सत्यम शिवम सुन्दरम ही साहित्य का सार

SHARE:

साहित्य के संबंध में प्रेमचंद ने लिखा है ,“मेरे विचार से साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना हैं चाहे वह निबंध के रूप में, चाहे कहानियाँ अथवा काब्य के रूप में। उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।“

सत्यम शिवम सुन्दरम ही साहित्य का सार

सिमैन और रयान के अनुसार  "साहित्य" खोज का एक मार्ग है जिस पर बहुत  यात्रा की जाती है, हालांकि मंजिल पर अभी तक कोई नहीं पहुंचा है। साहित्य के सार पर बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि साहित्य क्या है? हम इसे क्यों पढ़ते हैं ? साहित्य महत्वपूर्ण क्यों है?
क्या लिखित साहित्य लिखने  या बोली  जाने वाली सामग्री का वर्णन करने के लिए एक शब्द है। मोटे तौर पर,
साहित्य
साहित्य
"साहित्य" का प्रयोग रचनात्मक लेखन से अधिक तकनीकी या वैज्ञानिक कार्यों के लिए कुछ भी वर्णन करने के लिए किया जाता है, लेकिन कविता, नाटक, कल्पित कथा, और गैर-कथाओं के कार्यों सहित रचनात्मक कल्पना के कामों को संदर्भित करने के लिए शब्द का सबसे अधिक उपयोग किया जाता है। साहित्य का अर्थ है लिखित रूपरेखाओं का एक तंत्र । इसकी उत्पत्ति लैटिन मूल लिटरातुरा (लिटटाटुरा) से हुई है जिसका अर्थ है पत्र या लिखावट। इसे फिक्शन / गैर-कल्पित, कविता / गद्य, उपन्यास, लघु कथा, नाटक जैसे कई रूपों में वर्गीकृत किया गया है। यह एक कला रूप माना जाता है जो बौद्धिक मूल्य धारण करती है । हम साहित्य क्यों पढ़ते हैं? इसके उत्तर बहुत विस्तृत है लेकिन अगर हम इन सभी मान्यताओं का एकीकरण करें तो हम पाएंगे कि साहित्य भाषा ,संस्कृति ,समाज और व्यक्ति को उनके मूल स्वरुप से विकसित स्वरुप तक ले जाने वाला सेतु है। साहित्य  संस्कृति परंपरा धर्म और व्यक्ति को पहचान देता है। साहित्य ऐतिहासिक या सांस्कृतिक कलाकृति से ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि ये हमें स्वयं एवं अनुभूत और प्रत्यानुभूत जगत से परिचित कराता है। साहित्य हमें हकीकत से जोड़ता है, यह केवल इसका वर्णन नहीं करता है वरन यह आवश्यक दक्षताओं को समृद्ध करता है जिनकी हमें  दैनिक जीवन में आवश्यकता होती है। साहित्य हमारे रेगिस्तान बने जीवन को अपनी शीतल फुहार से आध्यात्मिकता और संस्कृति रुपी आल्हाद एवं आनंद प्रदान करता है।
सभ्यता और संस्कृति के इस विचलन भरे समय में एक बार फिर इस पाठ को याद करने की जरूरत है कि मनुष्य के हर्ष और विषाद दोनों का ही संवेदनात्मक साक्षी साहित्य होता है। साहित्य सृष्टि ,सभ्यता और संस्कृति का संवेदनात्मक, जीवंत और प्रामाणिक स्मृतिकोश होता है। साहित्यकार का सर्व प्रथम धर्म समकालीन युग चेतना को ऐतिहासिक चेतना से जोड़कर उसका प्रामाणिक, कलात्मक एवं विवेकपूर्ण बोध कराना है।साहित्य मानवीय एवं सामाजिक संबंधों का सूक्ष्म विश्लेषण कर घनिष्ठ संवेदन को पाठकों को प्रत्यर्पित कर स्वयं एवं साहित्यकार को चिरस्थायी बना देता है। साहित्य को कालजयी होने के लिए युगीन जनचेतना से उसका गहरा संबंध अनिवार्य है।
साहित्य के संबंध में प्रेमचंद ने लिखा है ,“मेरे विचार से साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना हैं चाहे वह निबंध के रूप में, चाहे कहानियाँ अथवा काब्य के रूप में। उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।“ साहित्यकारों  की सर्जनात्मकता के लिए व्यापक विश्व-दृष्टि अधिक मूल्यवान होती है क्योंकि जन-लेखन का उद्देश्य, वर्ग-स्वार्थ के कारण विचारधारा से असहमत लोगों को भी भावधारा की संवेदनात्मकता की सामाजिक सहमति से जोड़ना होता है। साहित्य वही जिसमे सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो,उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो-जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करने की क्षमता हो। द्वंद्व जीवन का लक्षण है और सृजन जीवन का प्रारंभ है। इसलिए सृजन में भी अनिवार्यत: द्वंद्व का महत्व है।साहित्य का सार भावना और बुद्धि के बीच तथा  जीवन और मृत्यु के बीच युद्ध है। जब साहित्य बहुत बौद्धिक हो जाता है तब वह भावनाओं  को अनदेखा करना शुरू कर देता है और इसमें निहित भावनाएं  निर्बाध, मूर्खतापूर्ण और कथ्य के  बिना हो जाती है।
साहित्य व्यक्ति के मन में समष्टि के स्वप्न को अध्यारोपित करता है और समष्टि के मन में व्यक्ति की आकांक्षाओं के लिए समुचित संदेश  रचता है। शेक्सपियर के नाटक अनुपम है; पर उनमें जीवन की समस्याओं का कोई समाधान नहीं। आज के नाटकों को उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है। कथा साहित्य में भी विकास हुआ। उसकी शैली पूर्ण रूपेण परिवर्तित हो गयी। उपन्यासों तथा आख्यायिकाओं की कला हमने पश्चिम से ही सीखी। ‘अलिफ लैला’ तथा देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ आदर्श थे। उनमें बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कौतुहल था, प्रेम था पर उनमें जीवन की समस्याएँ न थीं, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन सत्य का स्पष्टीकरण नहीं था। अनुभूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुप्राणित होकर कहानी बन जाती हैं। उसमें कई रसों, कई चरित्रों और कई घटनाओं के स्थान पर केवल एक प्रसंग का, चरित्र की एक झलक का सजीव हृदयस्पर्शी चित्रण हो। लेखन का आधार कोई रोचक दृश्य अथवा स्थूल सौंदर्य न होकर कोई ऐसी प्रेरणा हो जो पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श कर सके। उसमें छिपे देवत्व को झकझोर कर जगा सके।
हेरियट स्टो के उपन्यास ‘टॉम काका की कुटिया’ ने सम्पूर्ण अमेरिका के हृदय को मथ डाला था। वर्तमान समय की यही पुकार है कि प्रतिभाशाली भावमयी लेखनी इस दिशा में चल पड़े और पाठकों को मनोरंजन के साथ सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें और संघर्ष में जीवन सत्यों की रक्षा करने की प्रेरणा और शक्ति दे। निस्संदेह, काव्य और साहित्य का उद्देष्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाना है; पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरूष- प्रेम का जीवन नहीं है।
साहित्य की पहली गुणवत्ता इसकी कलात्मक सुंदरता है, जो हमें एक अलग कल्पनाशील दुनिया में ले जाती है जो कि सांसारिक चिंताओं से दूर होती है और शांतिपूर्ण और शांत वातावरण देती है दूसरा एक वाक्य के माध्यम से व्यक्त विचारों की एक लम्बी श्रृंखला का जन्म साहित्य से होता है  साहित्य की तीसरी गुणवत्ता इसकी स्थायित्व है। यह किसी भी राष्ट्र या एक महाद्वीप तक ही सीमित नहीं है, लेकिन यह सभी सीमाएं पार करता  है और पूरी मानव जाति को अपने में समेट लेता है, वैसे ही यह किसी एक उम्र तक सीमित नहीं है, सभी उम्र इसमें निहित रहती है और हर किसी को प्रबुद्ध करता है।
क्या वह साहित्य, जिसका विषय श्रृंगारिक मनोभावों और उनसे उत्पन्न होनेवाली विरह-व्यथा, निराशा  आदि तक ही सीमित हो- जिसमें दुनिया की कठिनाइयों से दूर भागना ही जीवन की सार्थकता समझी गई हो, हमारी विचार और भाव सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है? नहीं वो सिर्फ मनोरंजन का साधन तो हो सकता है। आज साहित्य के इन गुणों को याद कर सही साहित्य का सृजन करने का समय है। अगर साहित्य हमारे जीवन की प्रस्तुति है, तो हम साहित्य की गुणवत्ता पर थोड़ा और अधिक ध्यान दें।उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण’ का ‘तिरगुन फाँस’ कर में लिये डोलनेवाले बाजारवाद की माया-मोहिनी से बचते हुए, जन-लेखक का दायित्व निभाने के लिए अपने को तैयार करने की चुनौती सृजनशीलता के सामने है। साहित्य के माध्यम से पाठकों को आशावादिता एवं जीवन के प्रति प्रभावी एवं सक्रिय दृष्टिकोण रखने की भावना जागृत करने का प्रयास करते रहना ही साहित्य का सार है। लिखने के लिए लिखना साहित्य का सार भी नहीं हो सकता है, इसके लिए हमें भावनाओं के गहरे समंदर में गहरे गोता लगाना होगा साथ ही हकीकत के तपते रेगिस्तान में नंगे पैर चलना होगा और स्वर्ण चमकते शब्दों से बाहर लाने  की जरूरत है जो हर किसी के अंतस का दर्पण बन सकें। साहित्य का मूल स्वरुप तो वह आत्माभिव्यक्ति है जो साहित्यकार को आंदोलित करके जनमानस के अंतर्मन  को झिंझोड़ दे,उसे आंदोलित करे और उस आंदोलन से सत्यम शिवं सुंदरम का अमृत निकले वही साहित्य का सार है।जिस प्रकार भगवान अपरिभाषित हैं उसी प्रकार सत्य अपरिभाषित है जो अटल अविचल अनेकानेक झूँठों का हलाहल पीकर भी पथभ्रष्ट  न हो वही सत्य है जो प्रकृति के प्रत्येक अजीव और सजीव के भावों को धारण करता हो वह शिव है और जिसमे सभी रस विद्यमान हों वही सुन्दर है और इन तीनों का समन्वय ही साहित्य का सार है।

- सुशील शर्मा

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका