देश की दशा

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भारत एक ऐसा देश है जिसका स्वर्णिम इतिहास पूरे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत बना है ।सभी क्षेत्रों में इसने जो योगदान दिया है,वह स्तुत्य है ।खगोलशास्त्र में कणाद, गणित में आर्यभट्ट,ब्रह्मशास्त्र में शंकराचार्य, राजनीति में महात्मा गाँधी आदि क्षेत्रों के कई महान चरित्र इस देश के हैं जिन्हें पूरे विश्व में आदर्श के रूप में देखा जाता है ।

देश की दशा आज की

देश की दशा
भारत एक ऐसा देश है जिसका स्वर्णिम इतिहास पूरे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत बना है ।सभी क्षेत्रों में इसने जो योगदान दिया है,वह स्तुत्य है ।खगोलशास्त्र में कणाद, गणित में आर्यभट्ट,ब्रह्मशास्त्र में शंकराचार्य, राजनीति में महात्मा गाँधी आदि क्षेत्रों के कई महान चरित्र इस देश के हैं जिन्हें पूरे विश्व में आदर्श के रूप में देखा जाता है ।वर्त्तमान समय में भी कई विदेशी विद्वान देश की संस्कृति और शास्त्रों को जानने और समझने को उत्सुक हैं क्योंकि वे अपने देश के कल्याणार्थ लगे हुए हैं ।भोगवाद की दौर से गुजर चुके विदेशियों के हृदय में उसकी क्षणिकता का एहसास हो रहा है और वे धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के करीब आ रहे हैं जहाँ अध्यात्मप्रसूत शांति का विधान है ।हमारे यहाँ भोग को भी धर्म का अनुषंगी माना गया है क्योंकि धर्म ही प्राथमिक है ।
          वर्त्तमान समय में आधुनिकता का पाखंड चल पड़ा है और लोग आधुनिक दिखने को बेताब हैं ।भारतीय भी इस बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हैं ।जहाँ आधुनिकता का संबंध विचारों से है ,वहाँ नकलचियों के लिए इसका संबंध वस्त्र और विरोधी मानसिकता से हो गया है ।परिणाम यह हुआ कि आज लोग देश की निंदा और अपनी संस्कृति का विरोध करते नहीं थकते ।भोगवाद को ही जीवन का आदर्श मानते हैं और परमार्थ ,पुरुषार्थ को मूर्खोचित कृत्य बतलाते हैं ।जिस परमार्थ और पुरुषार्थ की प्रेरणा विदेशी यहाँ से ले रहे हैं ,उसे यहाँ  छलावा की संज्ञा दी जाती है ।अगर इस देश के लोगों का वैचारिक पतन हुआ है तो उसका प्रधान कारण है अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन होना।
भारतीय संस्कृति में कमियाँ नहीं थीं या नहीं हैं ,ऐसा नहीं है ।कमियाँ थीं और उन्हें सुधारना ही आधुनिकता 
आदित्य पाठक
आदित्य पाठक
है ।आधुनिकता किसी चीज को नकारना नहीं बल्कि सुधारने का नाम है ।युग और परिस्थिति के अनुरूप अपनी सोच विकसित करना ही आधुनिक होना है।इसीलिए प्रश्न जरूरी हैं ।किन्तु,किसी चीज को निरर्थक सिद्ध करना इसका उद्येश्य नहीं,बल्कि सार्थक बनाना है ।
           देश कई भागों में बँटा है और उनमें कटुता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है।पूर्वी पश्चिमी को देखना नहीं चाहता ,पश्चिमी उत्तरी को ।इस भेद के कारण कितनों के प्राण गए हैं ।धर्म के भी कई भेद हैं और उसके भी कई उपभेद ।हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई- ये चार भेद हैं ।हिन्दू के भी चार भेद हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ।ब्राह्मण के भी कई भेद हैं-कान्यकुब्ज, मैथिल, श्रोत्रिय, शाकद्वीपीय आदि ।इन सब में कटुता बढ़ रही है ।सब-के-सब स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच सिद्ध करने में लगे हैं ।मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई में भी यही समस्या है।इन सारी समस्याओं की शुरूआत कैसे हुई?इतने भेद-उपभेद होने पर भी विविधता में एकता की बात करने वाला यह देश आज क्यों जल रहा है ?वसुधा को कुटुम्ब समझने वाला यह देश अपने ही भाईयों को पराया क्यों समझने लगा है?इन सारे प्रश्नों का एक ही कारण है 'लोगों का संकुचित स्वार्थ -मंडल '। लोग स्वार्थ के कारण इतने संकुचित हो गए हैं कि देश की बात छोड़ें,अपने घर में भी बँट रहे हैं । संकुचित स्वार्थ की इस सीमा का कारण है कि आज लोगों की बुद्धि व्यावसायिक हो गई है ।लोग धन - लाभ चाहते हैं और जिसमें लाभ नहीं ,उसमें समय देना बेवकूफी समझते हैं ।
               उक्त संकुचित मंडल से निकलने का एक मात्र मार्ग है-कला,साहित्य और संस्कृति के करीब जाना । कला से प्रेम करने पर ,साहित्य के अनुशीलन पर और संस्कृति को समझने पर ही हमारे अंदर अपनत्व का भाव आएगा ।तब हमें अपने समाज,अपने गाँव, अपने शहर ,अपने राज्य और अपने देश से प्रेम होगा ।फिर कोई भेद न रहेगा ।फिर सच में वसुधा कुटुम्ब-सी प्रतीत होने लगेगी।फिर हम  सच में देशभक्त बन सकेंगे ।


आदित्य पाठक
शिक्षा-स्नातकोत्तर(हिंदी),पटना विश्वविद्यालय, पटना
पता-पो.+था.-हिलसा(801302),जिला-नालंदा

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