जय जवान, जय किसान

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भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के इन शब्दों ने बता दिया था कि किसानों का पसीना ही हमारे जवानों की रगों में जाकर खून बनकर प्रवाहित होने लगता है।

जय जवान, जय किसान 

ग्राम पथरिया की लच्छोबाई का सभी आदर करते थे। उसका पति खेती करता था और बेटा जवान होकर सेना में भर्ती हो गया था। गाँव में सम्मान मिलने का इससे बड़ा कारण और क्या हो सकता है। खासकर इसलिये कि उस  समय ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे की गूँज सर्वत्र सुनाई पड़ती थी। लोगों को अपने किसानों व जवानों पर गर्व था। भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के इन शब्दों ने बता दिया था कि किसानों का पसीना ही हमारे जवानों की रगों में जाकर खून बनकर प्रवाहित होने लगता है। 
जय जवान, जय किसान देश के हर किसान की तरह लच्छोबाई का पति हरकिशन खेती करते समय गर्व से पसीना बहाना जानता था। परन्तु उसकी सफलता प्रायः बारिश पर निर्भर करती थी। वह बिचारा इतना खुशनसीब नहीं था कि कोई नहर उसके खेत की तरफ रुख कर बहती। कहा भी गया है कि किसानों की फसल सृष्टि द्वारा निर्मित प्रकृति पर निर्भर करती है तो जवान सैनिकों का जीना-मरना मानव की प्रकृति पर आश्रित रहता है।
और सच तो यही है कि सृष्टि की प्रकृति और उसके साथ मानव प्रकृति पर विश्वास करते जीना एक जटिल काम है। वे कब बिफर जावे, कोई नहीं कह सकता। सृष्टि का प्रकृति कभी सूखे में बिंध जाती है तो कभी बाढ़ लाकर सब कुछ तबाह करने पर उतर जाती है। फिर भी ऐसी मान्यता है कि ईश्वर  की रचित इस प्रकृति में एकलय बद्धता है और उसके स्वरूप का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके विपरीत मानव की प्रकृति ज्वारभाटे की तरह हिलोरे पैदा करती डराती जाती है और कहा नहीं जा सकता कि वह कब ज्वालामुखी बन प्रलय मचा दे।  
किन्तु हरकिशन आत्मविश्वास का धनी था। उसकी जिन्दगी वो साँसें लेना जानती थी जिनका हर परिस्थिति से तालमेल जम जाता था। सच है, सृष्टि की प्रकृति के साथ एक रस होकर जीना आनंद का संचार करनेवाला होता है। वहीं मानव प्रकृति भी शान्ति की उपासक बन जीवन को सार्थक साबित करने में सफल हो जाती है।
किन्तु प्रकृति का अर्थ ही है कि अपने-आप की पुनरावृत्ति करते रहना। हरकिशन को हताश करने एक बार बाढ़ ने सब कुछ चौपट करने की ठान ली और फिर सूखे ने आकर खेती को निर्जीव कर दिया। सरकारी मदद जो किसानों को मिलनी चाहिये, उसे हमेशा उन हाथों से गुजरना पड़ता है जो मुफ्त की कमाई पर ही जीना जानते हैं। सभी किसानों की तरह हरकिशन अपने आप को असहाय पाकर मचल उटा। वहीं लच्छोबाई ने खाट पकड़ ली। बीमारी अपने प्रकोप के स्तर से गरीबों को अनभिज्ञ रखना चाहती है। बीमारी क्या है, कैसी है आदि सिर्फ डाक्टर ही बता सकता है, पर उनके ज्ञान की तिजोरी बिना पैसे के खुलती भी तो नहीं है। लच्छो बीमार थी और गरीब की बीमारी उसकी सृष्टि को खाट के चौखट के अंदर सीमित कर देती है। हरकिशन के अंतः की उथल-पुथल भी इस सीमा को लाँधने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी।
हरकिसन अपने को चौतरफा मुसीबतों से घिरा पा रहा था। ऐसी स्थिति में हताशा का साम्राज्य इतना विस्तृत हो जाता हे कि साँसों को फेफड़ों में प्रवेश करने में दिक्कत होने लगती है। हरकिशन अपने अंतः की उथल-पुथल से हिम्मत खोता जाने लगा था। उसमें यह भी हिम्मत नहीं थी कि लच्छो को अपनी परेशानी जाहिर कर सके। यह वह स्थिति थी जहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन से संपर्क छोड़ने की सोचने लगता है।
भूपेन्द्र कुमार दवे
भूपेन्द्र कुमार दवे
हरकिशन ने आत्महत्या के साथ एक चिठ्ठी लिख दी थी। वह जानता था कि वह अंतःवेदना इसी तरह व्यक्त कर सकता है। पहले वह लच्छो को सब कुछ बता देना चाह रहा था। यदि वह ऐसा करता तो खुदकुशी करने का भूत ही भाग जाता --- लच्छो हर पत्नी की तरह उसे हिम्मत देती और जीने की चाह बलवती हो जाती।
हरकिशन ने खेती की तबाही का किस्सा तो लिख ही दिया था और साथ ही उन बातो का भी जिक्र किया जो अभी तक वह लच्छो से छिपाकर रखा हुआ था। उसने जो लिखा उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। क्षेत्र के नेता उसकी जमीन हतियाना चाह रहे थे। हरकिशन के खेत से लगी जमीन इसी नेता की थी और उन्होंने ही बाढ़ व सूखे पर हरकिशन को मिलनेवाली सरकारी मदद को डकार लिया था। सूखे के दिनों जिस कुऐं से हरकिशन सिंचाई के लिये पानी लेता था, उसे भी बंद करा दिया था। अपनी जमीन पर ईंट का भट्टा लगाकर हरकिशन की परेशानी को और बढ़ाने तक का प्रयास वे नेता कर चुके थे। 
अंत में जिन्दगी की वह हकीकत उसने सामने रखी जो कलेजे को चीरकर चिथड़े करनेवाली वह बात थी, जिसे शायद ही कोई पिता सहन कर पाता हो। उसने लिखा, ‘लच्छो, हिम्मत रखना, मेरी तरह कमजोर मत हो जाना। मैं तो शक्तिहीन सदा ही रहा हूँ और वास्तव में तुम्हीं मेरी शक्ति रही हो। तुम्हें अपने में निहित इस शक्ति का सम्मान करना है। धीरज रखना। कल हमारा बेटा शहीद के जैसा सजकर घर के द्वारे आवेगा। मैं यह नहीं देख पाऊँगा। तुम्हें ही उसका स्वागत करना होगा। मैं जानता हूँ कि इस स्वागत की घड़ी में आँसुओं को थामे रखने की शक्ति एक माँ ही जुटा सकती है। पिता होने के नाते मैं रो पडूँगा, टूट जाऊँगा। एक बूढ़े पिता की इस हरकत से तब शहीद बेटे का क्या सम्मान हो पावेगा?’ 
खुदकुशी का मामला था, इसलिये पुलिस आ गई। उन्होंने देखा कि लच्छो हाथ में वह चिठ्ठी लिये बेहोश-सी शव के पास पड़ी थी। लेकिन लच्छो ने वह पत्र पुलिस को देने से इन्कार कर दिया। यह उसके पति का आखरी निशानी बतौर पत्र था और वह उसे अपने शहीद हुए बेटे को दिखाने सहेजकर रखना चाहती थी।
पर विडम्बना कुछ और थी। उस पत्र पर राजनीति होने लगी थी। नेताजी उस पत्र को किसी भी हालत में हासिल करना चाह रहे थे। लच्छो को पेसे की लालच दी गई। नेताजी ने खुद की बोली को एक लाख से बढ़ाकर पाँच लाख तक पहुँचा दिया।
उधर, शहीद बेटे का शव आने में देरी लग रही थी। हरकिशन के शव को भी बर्फ में रखने की व्यवस्था की जा चुकी थी। लोगों के आने व श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का सिलसिला लगातार चल रहा था। शहीद के पिताश्री को लोग तहेदिल से सम्मान देने उतावले हो रहे थे।
दूसरे दिन सुबह से ही भीड़ जमा होने लगी थी। लच्छोबाई के घर के बाहर ‘जय जवान, जय किसान’ की आवाज गूँज रही थी। शहीद बेटे के शव के आने की प्रतीक्षा हो रही थी। तोपगाड़ी तैयार की जा रही थी। अपने बेटे को देखने उसकी माँ बाहर आकर इस द्दश्य को कैसे देख पावेगी? माँ का हृदय फट जावेगा। उसकी आँखें पथरा जावेंगी। आँखें कैसे समझेंगी कि कौनसा आँसू कब, किसके लिये बहाने हैं --- शहीद बेटे के लिये या अपने सुहाग के अंतिम दर्शन के लिये।
सभी को माँ के बाहर आने का इंतजार था। कुछ सैनिकों को शहीद माँ के पास भेजा गया। पर उनके अंदर पहुँचते ही भूकंप-सा आ गया। बाहर खड़ी भीड़ थर्रा गई। पता चला कि अपने बेटे के अंतिम दर्शन पाने के लिये माँ बाहर नहीं आ सकेगी। किसी ने धारदार हथियार से रात में उसकी हत्या कर दी थी और वह पत्र जिसे वह अपने वीर पुत्र को दिखाने सहेजकर रखी थी --- वह चुरा लिया गया था।
                                                                  
 यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ''बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.      

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