मेरा भारत महान

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देश के रग-रग में भ्रष्टता है, चाहे वो नोट बंदी में चीखे या न चीखे। मुझे बस एक ही ईमानदार दिखाई दे रहा है। इस कुरुक्षेत्र में वो प्रधान सेवक है, वो बर्बरीक है, जिसने अपने ही हाथों अपनी गर्दन काटकर (भ्रष्टाचार मुक्त करने का संकल्प लेकर) खूब तमाशा देख व दिखा रहा है।

मेरा भारत महान, जहाँ का जनजन बेईमान 

हमारे भारत देश में ईमानदार वही है जिसके टेबल पर पैसा पहुंचने का आगम नहीं है । जिसके टेबल पर पैसा
घूसखोरी
नहीं,वही सही टाइम पर ऑफिस आता है और आफिस छोड़ देता है। जब टेबल पर माल-पानी आने लगता है तो जल्दी आफिस में कर्मचारी भी आने लगते हैं और 8 बजे शाम तक जनसेवा भी करते रहते हैं। यह उनकी उपरी कमाई का साधन होता है । इसकी समाज में पूरी वकत होती है। यह उनका स्पेशल स्टेटस होता है। वेतन तो वह केवल नाम मात्र के लिए लेते रहते हैं।
इस देश में पुलिस भ्रष्ट तभी तक लगती है जब तक किसी का बेटा दारोगा में भर्ती नही हुआ होता है। परिवार में जब कोई पुलिस में आ जाता है तो सारा पुलिस का सिस्टम पाक-साफ दिखाई देने लगता हैं। पहले की जाने वाली सारी आलोचना खुदबखुद रुक जाती है।
इस देश में टीचर तभी तक निट्ठले लगते हैं जब तक उनकी बेटी टीचर नही बनी है। परिवारीजन के टीचर बनते ही वही टीचर गुरु ब्रह्मा के सदृश्य हो जाते है। उनके परिवार की इज्जत समाज में बढ़ जाती है और उनके द्वारा की जाने वाली सारी आलोचनायें खुदबखुद बन्द हो जाती है। 
जैसे जर्मन जन्म से ही योद्धा, जापानी जन्म से नियम मानने वाले होते हैं। वैसे ही हम भारतवासी जन्म से भ्रष्ट होते हैं।भ्रष्टता हमारे ब्लड और संस्कार में जगह बना रखी है। ये मात्र कानून बनाने से नहीं जाने वाला है। हम समाज की चकाचैध में अपनी दृष्टि पर परदे का आवरण डाल लेते हैं। दूसरों का वैभव व चमक-दमक देखकर हम उल्टे-सीधे हरकतों से उससे आगे बढ़ने का प्रयास करने लगते हैं और हमारी सारी संवेदनायें समाप्त हो जाती हैं। हमें केवल पैसा या मुद्रा ही दिखाई देती है। हम उसकी चकाचैंध में वह सब करने लगते हैं जिसे ना करने के लिए हमने कसमें खाई है और संविधान या कानून जिसे मना कर रखा है।
नियम और कानून एक का मुँह बंद करता है, तो दूसरे प्यासे प्रतीक्षित का मुँह खोल भी देता है। एकलव्य के साथ नाइंसाफी का रोना रोने वाले अपने भीतर का द्रोण नहीं देख पाते हैं । जिस प्रकार अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से जुड़े होते हैं।उसी प्रकार हमें अपने हित के लिए, वह सब अपना अधिकार समझने लगते हैं जो दूसरे के लिए सबब बनती है या बनने जैसा लगती है। हाथी के दंत खाने को और तथा दिखाने को और होते हैं। हम भी उसी प्रकार समाज में दोहरा चरित्र जीने लगते हैं और वह सब बड़े हक से करने लगते हैं, जिसे और अपना हकतल्फी मानते हैं।
भारत देश के ज्वेलर्स को 8 नवम्बर 2016 की तारीख को पूरा मौका मिला। उन्होंने अपनी खूब कमाई किया। सोने- चांदी के भावों में अचानक उछाल आ गया। दुकाने रातों-दिन खुली रहीं। पुरानी नोंटों की जगह आभूषण व
डा.राधेश्याम द्विवेदी
डा.राधेश्याम द्विवेदी
सोनें की ईंटें, धनकुबेरों के तिजोरियों एवं गुप्त तहखानों में आने लगीं। जिस पर लक्ष्मी जी मेहरबान है, वह उनके प्रसाद की गंगा में डुबकी क्यों ना लगाये ? आज जब छापों में यह सबके सामने आ रही है। लोग इसे देख-सुनकर अपने को धन्य मान रहे हैं । उन्हे अपने को भारतवासी होने का गर्व महशूस हो रहा होगा। 
इसके बाद बैंक मैनेजर की बारी आयी है। उन्होंने दो-दो हजार रुपयों के लिए पूरे देश के लोगों को लाइन में खड़ा करा दिया। कुछ दिनों की अपनी छुट्टी बरबाद किया। पिछले रास्ते से जान-पहचान वाले अपने काले को सफेद करने के लिए सम्पर्क किये तो कमीशन में घर आने वाली लक्ष्मी का निरादर कैसे करते ? जनता तो उल्टे उन्हे सलूट भी करने लगी थी। मान सकता हूँ कि सबके सब बैंक वालों के हिस्से में लक्ष्मी जी नहीं आई होंगी, तो क्या उन्हें इस हेराफेरी की जानकारी भी नहीं रही होगी ? यदि देश के प्रति एक भी बैंक जन अपना सही फर्ज निभाता, तो नोटवन्दी सफल होकर रहता है और जनता इतना परेशान भी नहीं होती। और ना सरकार को माननीय उच्चतम न्यायालय तथा चुटभैयों पप्पू, केजरी व दौलत की वेटियों के ताने सूनने को मिलते। 
शायद कल किसी इन्कम टैक्स वाले की बारी आ सकती है। क्या उन्होंने ही सारी ईमानदारी का ठेका ले रखा है? वे भी इसी समाज के अंग हैं । उनकी भी जरुरतें होती हैं। मंहगाई में केवल वेतन से परिवार पालने में उन्हें भी तकलीफ होती होगी। सब कोई मोदीजी तरह फकीर तो हैं नहीं। वह प्रधानमंत्री के साथ ही साथ स्वयं को प्रधान सेवक भी मानते हैं। उन्हें राजपद मिला है तो वह रामराज्य लाने को सोच सकते हैं। परन्तु राम के राज में एक सामान्य दलित के कहने पर रामजी ने अपनी पवित्र धर्मपत्नी का क्या त्याग नहीं किया था ? देश की सेवा के लिए क्या मोदीजी यह त्याग नहीं कर रहे हैं? रामजी तो सर्व शक्तिमान थे। वे सबके मन की भी जानते थे और तदनुकूल करते भी थे। मोदीजी के अधिकारी मोदीजी जैसे कैसे बन सकते हैं? वे सेवक तो हैं नही, वे तो अधिकरी हैं और परिवार वाले हैं। इसलिए आगे किसकी बारी आयेगी यह कह पाना मुश्किल है?  
कल तक महँगी प्याज होने पर लोग कहते थे कि देश की करोडों जनता नमक-प्याज खाकर जीवन जीती है, और आज वही गरीब-जनता ना जाने कौन सा धन जमा भी कर रही है और निकाल भी नहीं पा रही है। फिरभी भीड़ छटने का नाम नही ले रहा है। यह भाड़े का भीड़ भी हो सकती है। इसके पीछे कोई ना कोई गिरोह या संगठन भी सक्रिय हो सकता है। यही गिरोह या संगठन ही आज आम जनता का हितौशी बन भूंक भी ज्यादा रहा है।
नोट बंदी अपने उद्देश्य में सफल है या असफल इसका परिणाम आने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा। इस बात पर तो मुहर लग गयी है कि हमारे भारत देश में 100 में 90% बेईमान हैं फिर भी मेरा भारत महान हैं ।मैंने घर-घर में देखा है कि एक घर में औरत जब 4 बच्चों को दूध देती है, तो अपने बेटे की गिलास में थोड़ी ही सही, पर मलाई अधिक डालती है। भाई अपने सगे भाई को पुश्तैनी जमीन एक हाथ टुकड़ा भी अधिक देने को राजी नही होता। परिवार का कोई सदस्य कितना भी कमायें ,पर बाप के पेंशन पर नज़र जरुर रहेगी कि कहीं बेटी को कुछ दे तो नहीं रहे हैं ?
इस देश में बेईमानी की पहली पाठशाला परिवार ही है। हम चाहते हैं की लंगोट पहनने वाला गाँधी पड़ोस में पैदा हो
और अपने घर गुलाब लगाने वाला नेहरु पैदा हो ।ये देश शराब को नापाक हराम कहके अफीम-गाँजा पीने वालों का देश है। अपनी बेटी-बहनों को सात तालों , बुरके वा परदे से छुपाकर ढ़कने वाला दूसरों की बेटी-बहनों को घूरने (X-Ray करने) वाला देश है।
इस देश के रग-रग में भ्रष्टता है, चाहे वो नोट बंदी में चीखे या न चीखे। मुझे बस एक ही ईमानदार दिखाई दे रहा है। इस कुरुक्षेत्र में वो प्रधान सेवक है, वो बर्बरीक है, जिसने अपने ही हाथों अपनी गर्दन काटकर (भ्रष्टाचार मुक्त करने का संकल्प लेकर) खूब तमाशा देख व दिखा रहा है। उस बर्बरीक ने सबको नंगा करके रख दिया है । अपनों को,गैरों को, मुझको, आपको और सबको।हम यदि उसको सहयोग ना कर सके तो कमसे कम हो-हल्ला करने वालों को रोकने-टोकने वा जनता में उसके सही मैसेज को पहुंचाने का काम तो कर ही सकते हैं। कम से कम इतना तो कह ही सकते हैं कि 70 साल से पनपा यह कैंसर का रोग, एक ही आपरेशन या थिरौपी से एक ही बार में, पूरा का पूरा ठीक नहीं हो सकेगा। इसमें वक्त भी चाहिए और सब्र भी ,त्याग भी चाहिए और बलिदान भी। यदि एसा हो सका तो वह दिन दूर नहीं कि भारत एक बार फिर जगत का गुरु ना बन सके। उसे सोने की चिड़िया बनने से कोई भी नहीं रोक सकेगा।

डा.राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य तथा ग्रंथालय विज्ञान की डिग्री तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) की डिग्री उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए.डिग्री तथा’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। बस्ती ’जयमानव’ साप्ताहिक का संवाददाता, ’ग्रामदूत’ दैनिक व साप्ताहिक में नियमित लेखन, राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, बस्ती से प्रकाशित होने वाले  ‘अगौना संदेश’ के तथा ‘नवसृजन’ त्रयमासिक का प्रकाशन व संपादन भी किया। सम्प्रति 2014 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा मण्डल आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्यरत हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं। 

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