हाइकु का हिन्दी संस्करण

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हाइकु एक जापानी काव्य विधा है किन्तु अपनी संक्षिप्तता ओर अर्थ-गांभीर्य से यह अन्य देशों और अन्य भाषाओं में न केवल सराही गई है बल्कि उनके अपने साहित्य में अपना भी ली गई है |

हाइकु का हिन्दी संस्करण 

हाइकु एक जापानी काव्य विधा है किन्तु अपनी संक्षिप्तता ओर अर्थ-गांभीर्य से यह अन्य देशों और अन्य भाषाओं में न केवल सराही गई है बल्कि उनके अपने साहित्य में अपना भी ली गई है | भारत भी इसका अपवाद नहीं है | भारत की लगभग सभी भाषाओं में आज हाइकु रचनाएं लिखी जा रही हैं, और हिन्दी भाषा में शायद सबसे अधिक इसका प्रचलन है | 
   
यह एक मान्य सच्चाई है की जब भी कोई व्यक्ति, विधा, या संस्कृति किसी दूसरे देश में प्रवास करती है तो वह वहां के वातावरण और परिवेश के अनुसार अपने को ढाल लेती है | भारत की भाषाओं में हाइकु विधा के साथ भी यही हुआ है, और ऐसा होना स्वाभाविक है | यह सोचना कि जैसे जापान में हाइकु का अपना एक अलग व्यक्तित्व और उस व्यक्तित्व की अपनी अलग ही विशेषताएं हैं, ठीक वैसा ही व्यक्तित्व और विशेषताएं  हिन्दी हाइकु (या, किसी भी अन्य भाषा के हाइकु) में भी हो, संभव नहीं हैं |
    सबसे पहले तो हम हाइकु की शारीरिक बनावट के बारे में ही बात करें | हर हाइकु में छोटी छोटी तीन पंक्तियाँ होती हैं; हाइकु के व्यक्तित्व का यह एक ऐसा पक्ष है जिससे हाइकु रचना तुरंत पहचान में आ जाती है | हाइकु की पहचान के लिए इन तीन छोटी पंक्तियों को हर भाषा में अपनाया गया है | इस सन्दर्भ में एक आश्चर्य जनक तथ्य यह भी है कि यदि हम किसी भी जापानी हाइकु को देवनागरी लिपि में लिपि-बद्ध करें तो हम पावेंगे कि उसकी पहली पंक्ति में ५, दूसरी में ७ और तीसरी पंक्ति में पुन: ५ अक्षर होते हैं | अत: हिन्दी भाषा में हाइकु के व्यक्तित्व की पहचान के लिए इसे भी ज़रूरी मान लिया गया है कि हाइकु की तीन पंक्तियाँ ५-७-५ अक्षरों के क्रम में हों | किन्तु ध्यातव्य है कि अन्य भाषाओं के साथ यह सर्वथा संभव नहीं होता | उदाहरण के लिए अंग्रेज़ी में यह संभव नहीं है | अत: अंग्रेज़ी में जितने भी हाइकु लिखे जाते हैं उनमें बस तीन छोटी पंक्तियाँ भर होती हैं | अधिक से अधिक वहां सिलेबल गिने जाते हैं जो अक्षरों  का स्थान नहीं ले सकते ५-७-५ अक्षरों का क्रम न तो वहां संभव है और न ही ऐसा कुछ मान्य है | भारत की अन्य भाषाओं में भी इसे मान्य नहीं किया गया है, कम से कम ज़रूरी तो नहीं ही समझा गया है | उदाहरण के लिए मराठी भाषा में जहां यह क्रम, देवनागरी होने की वजह से संभव हैं,वहां भी इसे अनिवार्य नही माना गया है बल्कि मराठी में अधिकतर हाइकु रचनाएं इसकी अवहेलना ही करती हैं | हिन्दी में भी न जाने कितने हाइकुकार हैं जो इस क्रम को अनिवार्य न मानकर इसकी अवहेलना करते हैं | मोटे तौर पर हाइकु का  वाह्य स्वरूप हर भाषा में तीन छोटी पंक्तियों से पहचाना गया है | किन्तु हिन्दी में अब लगभग यह सर्व-सम्मति सी बन गई है कि हाइकु की तीन पंक्तियाँ ५-७-५ अक्षरों के क्रम में ही होना चाहिए | 
    जापानी हाइकु की एक अन्य विशेषता उसका ऋतु-संकेत है | वहां हाइकु रचना में यह आवश्यक माना गया है कि, स्पष्ट न कहते हुए भी, वह (हाइकु) यह इशारा अवश्य करे कि उसे किस ऋतु में रचा गया है |  ध्यातव्य है कि हाइकु की यह शर्त जापान में भी अब शिथिल पड़ने लगी है | ऐसे में अन्य भाषाओं में हाइकु लेखन के लिए इसे अनिवार्य भला कैसे किया जा सकता है? किसी भी अन्य भाषा का हाइकु यह ज़रूरी नहीं मानता कि ऋतु-संकेत हाइकु की एक अनिवार्य पहचान है | हिन्दी भाषा भी इसे स्वीकार नहीं करती | 
     हाइकु कविता को अतुकांत माना गया है | यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि हाइकु कविता में कोई तुक मिलाई जाए | हाइकु की तीन पंक्तियाँ स्वतन्त्र हैं और वे तुकांत नहीं होतीं | हिन्दी में बहुत सा काव्य अतुकांत है | निराला ने जब अतुकांत काव्य की नींव रखी तो इसे एकदम स्वीकार नहीं किया गया | किन्तु काव्य में गद्यात्मकता तो शायद निराला को भी स्वीकार नहीं थी | गद्यात्मक होना और अतुकांत होना ये अलग अलग बातें हैं | अतुकांत कविताओं में भी एक आतंरिक लय होती है जो उन्हें गद्यात्मक होने से बचाती है | वस्तुत: हिन्दी ने कविता को गद्यात्मक कभी नहीं होने दिया | तुक नहीं तो कम से कम लय ज़रूरी है | हाइकु में भी यदि गद्यात्मकता है तो हिन्दी को यह स्वीकार नहीं है | इसीलिए कहा गया है कि एक गद्य-कथन को तीन छोटी पंक्तियों में विभाजित कर देने से हाइकु नही बन जाता | हिन्दी संस्कार हाइकु में भी लय और यदि थोड़ी तुक भी हो तो उससे परहेज़ नहीं करता | हिन्दी में हाइकु का रायबरेली स्कूल तो स्पष्ट कहता है कि हाइकु की तीन पंक्तियों में से किन्हीं दो को तुकांत होना ही चाहिए | हम इसे अनिवार्य न भी करें फिर भी हमारी भाषा हाइकु में एक हल्की सी तुक, एक भाषाई लय, तो देखना ही चाहती है | तीन गद्यात्मक पंक्तियाँ उसे मंजूर नहीं हैं |  
     सामान्यत: किसी भी देश या भाषा में यह अनिवार्यता कभी भी स्वीकार नही की गई कि किसी एक ‘विधा’ में किन्हीं गिने-चुने विषयों पर ही लेखन हो, और कुछ विषयों को उससे अलग रखा जाए | लेखक या कवि अपना विषय चुनने के लिए स्वतन्त्र होता है | माना की कविता में कोमल भावना, प्रेम और सौन्दर्य की अभिवक्ति अधिकतर देखने को मिलती है किन्तु कोई भी कविता अन्य विषयों पर भी लिखी जा सकती है | कविता की हर विधा के लिए यह बात सही है | दोहे हों, चौपाइयां हों, गीत हों, मुक्तक हों, तुकान्त हों, अतुकांत हों – हर विधा में हर विषय को लेकर कवियों ने रचनाएं की हैं | किन्तु हाइकु जापान की एक ऐसी विधा है जिसमें हास्य-व्यंग्य और सामाजिक विद्रूपों पर रचनाएं करना स्वीकार नहीं किया गया है | हाइकु की कद-काठी में यदि ऐसी रचनाएं की गईं तो उन्हें “हाइकु” माना ही नहीं जाएगा ! उनका एक अलग ही नाम-करण कर दिया गया है | ऐसी रचनाओं को “सेंरयु” कहा गया है | यह कुछ ऐसा ही कहना है कि गीत-विधा में आप सामाजिक विषय नहीं उठा सकते | अगर ऐसा करेंगे तो उसे गीत न कहकर कुछ अलग नाम दे दिया जाएगा | शायद ही किसी कवि को यह बात मान्य हो | अत: हिन्दी हाइकुकारों ने हाइकु और सेंरयु के अंतर को पूरी तरह नकार दिया है और हाइकु में सामाजिक-राजनैतिक  विषयों को भी स्थान देने में हिचक नहीं की गई है | पर यहाँ भी कुछ कवि जापानी हाइकु की काव्य विधा की शुद्धता को लेकर आज भी चिंतित अवश्य हैं और वे सामाजिक विषयों से उसकी दूरी बनाए रखने के हिमायती हैं, किन्तु हिन्दी में अब मोटे तौर पर यह सहमति सी हो गई है कि हाइकु विधा को सामाजिक विषयों से महरूम न रखा जाए |
     बहरहाल, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हाइकु एक ‘काव्य’-विधा है | हर हाइकु एक कविता है | एक स्वतन्त्र कविता है | कविता होना हाइकु की एक अनिवार्य शर्त है | आप छोटी छोटी तीन पंक्तियों में, ५-७-५ अक्षर क्रम को अपनाते हुए जो कुछ भी लिखते हैं, यदि वह कविता-विहीन है तो वह हाइकु भी नहीं है | हाइकु की आतंरिक पहचान उसका काव्य-तत्व है | तीन छोटी पंक्तियाँ और/ या  ५-७-५ अक्षर क्रम उसकी केवल वाह्य पहचान है | काव्य तत्व की अनुपस्थिति में उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता | 
    हाइकु का यह काव्य-तत्व क्या है ? परिभाषित करना बेशक मुश्किल है | पर मोटे तौर पर कहा जा सकता है की जहां मौलिकता है, सौन्दर्य है, कोई नयापन है, वहीं कविता निवास करती है |


रचनाकार परिचय 
डा. सुरेन्द्र वर्मा
जन्म – २६-सितम्बर १९३२ (मैनपुरी, उ. प्र.)
वरिष्ट साहित्यकार डा. सुरेन्द्र वर्मा ने अनेक विधाओं में लेखन किया है, निबंध और व्यंग्यात्मक लघु निबंध उनके लेखन की प्रिय विधा है | उनके अबतक आधेदर्जन व्यंग्य और रोचक निबंभों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं | “कुरसियाँ हिल रही हैं” उनका एक चर्चित व्यंग्य संग्रह है जिसके अबतक दो संस्करण आ चुके हैं | एक अन्य संग्रह, “हंसो लेकिन अपने पर” को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वारा शरद जोशी सर्जना पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है | डा. सुरेन्द्र वर्मा के लघु-व्यंग्य आलेख हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में छपते रहे हैं | नव भारत टाइम्स, हिंदुस्तान, नई दुनिया, जैसे दैनिकों से लेकर आजकल, साहित्य अमृत.आदि मासिक पत्रिकाओं में उन्हें ससम्मान स्थान मिला है | उनके व्यंग्य और व्यंग्य- समीक्षाएं, व्यंग्य लेखन के प्रतिष्ठित त्रैमासिक, ‘’व्यंग्य यात्रा’” में भी प्रकाशित हुए हैं | कुछ ई-पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएं आई हैं |
      कवि निबंधकार और चिन्तक, डा. सुरेन्द्र वर्मा के एक समीक्षात्मक निबंध-संग्रह, “साहित्य समाज और रचना” को भी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, महावीर प्रसाद द्विवेदी नामित पुरस्कार से सम्मानित कर चुका है | पुस्तक समीक्षाएं लिखने में, ख़ासकर हाइकु-संग्रहों की पुस्तक समीक्षाएं लिखने में डा. वर्मा को खासी दिलचस्पी है | वे स्वयं भी हाइकु रचनाएं करते हैं और उनके तीन हाइकु संग्रह आ चुके हैं | पांच कविताओं के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके है | “कविता के पार कविता” उनका काफी चर्चित कविता संग्रह है | “राग- खटराग” में उन्होंने तिपाइयों की शक्ल में हास्य-व्यंग्य कविता को एक नया रूप प्रदान किया है | उन्होंने अपनी पुस्तक “अमृत- कण’ में गीता,मांडूक्य,और ईशावास्य उपनिषदों तथा आचारांग की कुछ गाथाओं का हिन्दी में काव्यानुवाद भी किया है |
    डा. सुरेन्द्र वर्मा शौकिया तौर पर रेखांकन भी करते हैं | उनके चित्र हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं | “कला विमर्श और चित्रांकन”, “भारतीय कला एवं संस्कृति के प्रतीक” आदि उनकी कला संबंधी पुस्तकें हैं | उनके रेखांकनों की प्रदर्शिनी इलाहाबाद संग्रहालय, इलाहाबाद  में लग चुकी है | जाने-माने चित्रकार प्रो. रामचंद्र शुक्ल पर एक मोनोग्राफ भी वह तैयार कर चुके हैं |
      डा. वर्मा गांघी-दर्शन के विशेषज्ञ हैं | गांधी-दर्शन पर उनका शोध-कार्य अंग्रेज़ी में प्रकाशित है | गांधी विचार-धारा पर एक पुस्तक हिन्दी में भी है | इस विषय पर उनके अनेक आलेख और शोध-पत्र पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं | डा. सुरेन्द्र वर्मा की, दर्शन शास्त्र सहित विविध विषयों पर अबतक दो दर्जन पुस्तकें आ चुकी हैं |
     डा. सुरेन्द्र वर्मा म.प्र. शिक्षा सेवा में दर्शन-शास्त्र के आचार्य और शासकीय महाविद्यालयों में प्राचार्य रहे हैं |  सेवानिवृत्ति के बाद आजकल इलाहाबाद में रहकर वह साहित्य सृजन में अपना योगदान दे रहे हैं |      

      डा. सुरेन्द्र वर्मा , १०,एच आई जी , १, सर्कुलर रोड / इलाहाबाद -२११००१  (मो. ९६२१२२२७७८)
       

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