यमुना पूजन से रामलीला का शुभारम्भ

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भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्राचीनकाल से ही लोग कृषि पर आधारित जीवन-यापन करते आए हैं। लोगों के लिए उनके खेत, पशु आदि ईश्‍वरतुल्य हैं।

यमुना पूजन से रामलीला का शुभारम्भ 

यमुना पूजन
यमुना के शुद्धिकरण एवं निर्मलीकरण के लिए श्रीगुरु वशिष्ठ मानव सर्वांगीण विकास सेवा समिति आम जनता में वर्ष 1990 से सक्रिय है। श्री गुरु वशिष्ठ मानव सर्वांगीण विकास सेवा समिति के संस्थापक अध्यक्ष पण्डित अश्विनी कुमार मिश्र जी ने एक अनूठी पहल शुरु किया है। इनकी संस्था व इनका जीवन स्वच्छ नदियां शुद्ध पर्यावरण स्वस्थ समाज एवं विकासशील राष्ट्र के लिए पूर्णरुप से संकल्पित है। पंडित श्री मिश्रजी के संयोजन में ये संस्थायें जन जागरुकता स्वयंसेवियों तथा स्थानीय प्रशासन के सहयोग से आगरा के एक दर्जन घाटों के स्वच्छता के लिए प्रयास शुरु कर रखा है। इसके लिए जन प्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों का सहयोग प्राप्त करने की निरन्तर कोशिस किया जा रहा है। यहां समय समय पर सांस्कृतिक तथा पारम्परिक कार्यक्रम के साथ ही साथ नियमित रुप से साप्ताहिक यमुना आरती शाम दिन ढलने पर की जा रही है। जिसमें भारी संख्या में शहर के गण्यमान यमुनाप्रेमी श्रद्धालुजन सहभागिता निभाते हैं।

यमुना पूजन से रामलीला का शुभारम्भ एक अभिनव प्रयोग:- 

अभी तक यह परम्परा नहीं थी कि रामलीला का शुभारम्भ यमुना पूजन से हो। श्री गुरु वशिष्ठ मानव सर्वांगीण विकास सेवा समिति के संस्थापक अध्यक्ष पण्डित अश्विनी कुमार मिश्र जी के प्रयास से यह नयी परम्परा की शुरुवात हो रही है। श्री मिश्र के अनुसार हर काम की शुरुवात प्रकृति पूजा से भारत में होती आ रही है। ईश्वर व प्रकृति के सामंजस्य से ही सृष्टि का संतुलन होता है।हमें अपने भौतिक प्रकृतियों का समादर करते हुए अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ना चाहिए। एसे अनेक प्रसंग हमारे पौराणिक इतिहास में मिलते हैं कि कोई भी महान कार्य इन प्रकृति के उचित सामंजस्य तथा संतुलन से ही सम्भव हो सका है। भगवान कृष्ण की पटरानी यमुना को प्रसन्न करने तथा उनका आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए   3 सितम्बर 2017 को आगरा के यमुना तट स्थित हाथीघाट के मुक्तांचल पर यमुना पूजन आरती तथा विचार मंथन का आयोजन किया जा रहा है। इसमें रामलीला कमेटी के प्रमुख पदाधिकारी तथा कलाकार रामलीला को आरम्भ करने से पहले मां यमुना का पूजन व आरती करेंगे। आगरा में अपने ढ़ंग का यह प्रथम आयोजन किया जा रहा है। इसमें नगर के प्रमुख समाज सेवी व्यवपारी तथा श्रद्धालु जनों के भरी संख्या में भाग ले रहें है।

प्राचीनकाल से प्रकृति पूजा का प्रचलन :-

 प्राचीनकाल से ही दुनिया की सभी सभ्यताओं में प्रकृति पूजा का प्रचलन रहा है। सृष्टि के आरम्भ से लोग सृष्टि के प्रकृति की शक्तियों से डरते थे तो उसके प्रति प्रार्थना या पूजा करते थे। लेकिन जैसे-जैसे समझ बढ़ी तो प्रकृति के महत्व को समझा तो फिर उसके प्रति प्रेमपूर्ण प्रार्थना करने लगे। ईश्वर की प्रकृति के प्रति अच्छा और सकारात्मक भाव होना जरूरी है। प्रकृति ही शक्ति है और वही देने वाली जगद्जननी है। उसी के आधार पर हमारा जीवन संचालित होता है। हमें इस प्रकृति में ही जन्म लेना है और इसकी मिट्टी में ही मिल जाना है। हम स्वयं भी प्रकृति का हिस्सा हैं। वेदों में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके हर रूप की वंदना की गई है। इसके अलावा आसमान के तारों और आकाश मंडल की स्तुति कर उनसे रोग और शोक को मिटाने की प्रार्थना की गई है। धरती और आकाश की प्रार्थना से हर तरह की सुख-समृद्धि पाई जा सकती है।

ऋषियों ने समझा प्रकृति का महत्व :- 

प्राचीन ऋषि-मुनियों, विद्वान त्रिकालदर्शी महात्माओं एवं तपस्वियों ने प्राणीमात्र के उत्थान एवं सुख-शांति के लिए प्रकृति के रहस्य को खोजा था। उन्होंने ही औषधियों, पीपल, नीम, बरगद आदि के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए धर्म से प्रकृति की आराधना को जोड़ा है। वेदों में प्रकृति का गुणगान गाया गया है तो इसीलिए कि प्रकृति जीवनदायिनी है। पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रकृति से प्रार्थना जरूरी है। प्रकृति की सुरक्षा और उसके प्रति सम्मान उसकी पूजा किए बगैर भी किया जा सकता है। आज जरूरी है गंगा यमुना तथा अन्य प्रमुख व उसकी सहायक नदियों को प्रदूषण से बचाना, जो करोड़ों भारतीयों की प्यास बुझाती है।

प्रकृति पूजा :- 

भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्राचीनकाल से ही लोग कृषि पर आधारित जीवन-यापन करते आए हैं। लोगों के लिए उनके खेत, पशु आदि ईश्‍वरतुल्य हैं। इसी के चलते ऋतुओं के परिवर्तन पर भारत में स्थानीय लोगों द्वारा अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पर्व मनाए जाते हैं, जैसे छठ, संक्रांति, बसंत पंचमी, गोवर्धन पूजा, सरहुल पूजा, हरयाली तीज, वट सावित्री, लोहड़ी आदि। प्रत्येक धर्म प्रकृति पर आधारित व्रत और उपवास का आयोजन करता है। धर्म की शुरुआत में प्रकृति पूजा का ही महत्व था।जैसे-जैसे व्यक्ति की समझ बढ़ी उसने मूर्ति और प्रकृति की पूजा के वैज्ञानिक पक्ष को समझा और महत्व को भी समझा और फिर उसने उसे छोड़कर दैवीय शक्तियों की ओर ध्यान दिया। थोड़ी और समझ बड़ी तब वह वेदों के ब्रह्म (परमेश्वर) की धारणा को भी समझने लगा।

ब्रज में प्रकृति पूजा :- 

ब्रज की संस्कृति मूलतः वन्य संस्कृति थी, अतः वृक्षों, पर्वतों, पक्षियों की पूजा भी ब्रज में प्रचलित है। भगवान कृष्ण ने स्वयं गिरिराज की पूजा की थी और गिरिराज जी इसीलिए ब्रजवासियों के ही नहीं, पूरे देश के इष्टदेव के इष्टदेव हैं। देश भर के भक्त प्रतिवर्ष दूर- दूर से आकर गिरिराज परिक्रमा करते हैं। ब्रज में गिरिराज को विष्णु रुप, बरसाने के वृहत्सानु पर्वत को ब्रह्मा रुप तथा नंदगाँव के पर्वत को शिव रुप माना जाता है और इनकी बड़ी श्रद्धा से परिक्रमा की जाती है।

आगरा में भव्य रामलीला का आयोजन :- 

प्रभु राम की बारात और जनकपुरी इस आयोजन को भव्यता और दिव्यता प्रदान करते हैं। इस दौरान पांच दिनों तक शहर इस महोत्सव में रम जाता है। इसमें कई करोड़ रुपये का खर्च होता है। उत्तर भारत की सबसे प्रमुख रामबारात के नाम से ख्यात आगरा की श्रीराम बारात को उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी राम बारात का खिताब भी मिल चुका है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्वरूप दुनिया भर में आज भी प्रासंगिक है। उनके जैसा शिष्य, पुत्र, भाई, एक पत्नीव्रता पति, मित्र और अनेक मानवीय रिश्तों को पूरी गरिमा के साथ निभाने वाला कोई दूसरा चरित्र दुनिया के किसी और धर्म अथवा आख्यान में नही मिलता। दुनिया तमाम देशों में भी रामलीला होती है। इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर जैसे मुस्लिम धर्म प्रधान देशों में भी रामलीलाएं सभ्यता और संस्कृति का पर्याय बनी हुई हैं। राम के चरित्र के प्रति आस्था भारतीय जनमानस में गहरे तक बैठी हुई है। किवदंति है कि त्रेता युग में श्री रामचंद्र जी के वनगमनोपरांत अयोध्यावासियों ने चौदह वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से इस परंपरा का प्रचलन हुआ। जनश्रुति यह भी है कि रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक गोस्वामी तुलसीदास हैं, इन्होंने हिंदी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर इसका श्रीगणेश किया। इनकी प्रेरणा से अयोध्या और काशी के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी। रामायण और रामलीला आगे भी सदियों तक मानवीय मूल्यों की रक्षा करने वाले लोगों के प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे।आगरा में यह आयोजन एक विशाल आकार में न केवल संस्कृति की रक्षा के लिए अपितु क्षेत्र के संतुलित विकास के लिए किया जाता है। इसके लिए लम्बी तैयारियां तथा बैठकों का आयोजन होता है। सड़के विजली पानी सफाई आदि की व्यवस्था इस आयोजन के माध्यम से ठीक कर ली जाती है। व्यवसायी वर्ग के साथ स्थानीय प्रशासन व आम जनता इसमें अपनी अपनी सहभागिता निभाते है।



- डा. राधेश्याम द्विवेदी

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