रम से इस धरती को रत्नगर्भा बना देता है। परिश्रम न करने की अवस्था में उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
 
अपने जीवन के पचास वर्ष निकल जाने के बाद जिसमें कई बसंत, पतझड़, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमन्त ऋतुएँ बीत गईं, तब कवि ने परिश्रम के महत्व को समझा। बचपन में जब उसने लोभ, लालच और स्वार्थ के वश में होकर पैसे जमीन में बोये थे, तब उसे यह ज्ञान नहीं था कि धरती में कौन-से बीज बोये जाते हैं और कौन से नहीं। अब जब उसने अपने आँगन में सेम के बीच बोये तो वे नई फसल के रूप में उत्पन्न हुए। उनके अंकुर अत्यन्त सुन्दर और आह्लादकारी प्रतीत हो रहे थे। कवि उन्हें देखकर प्रसन्नता से नाच उठा। उसका कुछ समय पूर्व किया गया थोड़ा-सा परिश्रम आज पौधे के रूप में उसके सामने उपस्थित हुआ। समय के साथ कवि यह समझ गया है कि पृथ्वी रत्नों को जन्म देने वाली है। इसमें पैसों के बीज बोकर धन उत्पन्न नहीं किया जा सकता। इसमें तो ममता के बीच बोने चाहिए तभी इसमें मानवता की सुनहरी फसलें उगेंगी। यहाँ कवि ने मनुष्य के कल्याण की बात कही है। जब वह परस्पर मिलकर भाईचारा, सद्भावना, प्रेम, सहयोग, ममता और सहानुभूति अपनायेगा तभी उसका और उसके देश का कल्याण होगा। इन सभी मानवीय गुणों को अपनाने से पृथ्वी पर सर्वत्र सुख और शान्ति स्थापित होगी। कवि की कामना है कि हम सब परस्पर मिलकर रहें और देश के विकास के लिए भूमि का सदुपयोग करें। 'जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे' का सिद्धान्त शत-प्रतिशत सही है। यदि हम गलत बीज का रोपण करते हैं तो गलत (नुकसानदायक) पौधा उत्पन्न होगा इसलिए अच्छे पौधे के लिए तो अच्छा बीज ही बोना होगा। गलत बीज के लिए ही कहा गया है, “बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होड़।” इसीलिए कवि चाहता है कि हम परस्पर सद्व्यवहार करें तो हमें भी सद्व्यवहार ही मिलेगा। 'अच्छा कर अच्छा पा के सिद्धान्त से सर्वत्र सुख-सम्पन्नता दिखाई देगी।


आ: धरती कितना देती है का सन्देश 

अपने जीवन की एक छोटी सी घटना जिसमें कवि पैसा बोकर पैसों कजा फल चाहता है ,के द्वारा उसने एक बहुत बड़ा जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है।  मनुष्य सीमा  भौतिक बन गया है। धन के लाभ में पढ़कर उसने उच्च मानवीय गुणों को भुला दिया है।  अर्थमय जीवन में आज सभी चाहते हैं कि हमारे घर में पैसों का पेड़ लग जाय और हम बहुत बड़े सेठ बन जाए। बालक कवि भी सामान्य बीजों की तरह पैसों का बीज बोकर यह आशा करता है कि उसमें पैसों के असंख्य फल लगेंगे। बालक ने भले ही अज्ञानता में ऐसा किया हो परन्तु यह बात वर्तमान युग के सभी लोगों के सत्य सिद्ध होती है।  यह सम्पूर्ण युग की अभिलाषा है।  इस प्रकार कवि ने पैसे बोन की बात से समाज के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है।  वह मानता है कि सभी गुण धन में है। इसी कारण सभी गुणों को मानव इस पर बलि कर देता है।  लेखक इस दृषिकोण के प्रति चिंता व्यक्त करता है और कहता है कि पैसा स्वार्थ और लोभ का प्रतिक है। इससे समाज और राष्ट्र का कल्याण सम्भव नहीं है।



कविवर पंत ने सेम के बीज के अंकुरित होने से उसमें पत्तियों लगने तक की अवस्थ्ता का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है।  कवि आँगन में सेम के बीज बोन की घटना को भूल गया था कि सहसा उसने एक दिन वहाँ सेम के कई अंकुर निकलते हुए देखा।  वह आश्चर्य और हर्ष से उछल पड़ा. चारों ओर सेम के अंकुर उगे थे।  फिर कवि ने देखा कि सेम के अंकुर नन्हे - नन्हे पौधे बन गए थे।  उनमें छोटी -छोटी पत्तियां ऊपरी भाग में इस प्रकार फैली थी मानों वे छाता हों।  इन्हे कवि विजय पताका कहते हैं क्योंकिउ जीवन की घोषणा कर रहा था।  सेम के छोटे -छोटे पौधे हथेलियां की तरह बनने लगे थे।  उनके उल्लास को देखने से ऐसा लगत है कि वे डिम्ब को तोड़कर बाहर निकलने वाले पेक्षियों के बच्चे हैं।  ये बच्चे अपने पंख और विकसित हुए और असंख्य पत्तियों से भर गए। कालांतर में लताएँ झाइदों की तरह बन गयी। हरी -भरी लताओं वाली सेमें मखमली तब्बू की तरह शोभयान होने लगी।  कालांतर में वे लताएँ लहलहटी हुई चारों ओर आँगन में फ़ैल गयी, देखते -देखते आँगन की टाटी का सहारा लेकर वे ऊपर चढ़ गयी. अब वे हरी भरी लताएँ ऐसी लगती मानों हरे भरे झरने ऊपर की ओर फूट पड़े हो।


MCQ Questions with Answers Dharti Kitna Deti Hai


बहुविकल्पीय प्रश्न उत्तर 
प्र. १ कवि ने बचपन में क्या बोये थे ?
a. सेम के बीज 
b. मटर के बीज 
c. गन्ना के बीज 
d. पैसे बोये थे 

उ. d. पैसे बोये थे . 

२. छाता ताने कौन खड़ा था ?
a. दादी जी खड़ी थी . 
b. कवि का मित्र 
c. सेम के पौधे छाता ताने खड़े थे . 
d. ग्राम के लोग खड़े थे . 

उ. c. सेम के पौधे छाता ताने खड़े थे . 

३. पैसे बोकर कवि ने क्या कल्पना की .
a. नायक बनेगा .
b. शहर घूमने जाएगा . 
c. वह एक मोटा सेठ बनेगा . 
d. वह पढ़ लिखकर आगे बढेगा. 

उ. c. वह एक मोटा सेठ बनेगा. 

४. कवि ने सेम की फलियाँ किस किस को बाँटी ?
a. खुद खायी .
b. परिवार के लोगों को. 
c. मित्र ,अभ्यागत तथा पडोसी को .
d. उपरोक्त में से किसी को नहीं .

उ. c. मित्र ,अभ्यागत तथा पडोसी . 

५. कवि किसके वश में आकर पैसे बोया था ?
a. क्रोध 
b. प्रेम 
c. ईर्ष्या 
d. लोभ 

उ.d. लोभ. 

६. कवि पैसे के माध्यम से क्या सन्देश देना चाहता है ?
a. लालच - लोभ 
b. प्रेम 
c. परोपकार 
d. सहकारिता 

उ.a. लालच - लोभ 

७. सेम का बीज किसका प्रतीक है ?
a. सहकारिता 
b. समानता ,ममता व क्षमता 
c. समझदारी 
d. ईर्ष्या 

उ. b. समानता ,ममता व क्षमता . 

8. पंतजी किस धारा के कवि हैं ?
a. प्रगतिवादी 
b. छायावादी 
c. युगधारा 
d. आधुनिकवाद 

उ.b. छायावादी 

९. पंतजी की प्रसिद्ध रचना का नाम बताओ .
a. यामिनी 
b. युगधारा 
c. प्रिय प्रवास 
d. लोकायतन 

उ.d. लोकायतन 

१०. कवि पंतजी को किस प्रकार का कवि कहा जाता है ?
a. राष्ट्रवादी 
b. प्रगतिशील 
c. प्रकृति का सुकुमार कवि 
d. हालावादी 

उ.c. प्रकृति का सुकुमार कवि 

11. "आ: धरती कितना देती है " कविता में कवि ने क्या सन्देश दिया है ?
a. यह धरती कितना देती है .
b. आपस में एक रहें . 
c. हम जैसे बोयेंगे वैसा ही पायेंगे . 
d. और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा. 

उ. c. हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे. 

१२.  सुमित्रानंदन पन्त की काव्य भाषा कैसी है ?
a. पंतजी की काव्य भाषा पर गाँधी , अरविन्द ,मार्क्स  का प्रभाव है . 
b. उपनिषद 
c. वीर रस का 
d. भक्ति रस का 

उ. a. पंतजी की काव्य भाषा पर गाँधी , अरविन्द ,मार्क्स  का प्रभाव है . 

१३.कवि किसे देखकर हर्ष विमूढ़ हो गया ?
a. बच्चों को देखकर 
b. घर आये मेहमान को . 
c. पड़ोसी को . 
d. आँगन में छोटे - छोटे सेम के नन्हे पौधे. 

उ.d. आँगन में छोटे -छोटे सेम के नन्हे पौधे. 

१४. कवि धरती पर किसकी फसल उगाना चाहता है ?
a. सद्भावना 
b. समानता की 
c. समता ,ममता व भाईचारा की 
d. उपरोक्त में कोई नहीं . 

उ.c. समता ,ममता व भाईचारा की .

१५. रत्न प्रवासिनी किसे कहा गया है ?
a. आकाश को .
b. भाईचारा को 
c. धरती माता को .
d. उपरोक्त में से कोई नहीं .

उ.c. धरती माता को 

१६. कवि ने पाठ में कितने ऋतुओं का वर्णन किया है ?

a. २. ऋतु
b. ३.ऋतु
c.४. ऋतु
d. ६ ऋतु

उ. d. ६ ऋतु

१७. "सुन्दर लगते थे मावस के हंसमुख नभ से - यहाँ मावस का क्या अर्थ है ?
a. पावस 
b. अमावास 
c. मधुमास 
d. इनमें से कोई नहीं .

उ. b. अमावास 

१८. कविता लिखते समय भारतमाता की संतानों की संख्या कितनी थी ?
a. २० करोड़ 
b. ३० करोड़ 
c. ४० करोड़ 
d. ७० करोड़ 

उ. c. ४० करोड़ 


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COMMENTS

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  1. always helps me for my hindi exams , i love this site

    जवाब देंहटाएं
  2. पेड़ किसी से नहीं पूछता
    कहो,कहाँ से आए?
    वह तो बस देता है छाया
    फिर जो चाहे सुस्ताए।
    सारांश क्या हैं?

    जवाब देंहटाएं
  3. achi tarah se explain kiya gaya hain

    जवाब देंहटाएं
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