अच्छे दिन - वैशाखनंदन के

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नेताओं के बारे में कुछ भी कहना,आजकल जान जोख़िम में डालना है.यों विपक्षी को भले ही कुछ कह दो पर पक्षी के लिए तो अघोषित आपातकाल समझो.खुद की छोड़ो ,बीबी बच्चों का भी पता न पड़े.समझ ही न आए कि कब राष्ट्रवादियों के हाथों राष्ट्र के नाम शहीद हो गए.

 अच्छे दिन - वैशाखनंदन के 

अच्छे दिन आ गए.गधों के.अब इससे अच्छे दिन इनके और क्या होंगे,कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का मुखिया और उस देश के सबसे बड़े सूबे के सूबेदार इनकी चर्चा करने लगंे. वह भी लोकतंत्र के पावन पर्व पर. दरअसल लोकतंत्र और इनके ,बड़े पुराने, गहरे ,पारवारिक संबंध रहे हंैं .आज़ादी के बाद से यह इसे प्रमाणित भी करते रहे हैं. इसीलिए यह राजनीतिक दलों के  नेताओं के लिए माननीय भी हैं और विश्वसनीय भी. यूं भी बोझा ढोना इनका शौक़ है,और इन पर अपना बोझ डालते रहना नेताओं का.
  इनकी, अर्थात श्रीवैशाखनंदन जी की अपनी विशिष्ट,ऐतिहासिक,गौरवशाली वंश परंपरा है.यह बात अलग है कि समय के साथ वर्ण भेद से कालांतर में कुछ नेता बन गए.कुछ अभिनेता,कुछ कवि-शायर और कुछ केवल मतदाता.

नेताओं के बारे में कुछ भी कहना,आजकल जान जोख़िम में डालना है.यों विपक्षी को भले ही कुछ कह दो पर पक्षी के लिए तो अघोषित आपातकाल समझो.खुद की छोड़ो ,बीबी बच्चों का भी पता न पड़े.समझ ही न आए कि कब राष्ट्रवादियों के हाथों राष्ट्र के नाम शहीद हो गए.
नेताओं को बुद्धिजीवी कभी रास नहीं आते.वह तो केवल कर्मठ,स्वामिभक्त,वफ़ादार गधे ही साथ रखते हैं.उन्हीं की संख्या से राजनीति में उनका क़द बढ़ता है.इसीलिए वह विभिन्न पदों को सुशोभित करते हैं.
और मुए कवि शायर -चार लाइणा लिखते ही अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों ,मुशायरों में पढ़ने का सपना देखते हैं.और हद तो ये कि पहले मंच पर ही खुद को संयोजक/संचालक समझकर सलीके से सामने बैठी कवयित्री या शायरा को छेड़ने भी लगते हैं.
अभिनेताओं की क्या कहें ?कोई पैदाइशी नायक है तो कोई महानायक.पहले भी लोग इन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए, वक्त जरूरत गधे को बाप बना लेते थे.तब से आज तक इस समयानुकूल  क्रियात्मक सद्इच्छा का बुरा नहीं माना जाता.
कलियुग को अर्थयुग मानते हुए भी,जब से पैसेवाले और दो पैसे कमाने के लिए गधों का प्रचार करने लगेे हैं.कुछ इसका बुरा मानने लगे हैं.कुछ के तो अंदरुनी अंग भी जलने लगे हैं.आंतरिक अवयव भी दाहक हो उठे हैं.
राजनीति और मीडिया के गठजोड़ व इनकी संयुक्त कार्ययोजना से गधों में भी भ्रम का वातावरण है.तर्क वितर्क और कुतर्क के साथ होने वाले ,वाद-विवाद युक्त संवाद में शोर इतना अधिक होता हैै कि कोई किसी की नहीं सुनता.मतभेद और मनभेद के कारण कुछ गधों को गधों का प्रचार करने पर सख़्त ऐतराज़ है तो कुछ गधे गधों का प्रचार करने के समर्थक भी हैं .बौद्धिक वर्ग में ताजा बहस इसी बात की है कि इनमें सही कौन है ?जैसा कि अपने देश में  होता रहता है,वैसा ही यहां भी हुआ.कि चर्चा तो बहुत हुई पर तय कुछ भी नहीं हुआ.
अपने यहां तो लगातार पिटने वाले राजनीतिक दल से आमजन यह भी नहीं कह पाते कि वह अपने गधे का प्रचार न करंे.   
आंकड़े बताते हैं कि कुशासन वाले मुख्यमंत्री के ज़माने में जितने गधे थे ,सुशासन में उसके चैथाई भी नहीं रहे. कहने वाले कहते हैं कि ज्यादातर दिल्ली चले गए.
इसका एक कारण लिंगानुपात का अंतर भी हो सकता है .क्योंकि इंसानों की तरह हमारे उत्तम प्रदेश में नर गधों की तुलना में एक चैथाई   मादा गधे कम हैं.शायद इसी कारण बी.ई. और एम.बी.ए. करने वाले नए लड़कों की तरह, गधे भी ‘कुछ न कर पाने’ के अवसाद में डूबे है.ं .
हमारे प्रदेश के ज़्यादातर जिलों में देसी व पहाड़ी गधे मिलते हैं. लेकिन आंकड़े़ बताते हैं कि कुछ जिलों में इटेलियन गधे भी हैं .मुझे नहीं पता कि वहां के चुनाव परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं या नहीं.?
पिछले सर्वे के अनुसार प्रदेश में सबसे ज्यादा गधे राजधानी (मुरैना)में हैं.विशेष बात यह है, कि यही एक मात्र जिला है जहां नर गधों की तुलना में मादा गधे अधिक हैं.देश और प्रदेश में इस जिले की पृथक व विशिष्ट पहचान क्या इसी कारण है?
माननीय मुख्यमंत्री जी के सफल नेतृत्व में,मेरे प्रदेश ने सदैव गधों का सम्मान किया है.और यह कोई पत्रकारों को बताने की,या उनसे छिपाने की बात नहीं है. 
हमारी एक नगरपालिका गधों के कारण जीवित रह सकी ,अन्यथा उसकी अंत्येष्टि में देर नहीं थी.गधों की बिक्री के लिए लगने वाले मेले से वह इतना राजस्व प्राप्त कर सकी कि अपने कर्मचारियों के पिछले छह माह के बकाया वेतन का भुगतान कर सके.यानि आडे़ वक़्त पर जब मुख्यमंत्री या स्वायत्त शासन मंत्री भी नगरपालिका के काम न आये तब गधे काम आये. 
हां !इतना तय है ,कि आदमियों में गधे हो सकते हैं,लेकिन गधों में आदमी होने की बीमारी नहीं मिलती.
  लड़का जब कक्षा में किसी प्रश्न का गलत उत्तर देता है. मास्टर जी कहते हैं -गधे हो बेटा. इतने करीब का संबंध बनाकर मास्टर जी क्या साबित करते हैं? 
कोई क्लर्क जब गलती करता है तो अफसर डांटकर कहता है -स्साले, गधे हो तुम. क्लर्क सिर झुकाकर अपने नये नाम,नए रिश्ते को चुपचाप स्वीकार कर लेता है.क्या करे ?
डाॅ. महेन्द्र कुमार अग्रवाल
डाॅ. महेन्द्र कुमार अग्रवाल
भीड़ में एक मित्र दूसरे को पुकारता है -अबे ओ गधे, इधर आ. दूसरा ध्वनि के स्त्रोत को देखता -हंसता हुआ चला आता है. इन बातों से सिद्ध होता है कि आदमी के वेश में भी गधे होते हैं. लेकिन इनका प्रतिशत कितना है ,यह स्पष्ट नहीं है.सरकार को आंकड़ों की बाजीगरी को और बेहतर बनाने केे लिए ,अगली जनगणना में इनकी गिनती का भी एक काॅलम जनगणना पत्र में बढ़ाना चाहिए.यह मेरा विनम्र सुझाव है,यह जानते हुए भी ,कि सरकारें किसी की नहीं सुनतीं ,और गधों की तो बिलकुल नहीं. क्योंकि वह गधों के बलबूते ही बनती है. इसलिए उन्हें कभी बदलना नहीं चाहतीं.
भारत में आज भी अनेक लोग गधों के रुप में जीवन व्यतीत कर रहे हैं.फिर भी यही सोचते हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं.क्या ये गधे नहीं हैं.? गधे नहीं होते ,तो क्या संयुक्त सरकारों के मौसम में किसी आत्ममुग्ध छैलछबीले को बहुमत से सत्ता सौंप देते ? 
यों गधों में ऊंच-नीच की भावना नहीं होती.गधे अमीर -गरीब नहीं होते. किसीे को घृणा और हिकारत की नज़रों से नहीं देखते.इनमें साम्प्रदायिक दंगे भी नहीं होते.आदमी आदमी के ऊपर हंसता है,लेकिन गधा दूसरे पर कभी नहीं हंसता. हां ,विलाप में ज़रूर उसका साथ देता है और यह उसकी सहृदयता का श्रेष्ठ उदाहरण है.इस दृष्टि से वह आदमी से अधिक श्रेष्ठ व संवेदनशील है.क्योंकि गधा गधा होता है,आदमी नहीं. 
भारत में ऐसा कोई महापुरुष नहीं हुआ जिसने गधों पर पीएच.डी. क्या थोड़ा सा भी काम किया हो. 
कृष्णचन्दर, शरद जोशी,अज्ञेय,ओमप्रकाश आदित्य और मुझ जैसे महान लेखक के अलावा शायद किसी ने भी उनका दर्द नहीं समझा.कृष्ण चंदर ने तो बाकायदा-‘एक गधे की आत्मकथा ’तथा ‘एक गधे की वापिसी’लिखकर गर्दभराज को कथा साहित्य में स्थापित किया.हमें गर्व है प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय पर कि उन्होंने शीतला माता और मां कालरात्रि के वाहन को अपनी कविता में स्थान देकर हमें कृतार्थ किया. जनधारणा अनुसार- हम 
गधों जैसे लेखकों की लेखनी से ,निश्चिय हीे अब गधों को वह सम्मान मिल रहा है, जिसके वे हक़दार  थे, हैं और रहेंगे.
-मूत्रसिंचित मृत्तिका के वृत्त में तीन टांगों पर खड़ा नतग्रीव धैर्य धन गदहा



यह रचना डाॅ. महेन्द्र कुमार अग्रवाल  जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग (ग़ज़ल संग्रह),शोख मंज़र ले गया (ग़ज़ल संग्रह)(पुरस्कृत),ये तय नहीं था (ग़ज़ल संग्रह) (पुरस्कृत),बादलों को छूना है चांदनी से मिलना है ,कबीले की नई आवाज़ (उर्दू में),ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक ,ग़ज़ल और नई ग़ज़ल (आलोचना),नई ग़ज़ल-यात्रा और पड़ाव(आलोचना),ग़ज़ल का प्रारुप और नई ग़ज़ल(आलोचना),नई ग़ज़ल की प्रमुख प्रवृत्तियां(आलोचना),व्यंग्य का ककहरा (व्यंग्य संग्रह),स्वरों की समाजवादी संवेदनायें (व्यंग्य संग्रह),न काहू से दोस्ती न काहू से वैर (व्यंग्य संग्रह) प्रकाशित पुस्तकें हैं . आपको स्व. सत्यस्वरूप माथुर स्मृति काव्य सम्मान (2000),पन्नालाल श्रीवास्तव नूर सम्मान (2005),अम्बिकाप्रसाद दिव्य अलंकरण(2005) पं.युगल किशोर शुक्ल पत्रकारिता सम्मान(2012),श्रीमती गिनादेवी स्मृति साहित्य सम्मान (2013) आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका हैं .  संपर्क सूत्र - स्थायी पता बी.एम.के.मेडीकल स्टोर, सदर बाजार, शिवपुरी (म.प्र.) 473 551 . दूरभाष (07492) 232558, 405485 मोवा.- 9425766485,

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