पापग्रस्त शरीर

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आनंदी उस बालक का हाथ पकड़े और गोद में अपने नन्हें शिशु को उठाकर चल पड़ी। चूंकि उस बालक को देखते ही आनंदी के मुख पर कन्हैया नाम आया था, इसलिये वह उसे कन्हैया ही कहकर पुकारने लगी थी।

पापग्रस्त शरीर

 बाल-कृष्ण
भारत का उत्तरीय क्षेत्र हर साल भारी बारिश के चपेट में आ जाता है। नदियाँ उफन पड़ती हैं, पहाड़ियों का स्खलन तबाही मचा जाता है, मकान, सड़कें, पुल आदि ढह जाते हैं और मलबे में दबे या बाढ़ में बहे लोगों के आँकड़े बढ़ते जाते हैं। हर तरफ सेना मदद के लिये बुलाई जाती है और उनके सराहनीय प्रयास से कित्तों की जानें बच जाती हैं। फिर भी अखबार, मीड़िया और उनसे प्रभावित असंख्य लोग यही कहते नजर आते हैं कि इस साल तो तबाही चरम सीमा पर थी। पहले कभी ऐसा न देखा, न सुना। 
बारिश में सैकड़ों गाँव डूब गये, पुल टूट गये, फसल नष्ट हो गई, मवेशी बह गये और न जाने कितनों की जानें चली गई। तभी एक दिन अखबार ने बताया कि सेना ने बड़ी मशक्कत के बाद एक चार वर्षीय बच्चे को बचाया। वह तेज धारा में बहे जा रहा था। जब सैनिक उसे पानी से बाहर लाये तो वह मृतप्राय-सा रुक रुककर साँस ले रहा था। आनन-फानन उसे अस्पताल ले जाया गया। बेचारे की जान तो बच गई, पर उसके माता-पिता का कुछ भी सुराख न मिल सका। वह गूँगा-बहरा बालक अब अनाथ भी हो गया था। हमारे भारत में ऐसी त्रासदी पर भी लोग कहते मिल जाते हैं, ‘सेना ने बचाया भी तो किसे --- एक गूँगे-बहरे को।’ तब लगता है अपनी सभ्यता पर गर्व करनेवाले सुसंस्कृत कहे जानेवाले लोग कहाँ गुम हो गये हैं?
आगे, सुनने में आया कि उसे एक अनाथालय में भेज दिया गया था। लोग तब भी बोले थे, ‘गूँगे-बहरे को अपनाने की मूर्खता आज की इतनी मँहगाई में कौन करता है?’ पैसेवाले में भी इतनी इन्सानियत नहीं दिखती तो फिर देश की जनता का बड़ा हिस्सा जो गरीबी रेखा के नीचे है, वह क्या खाक मदद करने की सोचेगा?
भूपेन्द्र कुमार दवे
भूपेन्द्र कुमार दवे
लेकिन जैसे ही अनाथालय के सर्वेसर्वा राजू शर्मा ने इस बालक को देखा तो वह उसे पाकर गद् गद् हो उठा । इतने प्यारे मासूम बच्चे केा पाकर भला कौन खुश न होता? प्रारंभिक दिनों में राजू का प्यार उस पर बहुत उमड़ा। पर शीघ्र ही वह अपने पुराने ठचरे में आ गया। एक दिन वह उस बच्चे को अपने कमरे में ले गया और उसे मैले-कुचैले कपड़े पहनाने लगा। तभी शायद किसी कारण रामू की पत्नी कुछ ढूँढ़ती वहाँ आ गई। बच्चे के अति सुन्दर मासूम चेहरे को देखते ही उसकी ममता चरमसीमा पर पहुँच गई। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया और उसे चूमते हुई बोली, ‘आप इसे  ये मैले-कुचैले कपड़े क्यूँ पहना रहे हैं। मैं इसे भीख माँगनेवाला बच्चा नहीं बनने दूँगी। खबरदार, जो इसके भी हाथ-पैर तुड़वाकर अपंग बनाया तो।’
यह सुन राजू बौखला उठा, ‘ये पैदाईशी गूँगा-बहरा है। पर सब यही कहेंगे कि इसे मैंने ही गूँगा-बहरा बना दिया है। तू भी यही कहती रहेगी। लेकिन बात कुछ दूसरी है। इस बच्चे के इतने सुन्दर चेहरे को देख और उसकी लाचारी से प्रभावित हो लोग इस पर दया करेंगे और सहानुभूति दर्शायेंगे। इस तरह यह तिगुनी-चैगुनी भीख लेकर आ सकेगा।’
‘हाँ, आप सच कहते हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि भीख की आमदनी और बढ़ाने के लिये आप इस प्यारे बच्चे के हाथ-पैर भी तुड़वा देंगे। आपको किसी से डर नहीं लगता। ईश्वर से भी नहीं। जो ईश्वर से नहीं डरता वह शैतान-रूप होता है।’
‘तू मुझे शैतान समझती है?’ राजू ने क्रोध में आग-बबूला हो कहा।
‘आप नहीं, शैतान तो मैं हूँ। गरीब बच्चों के हाथ-पैर तोड़कर आनेवाले पैसे से पेट भरने के लिये मजबूर जो हो गई हूँ। अब अपनी भी एक संतान आ गई है। इस पर भी शैतान का भूत आप छुटा नहीं सकते। देखो, मैं फिर से आपको चेता रही हूँ कि यह क्रूरता छोड़ो।  वरना आगे पछताने के सिवा कुछ नहीं बचनेवाला। अभी सम्हल जावो।’ लेकिन पत्नी की इस चेतावनी का असर राजू पर कभी नहीं हुआ था तो अब कैसे होता। वह चिंघाड़ा, ‘अपना परिवार बढ़ गया है इसलिये ही तो कहता हूँ कि अब आमदनी में इजाफा होना और जरूरी हो गया है।’
‘आमदनी में इजाफा हो या न हो पर आपके पापकर्म में बढ़ोत्तरी अवश्य हो जावेगी,’ आनंदी का भी स्वर क्रोधवश होने लगा था। वह बोली, ‘अच्छा बताईये कि इस बच्चे से भीख मँगवाने में कितनी आमदनी बढ़ेगी?’
पत्नी के इस प्रश्न का उत्तर बेशर्मी से देते हुए राजू ने कहा, ‘रोज पचास सिक्के तो ले ही आवेगा याने महिने में .....’ पर बीच में ही आनंदी ने कुछ और ऊँचे स्वर में कहा, ‘मैं महिने की नहीं पूरे साल की पाप की कमाई की बात कर रही हूँ।’ यह कहते समय आनंदी के चेहरे पर क्रोध तमतमाया हुआ दिखने लगा था।
लेकिन वह बेशर्म यह न देख सका और कहने लगा, ‘आगे जब ये लंगड़ा-लूल्हा हो जावेगा तो इसकी कमाई और बढ़ जावेगी। तब तक यह जेबकतरी के गुर भी सीख जावेगा। मेरे ख्याल से ये साल में एक लाख तो बटोर ही लेगा .......’
राजू की बात फिर से काटते हुए आनंदी ने कहा, ‘और आप के पाप की बढ़ोत्तरी कितनी हो जावेगी, वह भी तो बतावो।’
‘ठीक है, तुम मुझे पापी समझती हो तो सुनो। हाँ, मैं पापी हूँ तो पापी ही रहूँगा। पाप में न तो कभी बढ़ोत्तरी होती है और न ही रावण कभी महारावण बनता है। मैं जो हूँ, वही रहूँगा और मुझे जो करना है, वह करूँगा .....’
‘और मैं इस बच्चे पर शैतान की आँच तक न आने दूँगी। मेरा वादा रहा कि यह मेरा कन्हैया एक लाख से भी ज्यादा कमाकर दे देगा, बिना भीख माँगे।’ आनंदी  की आवाज में उफनते दूध की झाक थी और उसने अपना अंतिम फैसला सुनाते हुए कहा, ‘मैं इसे लेकर जा रही हूँ।’
राजू जानता था कि अब वह अपनी पत्नी को रोक नहीं पावेगा। अतः एक आग्नेय बाण चलाकर वह बोला, ‘ठीक है, पर इसके पहले अपना लड़का मुझे सोंप दो। मैं भी तो देखूँ, इन दो में से कौन ज्यादा कमाने की काबिलियत रखता है।’ 
एक क्षण के लिये आनंदी को लगा जैसे उस शैतान ने अपने कलेजे को चीरकर भीतर के सड़े-गले  माँस को बाहर फैलाकर सारे वातावरण को बदबूदार बना दिया था। वह तिलमिला उठी और विक्षिप्त-सी राजू को नोचने आगे झपटी। ‘हे भगवान, इस शैतान का कुछ करो,’ वह चिल्लाई।
आनंदी की आवाज सुन अनाथालय के अन्य बच्चों को उस ओर आता देख, राजू ने तुरंत पैतरा बदला और शांत स्वर में बोला, ‘ले जा इसे, एक साल बाद तू स्वयं गिड़गिड़ाते हुए मेरे पास आवेगी। याद रखना।’
आनंदी उस बालक का हाथ पकड़े और गोद में अपने नन्हें शिशु को उठाकर चल पड़ी। चूंकि उस बालक को देखते ही आनंदी के मुख पर कन्हैया नाम आया था, इसलिये वह उसे कन्हैया ही कहकर पुकारने लगी थी। मैके में उसकी सहेली उस बालक को देख स्नेहवश बोली, यहाँ पास में भागवत कथा होनेवाली है। तू अपने इस कन्हैया को भगवत कथा में ले जाया कर। सब को ऐसा लगेगा जैसे स्वयं कृष्ण-कन्हैया कथा सुनने पधार गये हैं।’
और सच में, पहले ही दिन जब आनंदी कन्हैया को बाल-कृष्ण की तरह सजाकर कथा में ले गई, तो जिसने भी उसे देखा, वह उसके सुन्दर रूप को देख मुग्ध हो गया। कृष्ण जन्म के प्रसंग के दिन तो लोगों ने उसे गोद में उठाकर खूब प्यार किया और न्योंछावर भी चढ़ाई। लोगों ने आनंदी से कहा कि वह उस बालक को हर दिन के प्रसंग के अनुसार उसका श्रंगारकर कथा में लाये। फलतः कथा के सारे प्रसंग वात्सल्य रस की चरम सीमा पर पहुँचने लगे और न्योछावर में आये पैसों का ढ़ेर लगने लगा।
कन्हैया की यह ख्याति राजू तक पहुँच गई, तो वह भी एक दिन कथा सुनने आ गया। वह अपने कन्हैया का अति मोहक बाल स्वरूप देख रो पड़ा। शायद उसे पहली बार यह अहसास हुआ कि बच्चों में हुनर होता है और उन्हें अच्छी कला सिखाकर पुण्य व पैसा दोनों कमाया जा सकता है। आत्मग्लानी से तड़पता वह कथा के मंच पर चढ़ गया और बाल कन्हैया के चरणों पर गिरकर क्षमा याचना करने लगा . 
कहते हैं कि उस दिन जब वह अनाथालय वापस आया तो अपने हाथों से अपंग किये बालकों को देख, दहाड़ मारकर जमीन पर गिर गया। उसके बाद वह उठ न सका था। उसके प्राण पापग्रस्त शरीर का त्याग कर चुके थे।     .. .. .. भूपेन्द्र कुमार दवे .. .. ..

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ''बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.      

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