भारत में मानसून आ गया है। प्रत्येक वर्ष मानसून आने से पूर्व भय सताता है कि किसानों की आशा इस बार भी निराशा के प्रेत में न बदल जाये।
पर्यावरण से प्रेम
भारत में मानसून आ गया है। प्रत्येक वर्ष मानसून आने से पूर्व भय सताता है कि किसानों की आशा इस बार भी निराशा के प्रेत में न बदल जाये। महाराष्ट्र दो साल से इस विपदा का सामना कर रहा है। प्रति वर्ष 5 जून को
पर्यावरण की सुरक्षा के प्रण को हम सरकारी या किसी संस्था का उत्तरदायित्त्व समझकर भूल जाते हैं। जब केदारनाथ त्रासदी जैसे दृश्य दिखाई देते हैं, तब कुछ देर के लिए हमारी अवचेतना जागृत होने का प्रयास करती है। भूल जाते हैं हम कि पृथ्वीलोक को स्वाभाविक रूप से विकसित करने में पर्यावरण ही हमारा सहयोगी है।
हमारे पूर्वज भी हमें पर्यावरण से प्रेम करना सीखाते आये हैं। चाहे वह राजा-महाराजा हों या साधारण व्यक्ति, सबकी शिक्षा-दीक्षा वनों में होती थी। वानरों व रीछों का श्रीराम की सहायता करना मनुष्य व पशुओं के बीच सामंजस्य को दर्शाता है। 'संजीवनी' जैसी प्राणरक्षक बूटी उस समय के पर्यावरण की शुद्धता की द्योतक है। श्री कृष्ण का गौ-प्रेम भी सबका मन मोह लेता है।
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मधु शर्मा कटिहा |
भारत में कुछ समय पूर्व तक खाने के लिए प्लेटों के स्थान पर पत्तल का प्रयोग किया जाता था, जो पेड़ के पत्तों से बनी होती है। केले के पत्ते पर भोजन करने की परम्परा भी हमारी संस्कृति का भाग है। खाने के बाद ये पत्ते पुनः खाद के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं.न कि प्लास्टिक की प्लेटों या पोलीथिन की थैलियों की तरह पर्यावरण दूषित करने का कारण। मिट्टी के कुल्हड़ का प्रयोग भी कम महतवपूर्ण नहीं है। इसके अतिरिक्त हमारे पूजा-पाठ में में भी पर्यावरण प्रेम झलकता है। शास्त्रों में कुशा (हरी घास) का बहुत महत्व बताया है। आम के पत्ते भी शुभ कार्यों में सजावट के काम आते हैं। धार्मिक कार्यों में तुलसी के महत्व से शायद ही कोई अनभिज्ञ हो। वट- सावित्री व्रत में वट वृक्ष तथा कुछ व्रतों में ग्वारपाठा(एलोवीरा) वृक्ष की पूजा होती है। दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाना क्या पर्यावरण की सुरक्षा का अंग नहीं है ?
मानव जीवन का विकास व प्रगति सकारात्मक सुख देने के साथ-साथ नकारात्मक रूप से हमारे पर्यावरण को भी प्रभावित कर रही है। इसका प्रभाव हमारे जीवन के विभिन्न पहलूओं यहाँ तक कि बौद्धिक एवं मानसिक स्तर पर भी पड़ता है। कहते है न कि अच्छे कर्म करके ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है। क्यों न वृक्षारोपण करके, जूट व कागज़ की थैलियों का प्रयोग करके व सरकार द्वारा पर्यावरण के हित में बनाये गए नियमों का पालन करके हम पृथ्वी को ही स्वर्ग बना दें। सुन्दर पर्यावरण से श्रृंगार करके उसे सजा दें। समुद्रीय प्रदूषण, विकिरण प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण व ग्लोबल वार्मिंग सरीखे राक्षसों का संहार करने को तत्पर रहें।
पर्यावरण को नष्ट होने से बचने के साथ-साथ गुरु मानकर सीख ही ले ली जाए। श्रीनाथ जी सिंह जी की पंक्तियाँ----
"फूलों से नित हँसना सीखो, भवरों से नित गाना,
तरु की झुकी डालियों से, नित सीखो शीश झुकाना।
यह रचना मधु शर्मा कटिहा जी द्वारा लिखी गयी है . आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी साइंस में स्नातकोत्तर किया है . आपकी हिन्दी पठन-पाठन व लेखन ----कुछ कहानियाँ व लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
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