बकिट लिस्ट

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हां 37 साल कैसे पूरे हो गए, पता ही न चला। पता कैसे नहीं चला? कभी-कभी तो ऑफिस में इतना मानसिक तनाव होता था कि एक दिन भी एक साल की मानिंद लगता था।

बकिट लिस्ट


बंसी खूबचंदाणी
बंसी खूबचंदाणी
हां 37 साल कैसे पूरे हो गए, पता ही न चला। पता कैसे नहीं चला? कभी-कभी तो ऑफिस में इतना मानसिक तनाव होता था कि एक दिन भी एक साल की मानिंद लगता था। कई बार तो भाग जाने को जी करता था। पर भागेंगे कहाँ? पत्नी, माँ और दो बच्चों को कौन पालेगा? ‘जीना यहाँ, मरना यहाँ, तेरे सिवा जाना कहाँ।’
राजकपूर की फिल्म जोकर के अभिनेता की तरह ही 37 साल बिताए हैं। अब पहली जुलाई को रिटायर करूंगा तो यह जोकर का लिबास, जोकर की भाषा और जोकर का मुस्कराता चेहरा उतार कर फेंक दूंगा और इन्सान बनकर खुद को खुश करूंगा।
रिटायर होने के पश्चात पेन्शन भी मिलेगी और तीस लाख के क़रीब टरमिनल बेनीफिट्स भी मिलेंगे। ‘फिर सुबह होगी’ ज़रूर होगी।
आज लंच रूम के बग़ल वाले सेक्शन के इन्चार्ज किशोर भाई मेहता बहुत खुश लग रहे थे। पूछने पर बताया ‘दयाल भाई, कल मैंने एक मस्त फ़िल्म देखी है। फ़िल्म का नाम है ठनबामज.स्पेज तुम भी यह फ़िल्म ज़रूर देखना, तुम्हारे काम की है यह फ़िल्म।’
मैंने उनसे पूछा कि यह कैसा नाम है? ठनबामज.स्पेजघ् तो ठहाका मारते हुए कहा, ‘दयाल भाई, तुम्हें बकिट के बारे में पता नहीं? बकिट का मतलब है वह बाक्स जिसमें मुर्दों को दफ़नाने के लिये ले जाते हैं। तुम्हें और मुझे भी ज़रूर ले जायेंगे।’
‘पर किशोर भाई, तुम और मैं तो हिन्दू हैं। फिर हमें बकिट में कैसे ले जायेंगे? हमें तो फूलों से अर्थी पर सजाकर ‘राम नाम संग है, गुरु बाबा संग है, सतनाम संग है’ कहते शमशान की ओर ले जायेंगे न।’
यह सुनते ही किशोर भाई एक मिनट के लिये लंच टेबिल पर मरने का नाटक करते हुए लुढ़क गए। दो पल के बाद ठहाका मारते हुए कहने लगे.‘दयाल भाई, मरने के उपरांत हमें कब्रिस्तान की ओर ले जाएं या श्मशान की ओर, क्या फर्क़ पड़ता है? मरे हुए इन्सान के लिये अर्थी भी वही और बकिट भी वही।’
किशोर भाई इस तरह क़हक़हों के तीर चलाते सच को आलोकित करते। मैंने उनसे कहा, ‘यार यह बात तो सच है पर इतना तो बताओ कि यह ‘बकिट लिस्ट’ है क्या?’
किशोर भाई मुझे रुकने के लिये कहकर हाथ-मुंह धोने चले गए। वापस लौटे तो उनके संभाग का एक क्लर्क उन्हें यह कहते हुए लिवा ले गया कि बड़े साहब उन्हें याद कर रहे हैं और मेरी जिज्ञासा धरी की धरी रह गई। फिर सोचा, यह कौन सी बड़ी बात है रात को डवअपम ज्पउमे की दुकान से फिल्म की डीवीडी मंगवाकर फ़िल्म देखूंगा और गुत्थी सुलझाऊंगा।
खाना खाकर ‘बकिट लिस्ट’ फ़िल्म देख रहा हूं। यह दो अनजान आदमियों की कहानी है जो दोनों एक दूसरे से विपरीत हैं। एक बहुत धनाढ़य गोरा है तो दूसरा ग़रीब काला मिकैनिक। गोरे ने चार शादियां की और चारों को तलाक़ दिया है और अब बुढ़ापे में भी ऐश कर रहा है। बेटी है पर उसके साथ नाता नहीं, क्योंकि उसने अपनी मर्ज़ी से शादी की है। काला मिकैनिक भी वृद्ध है, पर अपनी पत्नी, बच्चों और उनके बच्चों के साथ खुश है।
उन दोनों में एक बात की समानता है, जिसके एवज वे एक दूसरे से मिले हैं। दोनों को कैन्सर की बीमारी है और वे दोनों एक कैन्सर अस्पताल में इक दूजे के पास वाले बिस्तर पर रहते हुए अपना इलाज करा रहे हैं। गोरे धनाढ्य की भूमिका निभाई है बेजोड़ अभिनेता जैक ;श्रंबा छपबीवसेवदद्ध और ग़रीब मिकैनिक की भूमिका निभाई है मशहूर अभिनेता मॉर्गन ;डवतहंद थ्तममउंदद्ध ने।
प्रारम्भिक झगड़ों के बाद दोनों मरीज़ दोस्त हो गए हैं। एक दिन डवतहंद एक पन्ने पर कुछ लिख रहा है, जिसके शीर्ष भाग पर ठनबामज.स्पेज लिखा हुआ है। उस लिस्ट में क्रमबद्ध विषय सूची है जैसे कि किसी अनजान आदमी को खुशी देना, इतने क़हक़हे लगाएं कि पेट में दर्र्द होने लगे, दुनिया के सात अजूबे देखना वगैरह... मॉगर्न अपने धनी दोस्त को बताता है कि यह लिस्ट बनाकर बस अपना समय व्यतीत कर रहा है। उस लिस्ट में वे बातें हैं जो वह मरने के पहले करना चाहता है, यानि बकिट में बंद होने के पहले! वह यह भी कहता है कि उसे पता है वह ग़रीब है और वे इच्छाएं पूरी हों, यह मुमकिन नहीं।
जैक अपने दोस्त से वह ‘बकिट लिस्ट’ लेकर अपनी इच्छाएं भी उसमें जोड़ देता है और मॉगर्न से कहता है, हम दोनों को जल्दी ही मरना है, फिर क्यों न हम अपनी इच्छाएं पूरी करके मरें। तुम्हारे पास पैसा नहीं है, पर मेरे पास तो बहुत पैसा है, मैं अकेला हूं। मेरा साथ दो तो हम मिलकर इस ‘बकिट लिस्ट’ की इच्छाएं पूरी करें।’’
पहले तो मॉर्गन इस बात के लिये राज़ी नहीं हुआ। वह किसी का एहसान नहीं लेना चाहता था पर फिर बहुत ज़ोर देने के उपरांत मान जाता है। दोनों एक प्राइवेट ‘जेट’ में अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिये निकल पड़ते हैं। वे ैाल क्पअपदह करते हैं, कार रेसिंग भी करते हैं। ताजमहल भी देखते हैं, तो चाइना की ग्रेट वॉल भी देखते हैं, मिस्र के पिरॉमिड देखते हैं, तो बर्फ़ की पहाड़ी पर भी रहते हैं। हांगकांग की सैर करते हैं, जैक अपनी बांह पर टैटू भी गुदवा कर अपनी चाह पूरी कर लेता है। जब जैक को पता चलता है कि मॉर्गन जीवन भर अपनी पत्नी से वफादारी करता रहा है तो वह उसे खुश करने के लिये एक ‘कॉल गर्ल’ भेज देता है। मॉर्गन भी पहले तो बहकने लगता है, पर फिर प्यार करने वाली पत्नी की याद आते ही संभल जाता है। वह लड़की उससे कहती है श्ल्वनत ूपमि पे ं सनबाल ूवउंदश् इस पर मॉगर्न कहता है.श्छवए प् ंउ ं सनबाल उंदण्श्
देवी नागरानी
देवी नागरानी
मॉर्गन की पत्नी जैक से बहुत नाराज़ है। वह उसे फोन करके कहती है कि मुझे मेरा पति लौटा दो। वह कैन्सर में मर जाता है तो वह कुछ नहीं कर सकती, पर यूं जीते जी ही मुझसे जुदा हो जाए यह बात उसे कतई मंजूर नहीं।
इस तरह दोनों अपनी-अपनी ‘बकिट लिस्ट’ को अधूरा ही छोड़कर वापस आते हैं। कुछ वक्त में मॉर्गन गुज़र जाता है। पर मरने के पहले वह जैक को अपनी बिछड़ी हुई बेटी से मिलाकर जाता है। वह मरने से पहले एक और बात भी कह जाता है.‘हर एक अकेला मरने से डरता है ;म्अमतलवदम पे ंतिंपक जव कपम ंसवदमद्ध मरना तो सभी को है।’ जैक भी 81 साल की उम्र में मरे, पर तब वे अकेले नहीं थे।
मैं टण्ब्ण्त्ण् बंद करके हॉल में आकर बैठता हूं। कौशल्या अपने प्रवचन सुनने लगती है। मैं सोच में हूं, मेरे मन में भी तो कई इच्छाएं हैं, क्यों न मैं भी अपनी एक ‘बकिट लिस्ट’ बनाऊं। मैं अपनी डायरी ढूंढकर ले आता हूं और पिछले पन्नों पर लिस्ट बनाने लगता हूं।
1. पहले तो सफ़ेद रंग की एक कार लूंगा, फिर अपनी और कौशल्या की दिली तमन्ना पूरी करूंगा। हां, ड्राइविंग भी सीखूंगा।
2. अजय बैंगलूर से पढ़ाई पूरी करके आएगा तो उसे एक अच्छी मोटरबाईक लेकर दूंगा।
3. कौशल्या के साथ हरिद्वार, ऋषिकेश और चारों धामों की यात्रा करूंगा।
4. प्यारी बिटिया सोनी को एक हीरे की अंगूठी लेकर दूंगा और नातिन को एक अच्छी साइकिल।
5. अंडमान व निकोबार द्वीप पर सैर को जाऊंगा।
6. मरने के पहले हांगकांग और सिंगापुर भी देखना है।
7. उस दिन किशोर भाई ने कहा था. श्ब्सवजीमे उांम जीम उंदण्श् इसलिये अपने लिये चार बेहतरीन पोशाकें ज़रूर ले लूंगा।
8. बचपन से छपंहंतं थ्ंससे देखने की तमन्ना है, फिर तो अमेरिका का एक चक्कर भी लगाना होगा।
9. अपने भारत के भी अनेक स्थान देखने हैं जैसे.जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, कश्मीर, ऊटी, दार्जिलिंग और कोडाईकनाल।
10. नेपाल देखा है पर नेपाल की ‘पोखरा झील’ न देख पाया। वह झील और उसके आसपास वाली बर्फीली पहाड़ियां तो ज़रूर देखूंगा।
अभी तो और भी बहुत सारी इच्छाएं सूची में जोड़नी है। इसीलिये मैं डायरी का पन्ना पलटता हूं तो उस पर पहले से ही लिखा हुआ एक फार्मूला देखता हूं :

यह तो मेरी ही लिखावट है। अब याद आया। कुछ माह पहले कौशल्या के कहने पर संस्कार चैनल पर एक साध्वी के प्रवचन सुन रहा था तो यही बात उस साध्वी ने अपने पास रखे बोर्ड पर लिखकर समझाई थी। उसने समझाते हुए कहा था कि हमारी सब इच्छाएं पूरी हों तो हमारी खुशी संपूर्ण है। पर यह बात मुमकिन नहीं। उसने फिर बोर्ड पर एक मिसाल लिखते हुए समझाया है.

इस तरह अगर हम अपनी इच्छाएं बढ़ाएंगे और वे पूरी न होंगी तो हमारी खुशी की मात्रा घटती रहेगी। मुझे उस समय यह फार्मूला बहुत अच्छा लगा था और मैं आज की तरह हॉल में आकर अपनी डायरी के पिछले पन्ने पर लिख देता हूँ।
मुझे अपनी ‘बकिट लिस्ट’ में और भी बहुत इच्छाएं शामिल करनी हैं, पर मेरा हाथ थम सा गया है। मेरी आँखें खुशी के फार्मूला पर ही टिकी हुई हैं।
मूल लेखक बंसी खूबचंदाणी (१९४३- )
जन्म: सख़्खर, सिंध (पाकिस्तान) । सिन्धी के कथाकार जो आज की पीढ़ी के मनोविज्ञान से संबन्धित विषयों पर कहानी की विषय-वस्तु लेकर तीन दशकों से कहानी लिखने में सक्रिय कार्य कर रहे हैं। तीन कहानी संग्रह प्रकाशित: ‘माज़ीअ जी गिस कण ते (1982), भागी हुई ज़िंदगी(1989), वापसी (2002)। समालोचना का संकलन-‘शब्दों की सुरहाण’ (2009)। इस संग्रह पर राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद की ओर से 2012 में पुरुसकृत। आकाशवाणी के लिए लगातार समालोचना लेखन। पता : बी-६०३, वुडलैंड सोसायटी, अशोक अकादमी के पास, लोखण्डवाला कॉम्प्लेक्स, अंधेरी (वेस्ट), मुम्बई-४०००५३
(फोन: 022-26350680, 09869359266)
अनुवादिका  देवी नागरानी जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।
संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ dnangrani@gmail.com  

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हां 37 साल कैसे पूरे हो गए, पता ही न चला। पता कैसे नहीं चला? कभी-कभी तो ऑफिस में इतना मानसिक तनाव होता था कि एक दिन भी एक साल की मानिंद लगता था।
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