कौन जनम का नाता ?

SHARE:

सुवर्णा घर से कुछ ही दूर आई थी कि घनी छाई काली बदली ने मोटी-मोटी बूँदें गिरानी शुरू कर दी। यही बदली कुछ देर पहले मन को लुभा रही थी, सैर सपाटे को उकसा रही थी और अब घर से निकाल कर मानों मुँह चिढ़ाने लगी। सुवर्णा के कदम उसी गति से तेज हो रहे थे जिससे वर्षा।

कौन जनम का नाता ?

सुवर्णा घर से कुछ ही दूर आई थी कि घनी छाई काली बदली ने मोटी-मोटी बूँदें गिरानी शुरू कर दी। यही बदली कुछ देर पहले मन को लुभा रही थी, सैर सपाटे को उकसा रही थी और अब घर से निकाल कर मानों मुँह चिढ़ाने लगी। सुवर्णा के कदम उसी गति से तेज हो रहे थे जिससे वर्षा। चंद सैकड़ों में ही आड़ी मोटी तेज बूँदें बदन में सुई की तरह चुभने लगी और सुवर्णा ने दौड़ लगानी शुरू कर दी। एक बार मन ने चाहा कि लौट पड़े। पर सामने इस गली के पार ही रिक्शा की उम्मीद ने उसके इरादे को बदल दिया। जब एक गली पार करते ही मयके का रास्ता मिल रहा हो तो भला दो गली लौटकर ससुराल जाने का किसका दिल होता है। हर ऊँचाई पर पहुँचकर भी अभी भारतीय समाज में मयका नारी के लिए लुभावना बना हुआ है। भले ही लालच न हो पर आनंद तो है ही। चंद घंटो या दिनों में ही वह पूरा बचपन जी लेती है। सुवर्णा ससुराल से मौसी के घर जाने को निकली थी और बदली ने ऐसा उत्पात मचा दिया। परन्तु वह पीछे न मुड़ी। कीचड़ भरी गली में कदमों को साधती, पल्लू से सिर को ढ़कती और बीच-बीच में तेज हवा में उड़ती साड़ी को सँवारती मुख्य सड़क तक आ पहुँची। पीछे से आते रिक्शे को रोक उसमें बैठ गई। यह समय रिक्शे वाले से पैसे तय करने का नहीं था, बस एक ही लालसा थी कि वह सुरक्षित यथाशीघ्र गन्तव्य तक पहुँचा दे। दस ही मिनट में सुवर्णा मौसी के घर के सामने उतर गई। सुवर्णा ने रिक्शे वाले को बीस का नोट दिया। उसने भीगे हाथों से जेब टटोली। बोला-“खुले नहीं है जी मेरे पास।” सुवर्णा ने उसे नोट रखने का इशारा करते हुए कहा- “जाओ-जाओ”
सुवर्णा दो सीढि़याँ चढ़ कर घर के दरवाजे पर खड़ी हो पल्लू निचोड़ने लगी। उसने प्रभा-प्रभा दो तीन तेज आवाजें लगाई। घंटी बजाने का कोई लाभ नहीं था। यह शहर बिजली की बचत में इनाम पाने के योग्य है। बस दुर्भाग्य है कि अभी इस क्षेत्र में किसी पुरस्कार की कोई योजना बनी नहीं है। सुबह-शाम पाँच बजे से दस बजे तक और दोपहर व रात्री में तीन-तीन घंटे लाइट कट का यहाँ पुराना नियम अनवरत रूप से जारी है। इस घोषित कटौती के अतिरिक्त कभी भी कितनी भी अघोषित कटौती की बिजली विभाग को पूरी छूट है। शेष मौकों को भी गँवाया नहीं जाता। आँधी बारिश की आशंका मात्र से ही लाइट काट दी जाती है। सुवर्णा अभी यह विचार ही रही थी कि प्रभा ने आकर दरवाजा खोल दिया। “अच्छा, तो बहन जी सुबह से इसी इंतजार में थी कि कब बारिश हो और मैं भीगती हुई निकलूँ।” प्रभा ने हँसकर कहा। “नहीं ऐसा इंतजार तो नहीं था। बस बहुत दिनों से बारिश में भीगी नहीं थी। बदली ने वही कसर पूरी कर दी है। इतना बोलते हुए वह बरामदे में पहुँच गई।”
प्रभा ने कुर्सी आगे सरका दी। तभी प्रभा को ख्याल आया “पहले कपड़े तो बदल लो जी। बैठोगी कैसे?” प्रभा ने एक जोड़ा कपड़े लाकर सुवर्णा को दे दिए। सुवर्णा पर्स रखकर बाथरूम में चली गई। 
कुछ देर बाद सुवर्णा ने बाथरूम से निकल कर गीले कपड़े बरामदे में फैला दिए और बालों को तौलिए से रगड़कर कमर पर फैला लिया। वह कुर्सी पर आराम से बैठ गई। तब तक प्रभा दो कप चाय लेकर आ गई। एक कप सुवर्णा को पकड़ा कर दूसरा कप खुद लेकर उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई। बातों का सिलसिला शुरू हो गया। प्रभा और सुवर्णा बचपन से साथ खेली, रही थी। हम उम्र थीं। इसी से उनकी बातें बेतकुल्लुफ होती थीं। जिसमें जोरदार ठहाके, फुस्फुसाकर बोलना, तेज बोलना या बीच-बीच में किसी बालक को आवाज लगाकर कोई काम बता देना या बातों में शामिल कर लेना सब कुछ शामिल था। बातों का विषय भी घर या रिश्तेदारी में जन्मा नवजात से लेकर भगवान को प्यारे हो गए दो तीन पीढ़ी पुराने बुजुर्ग तक कोई भी हो सकता था। चचेरे, फुफेरे, ममेरे भाई बहनों को भी याद किया जाता था। कुछ देर बाद भाभी रिचा भी आकर बैठ गई। खाने की तैयारी करते हुए वह भी बातों में भागीदारी करने लगी। 
थोड़ी देर में एक लगभग पैंतीस साल की युवती रिचा के सामने से बिनी दाल उठा ले गई और सब्जी काटने को रख गई। उसने हल्की सी झुककर सुवर्णा को नमस्ते की। “खुश रहो।” कहते हुए सुवर्णा ने आशीर्वाद में हाथ उठा दिया। इसी के साथ सुवर्णा को लगा कि यह चेहरा इस घर में नया है। उसने रिचा से पूछा- “यह कौन है?” स्तुति दाल उठाकर रसोई में आ गई परन्तु प्रश्न जैसे उसकी पीठ पर चिपक गया। मैं कौन हूँ? यहाँ क्यों हूँ? आखिर मैं इनकी क्या लगती हूँ? जो मुझे बेटी मानते हैं। जिसने जन्म दिया और जिसकी गृहस्थ की गाड़ी मैंने अकेले पन्द्रह साल बगैर उफ किए खींची, मैं उसके घर में क्यों नहीं हूँ? जिस घर में भाई बहनों का हक बगैर एक पैसा दिए भी मौजूद है वहाँ अपनी कमाई का पाई-पाई माँ के हाथ में थमा देने के बाद भी मेरा क्यों नहीं? मैं घर से क्यों निकाल दी गई? जैसे प्रश्न स्तुति के मस्तिष्क को मथने लगे। वह असहज सी चौके में काम कर रही थी। पर मन यहाँ से पचास किलोमीटर दूर कस्बे के एक दो कमरे वाले छोटे से घर में भटक रहा था। वह वहीं तो जन्मी थी। सत्रह साल की उम्र में पिता के देहांत के बाद वह छोटी दो बहनों और भाई के लिए माँ जैसी बड़ी हो गई थी। पिता की पेंशन सबका पेट भरने को भी मुश्किल से थी। शेष जरूरतों के लिए माँ पास के कपड़ा मिल में आठ-दस घंटे कड़ी मशक्कत करती थी। स्तुति ने इण्टर में गणित में विशेष योग्यता हासिल कर विद्यालय में द्वितीय स्थान पाया था। तीन साल स्नातक करने के बाद पहले प्राइवेट और फिर ट्रेनिंग के बाद सरकारी स्कूल में नौकरी पा ली। नौकरी मिलते ही उसने माँ को काम पर जाने से मना कर दिया। क्योंकि माँ का स्वास्थ तीन सालों में ही बहुत गिर गया था। फिर किसी का घर रहना भी जरूरी था। 
स्तुति की दिनचर्या दिनों-दिन व्यस्त होती चली गई। भाई बहनों के बड़े होने के साथ उनके खर्च भी बड़े होने लगे और माँ को तीन बेटियों की शादी की एक बड़ी जिम्मेदारी ने घेर लिया। स्तुति सुबह पाँच बजे उठती तो रात ग्यारह बजे तक उसे सांस लेने की फुर्सत न मिलती। बैच के बैच ट्यूशन। सुबह शाम यही सिलसिला। दिन भर स्कूल और जरा समय मिलते ही माँ की देखभाल व भाई-बहनों की समस्याओं को निबटाना। धीरे-धीरे उसने आय का हिसाब रखना भी छोड़ दिया। किस बैच में कितने छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं? कौन कब कितना पैसा देता है? पैसे को कहाँ खर्च करना है यह पूरा दायित्व माँ ने सम्भाल लिया। स्तुति का विषय गणित था। जहाँ पढ़ने वालों की कमी नहीं थी। बस कमी थी तो दिन में घंटों की। यदि उनमें चार छः घंटे और बढ़ाए जा सकते तो स्तुति निश्चय ही और अधिक पैसा कमाती। 
स्तुति की माँ बीना उसकी सबसे खूब तारीफ करती। स्तुती इससे और अधिक पैसा कमाने और भाई बहनों के लिये साधन जुटाने को उत्साहित हो जाती। यदि कभी वह ढील भी देती तो माँ अधीर हो जाती। वह घर की जिम्मेदारियों की फहरिश्त गिनाने लगती। स्तुति सदैव सतर्क रहने का प्रयास करती और पैसा कमाने का छोटे से छोटा अवसर भी हाथ से जाने न देती। पहले साल में ही स्तुती ने छोटी बहन और भाई का दाखिला इंग्लिश मीडियम स्कूल में करा दिया। मझली बी.ए. में आ गई थी। घर में खाने पहनने का स्तर सुधरने लगा। फर्नीचर में बढ़ोत्तरी होने लगी। साल दर साल बीना के गहने नए व वजनदार बनवांए जाने लगे। एक अच्छी बस्ती में बड़ा प्लाट खरीद लिया गया। पिता के देहांत का दुःख धीरे-धीरे कम होने लगा। मझली बहन का बी.ए. पूरा हुआ तो उसने एक छोटे स्कूल में नौकरी कर ली। वह जितना कमाती उससे अधिक खर्च करती। माँ का नियंत्रण उस पर अधिक न चल पाता। मन मर्जी से फैशन बनाती, घूमती और खाती। बीना को जल्दी ही समझ में आ गया कि उससे घर में मदद की कोई उम्मीद रखना व्यर्थ है। अतः उसने स्तुति की सलाह से उसकी शादी कर देने का मन बना लिया। गहने कपड़े की खरीदारी की जाने लगी और उसकी शादी कर दी गई। बीना ने जितना खर्च करने का सोचा था उससे भी कम में ही काम निबट गया। परन्तु बीना ने रिश्तेदारों और मिलने वालों को इस तरह समझाया कि जैसे वह कर्ज में दब गई है। अक्सर कहती रहती- “अभी गहना कपड़ा और फर्नीचर वालों का बहुत बकाया है। उतारते वर्षों लग जाएंगे। अभी दो तीन साल मैं स्तुति की शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती।” कभी स्तुति की संतुष्टि के लिए कहती- “स्तुति की शादी तो मैं ठीक ढंग से करूंगी। इतने कम में काम नहीं चलेगा।” “माँ को इतनी चिंता की आवश्यकता नहीं है। जब तक भाई किसी अच्छी नौकरी में नहीं आ जाता वह स्वयं ही शादी करने को तैयार नहीं है।” स्तुति सोचती।
समय अपनी गति से दौड़ता रहा और स्तुति अपने दायित्वों की पूर्ति में लगी रही। साल पर साल बीतते रहे। घर में स्तुति के लिए किसी रिश्ते की बात जोर से चलती और फिर अंतिम निर्णय तक पहुँचने से पहले ही समाप्त हो जाती। बीना ने उसके लिए इतने ऊँचे मानदण्ड निर्धारित कर लिए थे जो कि साधारण मध्यम परिवार में मिलने संभव नहीं थे और निम्न मध्यम परिवार से भला उच्च स्तरीय कोई परिवार संबंध जोड़ने को क्यों तैयार होता। बीना स्तुति की योग्यता को बहुत बड़ी बात मानती थी। परन्तु शादी में रंग रूप का भी अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है और योग्यता से भी अधिक लड़की का सौंदर्य उसे निम्न परिवार से उच्च परिवार में पहुँचाने में भूमिका निभाता है। बीना या तो इस बात से अनभिज्ञ थी या इस अनभिज्ञता को स्तुति की शादी टालते रहने के लिए इस्तेमाल करती थी। इसे उसके अतिरिक्त दूसरा नहीं जानता था। स्तुति तो रात दिन अधिक से अधिक पैसा कमाने, घर में सुख सुविधाएं जुटाने और भाई-बहनों की समस्याएं सुलझाने में लगी रहती। माँ के लिए एक अच्छा सा घर बनवाना, भाई को उच्च शिक्षा दिलवाना और बहन को अपने पैरों पर खड़ा करने जैसे कई लक्ष्य उसने स्वयं ही अपनी शादी से पहले पूरा करना अपने लिए निश्चित कर लिए थे। वह तन्मयता से उन्हें पूरा करने में जुटी रहती। 
अपर्णा शर्मा
अच्छे इंजिनियरों व नक्शा नवीस की सलाह तथा उच्च स्तरीय इमारती सामान लगाकर दुमंजला मकान बनवाया गया। बीना ने उसे कुछ इस तरह डिजाइन कराया कि यदि बेटा कभी किसी कारणवश नौकरी न करना चाहे तो निचली मंजिल में अपना कारोबार कर सके और ऊपरी मंजिल में आराम से रहा जा सके। बीना की मकान की सोच पूरी तरह बेटे की जरूरतों के अनुरूप थी। बेटियों के भविष्य से जुड़ा एक कोना भी नहीं था । हाँ निचली मंजिल पर ही उसने एक बड़ा कमरा जिसमें उसकी बुढ़ापे की सब जरूरतें, भगवान के मंदिर सहित आ सकें बनवाया। भाई बारहवीं पास कर चुका था। वह तकनीकी प्रतियोगिताओं की तैयारी कर रहा था और बहन पढ़ने के लिए बाहर चली गई थी। बीना मकान के काम में स्तुति से अधिक बेटे की सलाह को महत्त्व देती। स्तुति की व्यस्तता उसे इस ओर से और उदासीन बना देती। 
छोटी बहन ने एम.एड. कर एक डिग्री कॉलेज में नौकरी पा ली। मकान पूरा हुआ। परन्तु भाई दो साल की तैयारी के बाद भी कहीं ठीक जगह न पा सका। वह कोई व्यापार करने की बात सोचने लगा और बीना उसके लिए पैसे इकट्ठे करने लगी। वह दोनों लड़कियों की शादी भी एक साथ निबटाने की बात कहती और समय-समय पर थोड़ा गहना खरीदती कभी छोटी के लिए तो कभी बड़ी के लिए। परन्तु जहाँ भी रिश्ते की बात चलती लोग छोटी में अधिक रुचि लेते। बहुत जल्दी ही उसका रिश्ता एक अच्छे घर में तय हो गया। लड़का बैंक में कार्यरत था। बीना ने बेटी की पढ़ाई व सुन्दरता का पूरा लाभ लिया। बहुत कम दहेज और एक सोने के सैट के साथ बेटी बिदा हो गई। शादी का शेष खर्च बेटे वालों ने खुशी-खुशी उठाया। छोटी बेटी की बिदाई के साथ ही घर में शादियों की चर्चा कुछ समय के लिये लगभग खत्म हो गई। स्तुति की दिनचर्या पूर्ववत चलती रही। भाई प्रवेश अपने लिए व्यापार की दिशा खोजने लगा। 
एक दोपहर स्तुति थोड़ी फुर्सत में थी। माँ के साथ बैठी बातें कर रही थी। प्रवेश काफी देर से घर में नहीं था। स्तुति ने बीना से उसके विषय में पूछा। वह बोली- “कई दिनों से परेशान है। तुम्हें तो उससे बात करने की फुर्सत ही नहीं है।”
“क्या परेशानी है?” स्तुति ने पूछा। 
“यही कम्प्यूटर सेंटर खोलना चाहता है। परन्तु कोई ठीक जानकार मिल नहीं रहा है। उसके दोस्त ने एक बताया है। कल भी गया था मिला नहीं। आज भी उसीसे मिलने गया है।” बीना की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि प्रवेश आ गया।
स्तुति ने आते ही प्रश्न किया। कहाँ से आ रहे हो? प्रवेश ने वही बताया जो बीना पहले ही बता चुकी थी। स्तुति ने अगला प्रश्न किया- “जिस काम को तुम नहीं जानते उसे कैसे करोगे?”
प्रवेश- “बस यह आदमी तैयार हो जाय। काम तो इसी को करना है। मुझे तो पैसा लगाना है सैट खरीदने में।”
“और तुम पैसे वाले हो ही।” स्तुति ने थोड़े व्यंग और नाराजगी से कहा। प्रवेश शायद उसकी बात ठीक से समझ नहीं पाया। उसे देखता रहा। 
स्तुति ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा- “दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक नहीं चलाई जाती है। जब वह दो दिनों में मिल भी नहीं पाया तो आगे काम कैसे करेगा? कहीं भी पैसा लगा देना आसान है वसूलना बहुत मुश्किल। वहीं काम करना चाहिए जिसकी हमें जानकारी हो।”
प्रवेश ने बीना की ओर देखा। बीना ने उसका पक्ष लिया- “काम करने लगो तो आ भी जाता है।”
स्तुति- “हरेक काम करने लगो से नहीं आ जाता है। बहुत से काम दिमाग से सीखे जाते हैं और वे उतने ही आते हैं जितनी ऊपर वाले ने हमें बुद्धि दी है।”
बीना को बेटे की बुद्धि पर कटाक्ष अच्छा न लगा। उसने स्तुति का विरोध करते हुए कहा- “तो तुम ही बताओ इसकी बुद्धि किस काम के लायक है।”
स्तुति- “बुद्धि को लायक बनाना पड़ता है। जो काम करना चाहता है पहले साल दो साल मन लगाकर उसे सीखे।” इस संबंध में जानकारी न होने से बीना कोई तर्क न कर पाई। उसने दूसरा मुद्दा पकड़ लिया। बोली- “सुबह से भूखा प्यासा दौड़ा रहा है और तुम परेशानी बूझने के बजाय उल्टा कमियाँ गिना रही हो। तुम्हारे पास इतने बच्चे आते हैं। उनके घरों में कितने तरह के काम हैं। तुम्हीं कोई रास्ता क्यों नहीं ढूँढ़ती ?”
स्तुति- “मुझसे कोई सलाह ले तब तो। बगैर बताए ही सेंटर खोल कर बैठ जाओगे तो मैं क्या करूंगी?”
प्रवेश कुछ भुनभुनाता सा कमरे में चला गया और बीना उसके लिए खाना लगाने लगी। प्रवेश को लेकर शायद यह पहला अवसर था जब स्तुति ने बीना की बात का विरोध किया था। स्तुति कुछ देर बाद अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई। 
स्तुति अपने जानकारों से प्रवेश को क्या काम कराना है इसकी चर्चा करती तो कोई रेडीमेट गार्मेंट व कोई इलैक्ट्रानिक्स के सामान की दुकान खुलवाने की बात कहता। बहुत से उसे आगे पढ़ाने का मशविरा देते। कोई बाहर कहीं काम सीख आने की बात कहता। घर में सलाह होती तो उसका निष्कर्ष यही निकलता कि बीना बेटे को अपने से अलग भेजना नहीं चाहती और कुल मिलाकर घर में ही कोई काम कर लेने पर बात खत्म हो जाती। लगभग साल भर की जिद्दो-जहद के बाद प्रवेश के लिए फर्नीचर का शोरूम खोल लेना तय हुआ। स्तुति के एक छात्र के पिताजी यह काम कर रहे थे। उनकी दुकान मुख्य बाजार में थी। उन्होंने कुछ पूंजी नकद व थोड़े उधार से सामान देना स्वीकार लिया। गली के नुक्कड़, घर और मुख्य सड़क पर चार छः ‘स्टायलिश फर्नीचर शो रूम’ के बड़े-बड़े बोर्ड लगा दिए गए और अच्छा पैसा लगाकर प्रवेश को शोरूम खुलवा दिया गया। 
शोरूम के उद्घाटन में भीड़ जुटी, मंत्रोचार हुआ मिठाई और पम्फलेट बटे। कुछ आत्मीयजनों ने कुर्सी, स्टूल या छोटा रैक खरीदकर शुभ मुहूर्त कराया। सबसे बड़ी खरीददारी एक रिडिंग टेबुल लेकर स्तुति ने की। बीना को सबने बधाई दी। चार छः महीने लोग यूँ ही आते जाते रहे। वे दाम बूझते, बतियाते और चले जाते। खरीदार की यह खास प्रवृत्ति होती है कि वह पाँच-दस जगह सामान देखता व दाम बूझता है और अंत में खरीदारी के लिए मुख्य बाजार की ओर भागता है। फिर फर्नीचर की खरीदारी कोई रोज नहीं करता और जब कोई लम्बे समय के बाद अच्छा पैसा खर्च करता है तो उसकी संतुष्टि मुख्य बाजार से पहले नहीं होती है। इसी प्रवृत्ति के कारण प्रवेश की दुकान चलती सी लगते हुए भी चल नहीं रही थी। बीना पूरी तरह उसके प्रचार में लगी थी। वह जहाँ भी जाती बेटे के शोरूम की अच्छाइयाँ गिनवाती, उसकी आमदनी हजारों रूपये प्रतिदिन की सुनाती। स्तुति भी कोशिश करती की उसके सम्पर्क के लोग प्रवेश के शोरूम से सामान खरीदें। इसके लिए समय-समय पर त्यौहारों पर छूट, किश्तों में पैसा देने की सुविधा और फ्री होम डिलीवरी जैसे प्रलोभन दिए जाते। परन्तु सारे उपाय लगभग बेअसर हो रहे थे। स्तुति को लगने लगा कि प्रवेश का काम शायद इसमें चल नहीं पायेगा और वह उसके लिए विकल्पों पर विचार करने लगी। पर एक दिन वह अवाक् रह गई जब माँ ने प्रवेश की शादी का जिक्र किया और दो तीन रिश्तों के बारे में बताया। वह कुछ बोली नहीं। अगले दिन वास्तव में जब वह घर लौटी तो ड्राईंग रूम में एक परिवार बैठा हुआ था। माँ ने उनके लिए कई प्लेटों में शानदार नाश्ता सजाया था। प्रवेश किसी कुशल व्यापारी सा उनसे बातें कर रहा था। स्तुति से भी उनका परिचय हुआ। स्तुति को अब एहसास हुआ कि माँ शोरूम के प्रचार के साथ ही प्रवेश की शादी की चर्चा भी लोगों से करती थी। जो मोटरसाइकिल और मोबाइल दो महीने पहले प्रवेश ने जिद्द करके स्तुति से ही खरीदवाएं थे माँ ने उन्हें औरों के सामने शोरूम की आमदनी से खरीदा सिद्ध कर दिया था। जबकि सच्चाई यह थी कि वह पेट्रोल और मोबाईल चार्ज का खर्च भी नहीं निकाल पा रहा था। 
मेहमानों के जाने के बाद बीना लड़की के गुणों, परिवार की सम्पन्नता और प्रवेश का उनपर प्रभाव को बताने लगी। स्तुति सुन रही थी। प्रवेश भी मुस्कराता हुआ आनंद ले रहा था। बीना ने कहा- “ऐसे चार पाँच रिश्ते हैं। इनमें जो भी तय हो जाय। प्रवेश की शादी कर मैं भी निबट जाऊँ।” स्तुति को हल्का झटका सा लगा- “और मेरे लिए माँ की कोई जिम्मेदारी नहीं?” पर बात मुँह पर न आ सकी। उसने कहा- “शादी तो कर लोगी पर खिलाओगी कहाँ से? आजकल की लड़कियाँ कम खर्च में काम नहीं चला पाती हैं। इसे कुछ कमाने तो दो।”
बीना- “घर में दो रोटियों का खर्च बढ़ जाने से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। इतनी कंगाली भी नहीं है। माँ का इशारा अप्रत्यक्ष रूप से स्तुति की आमदनी पर था।”
स्तुति ने माँ को फिर समझाने की कोशिश की- “माँ गृहस्थ में फसकर काम पर ध्यान लगाना मुश्किल होता है। एक तो वैसे ही उसका काम में मन नहीं है फिर इतनी बड़ी जिम्मेदारी। अभी तो इक्कीस साल का ही हुआ है।”
बीना भड़कर बोली- “हर काम की एक उम्र होती है। एक बार निकल गई तो फिर नहीं फब्ता। इक्कीस की उम्र कम नहीं है और क्या अभी जवानी आनी बाकी है। जिम्मेदारी जितना जल्दी निबटे उतना अच्छा है।” स्तुति को लगा जैसे माँ ने उसी पर कटाक्ष किया। वह शांत हो गई। बीना कमरे में चली गई। 
अब अकसर घर में आने वाले लोग प्रवेश की शादी का जिक्र करते, रिश्तेवाले आते, माँ और प्रवेश सलाह करते। कभी-कभी आधी-अधूरी बात स्तुति को भी बताई जाती। कभी वह चुप रह जाती और कभी माँ को समझाने का प्रयास करती कि वह प्रवेश को अपने पैरों पर खड़ा हो जाने दे। इस मुद्दे को लेकर माँ बेटी के बीच धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगा। प्रवेश स्तुति से कटा-कटा सा रहने लगा। ऐसे ही मौके पर जब स्तुति माँ को दलील दे रही थी कि बेकमाऊ से ब्याह कर कोई लड़की खुश नहीं रह सकती। बीना ने कटु वाक्यों में प्रत्युत्तर दिया- “भाई को बार-बार निखट्टू कहते शर्म नहीं आती। घर है, मेरे पास जो है और तेरे पास भी वह सब आखिर किसका है। क्या पैंतीस की उम्र में अभी शादी की लालसा बाकी है? चालीस पैंतालीस तक बच्चे पैदा करना और फिर पालती रहना अस्सी की होने तक। मन को एक तरफ रख। अब दो नावों पर सवार होकर कुछ नहीं मिलने वाला। ना यहाँ की रहेगी न ससुराल की।”
स्तुति जैसे आसमान से जमीन पर धम्म से आ गिरी। उसने शादी के संबंध में कभी स्वयं को छोटों का प्रतिद्वंदी नहीं सोचा था। पर आज माँ उसे बारह साल छोटे भाई के बराबर पंक्ति में खड़ा कर दिया। कुछ देर वह अचेत सी सोचती रही- “आखिर माँ उसके विपरीत क्यों हो गई। वह ऐसा क्यों सोच रही है कि मैं भाई से प्रतिद्वंदिता करूंगी। स्तुति ने उठकर मुँह को अच्छी तरह धोया। उसने शीशे में देखा उसकी आँखें सुर्ख लाल थी। शायद वह बहुत देर से किसी बड़े दुःख को अन्दर पीने का प्रयास कर रही थी।”
कुछ घंटो बाद घर का वातावरण शान्त हो गया। बीना पहले की तरह हँसकर बात करने लगी। स्तुति बच्चों को पढ़ाने बैठ गई और प्रवेश शोरूम के सामने घूम-घूम कर तेज आवाज में मोबाइल पर बातें करता हुआ व्यस्त व्यापारी सा दिखने लगा। परन्तु यह बाहरी वातावरण था जो सामान्य लग रहा था। स्तुति के मन में जो तूफान उठा वह शान्त होने का नाम नहीं ले रहा था- “माँ ने आज उसे छोटों की बड़ी न रहने दी। उनकी बराबरी पर ला दिया। माँ ने आखिर उसे इस तरह नजरंदाज क्यों किया। पिता जीवित होते तो क्या उसके साथ ऐसा हो सकता था? शादी करने, घर बसाने की लालसा तो हर सांसारिक में होती है। अगर उसने जिम्मेदारियों के लिए उसे महत्त्व न दिया तो क्या उससे यह अधिकार छीनना माँ को शोभा देता है। काश मैं माँ की सौतेली बेटी होती तो दुःख इतना गहरा न होता। आसानी से सह लिया जाता। पर यह तो मेरी अपनी माँ है। सगी माँ।” स्तुति जितना अधिक सोचती उतनी ही उलझती जाती। हार कर उसने बच्चों की छुट्टी कर दी और अनमनी सी पार्क की ओर घूमने निकल गई। वहाँ भी उसका मन शांत न हुआ। घर लौटकर, लेटकर एक पत्रिका पढ़ने लगी। कुछ देर सोई। उठी तो फिर वही अशान्ति मन पर छा गई। 
चार, छः दिन की उहापोह ने स्तुति को एक अहम् फैसले तक पहुँचा दिया। उसने मानस को फोन किया और उसे अपनी सहमती सुना दी। मानस पिछले पाँच साल से स्तुति से शादी का प्रस्ताव रख रहा था और वह अपनी जिम्मदारियों का बहाना बनाकर उसे टाल रही थी। परन्तु अब उसने महसूस किया कि जब माँ अपनी जिम्मेदारियों से निवृत हो रही है तो वह क्यों नहीं। अगले सप्ताह ही स्तुति और मानस ने कोर्ट मैरिज कर ली, चुपचाप। परन्तु ऐसी खबरों को किसी मीडिया की आवश्यकता नहीं होती। वे फैलती हैं हवा के झोकों जैसी और जिन घर, परिवारों से ये जुड़ी होती हैं वहाँ तक का सफर बहुत जल्दी तय कर लेती है। सो करीब एक माह के बीतते तक स्तुति की शादी की खबर बीना तक पहुँच गई। घर में कोहराम मच गया। 
शहर की घुटन भरी संध्या थी। गलियों और मंजिलों को पार कर आंगन में पहुँचना हवा के लिए मुश्किल था। स्तुति ने अभी कुछ देर पहले बच्चों की छुट्टी की थी। वह आंगन में टेबल फैन के सामने बैठी पेपर पलट रही थी। उसे यही आधे घंटे का समय सुबह से अब फुर्सत का मिलता था। इसके बाद वह एक बैच और पढ़ाकर खाना खाती और कुछ देर टी.वी. देख कर सो जाती थी। पड़ौस के वर्मा जी सपरिवार ड्राईंगरूम में बैठे थे। बीना उनके लिए चाय बनाकर ले गई और एक कप स्तुति को भी थमा गई। वर्मा जी के जाने के बाद बीना ने प्रवेश को बुलाया। माँ ने धीमी आवाज में बेटे को कुछ समझाया। स्तुति ने उधर ध्यान न दिया। उसके पढ़ने वाले बच्चे आ गए थे। वह उठकर बाहर कमरे में चली गई। 
रात नौ बजे बच्चे अपने घरों को चले गए। प्रवेश ने शो रूम का शटर गिरा दिया। स्तुति जैसे ही आंगन में आई उसने बीना को वहाँ खड़े देखा। उसे लगा शायद माँ की तबियत ठीक नहीं है। वह कुछ बोलने ही वाली थी कि बीना उसकी ओर पलटी और दो कदम बढ़कर सीधी स्तुति के सामने खड़ी हो गई। उसका चेहरा तमतमा रहा था। बड़ी-बड़ी आँखें रोष से भरी थीं। वह एकदम आक्रामक मुद्रा में लग रही थी। वह स्तुति की ओर झपटती सी कड़ककर बोली- “कौन है जिससे ब्याह रचाया है महारानी ने?”
स्तुति थोड़ी सहम गई। उसने बीना के सवाल का कोई जवाब न दिया। बीना फिर गरजी- “बोलती क्यों नहीं, क्या सांप सूंघ गया है? समझी होगी गुपचुप भाग जाऊंगी। किसी को कानोकान पता नहीं लगेगा।” 
स्तुति तुरंत समझ गई कि यह सूचना वर्मा जी ने दी है। मानस के आफिस के चपरासी का वर्मा जी के यहाँ आना-जाना था। वह बोली- “जब आपको सब खबर मिल ही गई है तो और क्या जानना है ?”
स्तुति की बात खत्म होने तक प्रवेश भी अन्दर आ गया। उसने घर के सब खिड़की दरवाजे बंद कर लिए। वह बीना के पास आकर तनकर सीधा खड़ा हो गया। दाँतों को भींचकर लगभग चीखता सा बोला- “मैं इस घर का अकेला मर्द हूँ। क्या मुझे यह पता नहीं होना चाहिए कि इस घर की लड़की किसके साथ घूमती है। शादी तक कर ली और मुझे कानोकान खबर नहीं।” वह स्तुति से अचानक बड़ा हो गया था। स्तुति ने उसकी ओर नफरत से देखा और मन ही मन कहा कि बड़पन के लिए किसी को पोसना पड़ता है। यूँ ही किसी की खबर नहीं रखी जाती। 
बीना ने अगला वार किया- “कितना लुटाया है अभी तक उस पर? बोलती क्यों नहीं?”
इस बार स्तुति बोली- “माँ हर कोई पैसे के लिए नहीं जीता है।”
“ओह तो महात्यागी मिल गया है। देखना कुछ ही दिनों में पैसा-पैसा निचोड़कर न तुझें फेंक दे तो मेरा भी नाम नहीं।” बीना क्रोध और नफरत से भरी थी। 
“फेंकी जाने पर तुम्हारे पास न आऊँगी।” स्तुति ने आहिस्ता से कहा। 
बीना तिलमिला गई। उसने दाँत भीचते हुए स्तुति को चपत जड़ दिया। प्रवेश ने माँ को रोकते हुए कहा- “इन्हें समझाना अब बेकार है। अकारण आपकी तबियत खराब होगी। मैं सीधी उसी की खबर लूंगा जिसने इस घर में सेंध लगाई है।”
स्तुति सहजता से बोली- “तुम्हारा अधिकार केवल मुझ तक है। मानस से उलझे तो नतीजा अच्छा नहीं होगा। मैंने उससे शादी की है। इसमें कोई अपराध नहीं है।” इतना कहते हुए स्तुति अपने कमरे में चली गई।
बीना देर तक चीखती चिल्लाती रही और फिर शांत हो गई। लेकिन उस दिन से घर का माहौल इतना बोझिल हो गया कि घर के कुल तीन सदस्य एक जगह बैठना तो क्या एक साथ खड़े भी नहीं हो रहे थे। स्तुति जिधर जाती बीना और प्रवेश बुरा सा मुँह बनाकर वहाँ से हट जाते। खाना तो दूर की बात घर में कोई उसे पानी तक को न पूछता। उसके आने से पहले माँ बेटे खा पी लेते। बीना ने स्तुति से बात करना लगभग समाप्त कर दिया था। स्तुति द्वारा खाना या अन्य कोई सामान बूझने पर वह लापरवाही से हाथ का इशारा कर देती। इस व्यवहार से बचने को स्तुति बाहर से ही थोड़ा बहुत खा कर आ जाती और काम खत्म कर चुपचाप अपने कमरे में सो जाती। कभी-कभी स्तुति के मन में विचार आता कि यदि इस समय छोटी बहनें साथ होती तो वे शायद उसका साथ देती या वह यूँ अकेली न हो जाती। तभी अगला ख्याल आता-पर अब उसके विषय में सोचने का उनके पास भी समय कहाँ है। वे यहाँ आती हैं तब ही मेरे लिए कितना समय पाती हैं। पूरा दिन खाते बनाते ही बीत जाता है। जब तक मैं फुर्सत पाती हूँ वे थककर सो जाती हैं। फिर ऐसे उपेक्षित और एकाकी जीवन का उन्हें अनुभव भी कहा है जो मेरी स्थिति का अनुमान कर सकें। स्तुति को कुछ ही दिनों में घर के वातावरण से ऊब होने लगी। पहले उसने मन बनाया था कि चार माह बाद जब ट्यूशन वाले बच्चों की पढ़ाई पूरी हो जाएगी वह तभी घर छोड़ेगी। परन्तु उसने एक दिन मानस से कहा कि वह जल्दी ही घर छोड़ना चाहती है वह रहने की कोई व्यवस्था कर ले। 
मानस के परिवार में एकमात्र उसके पिता थे। वह स्तुति से शादी की बात उन्हें बता चुका था। वे चाहते थे कि एक छोटी सी दावत के साथ फेरे की रस्म भी पूरी हो जाय। तभी दुल्हन को घर लाया जाय ताकि बिरादरी के कटाक्ष न सुनने पड़े। अपने जीवन अनुभव से वे यह मान रहे थे कि स्तुति की माँ का गुस्सा समय के साथ ठण्डा हो जाएगा। तब वह कन्यादान कर खुशी-खुशी बेटी बिदा कर देगी। परन्तु स्तुति की बातों से मानस को स्पष्ट हो गया कि उसके पिता का अनुमान गलत है। स्तुति को जब भी घर छोड़ना होगा तब माँ के विरोध के साथ ही छोड़ना होगा। मानस ने पिता को स्थिति समझा दी। वे अपने तरीके से समस्या को सुलझाने में जुट गए। 
एक दोपहर बीना के कटु वाक्यों का स्तुति ने विरोध किया। माँ बेटी के बीच तकरार बढ़ी और उसी दिन स्तुति ने घर छोड़ दिया। माँ के घर से विदा होते समय स्तुति के पास मात्र हजार रूपये और दो जोड़ा कपड़े थे। उसके नाम के गहने जो उसकी कमाई से ही बने थे। बीना ने उसे देने से साफ इन्कार कर दिया। बीना का सीधा सा जवाब था- “बड़े साहूकार के घर जा रही हो। बहुत कमाने वाली भी हो। जितना चाहो गहनें बनवाना। इस घर का खाया है इसीलिए आज तक जो भी कमाया है यहीं छोड़ना पड़ेगा। पिता कौन सी बहुत जायदाद छोड़ गए हैं जिसमें बेटी ठाठ से बिदा होगी।”
स्तुति ने कोई प्रतिकार न किया। वह चाहती तो ढेरों तर्क कर सकती थी, चीख चिल्लाकर मौहल्ले को सुना सकती थी या फिर लम्बी कानूनी लड़ाई लड़कर अपना अधिकार ले सकती थी। परन्तु उसने ऐसा कुछ भी न किया। क्योंकि स्तुति अच्छी तरह जानती थी कि उसकी माँ की ऐंठ, अकड़, सारा रौब-दाब और शान-शौकत उसी धन से है जिसमें मेरा एक बड़ा हिस्सा है। यदि आज बेटा माँ की तरफदारी में है तो उसके मूल में भी यह पैसा ही हैं। स्तुति उसे हासिल कर ले तो बेटा माँ के बुढ़ापे में शायद ही माँ को बर्दास्त करें। स्तुति अपनी माँ की शान-शौकत और अकड़ को कमजोर करना नहीं चाहती थी। वह बूढ़ी माँ को असहाय और लाचार नहीं देख सकती थी। वह सहज ही घर से चली गई।
रात के नौ बज चुके थे। घर के अधिकतर सदस्यों ने खाना खा लिया था। ज्ञानेश दुकान बंद कर अंदर आ गए। कपड़े बदल हाथ मुँह धोने लगे और पत्नी रिचा से बोले- “जल्दी खाना लगाओ। बहुत भूख लगी है।” तभी उन्हें ख्याल आया- “अरे दीदी को खाना खिलाया?”
रिचा ने हँसकर कहा- “आपके बगैर कौन खिलाता। आप तो अब आए हो।”
सुवर्णा बोली- “मैं खा चुकी भाई। आप खाओ।”
ज्ञानेश खाने बैठे। स्तुति अभी चौके में कुछ सम्भाल रही थी। बच्चे उसके पीछे पड़े थे- “बुआ जल्दी छत पर चलो। हमें अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुननी हैं।”
रिचा ने कहा- “जाओ, आप अब आराम कर लो। बाकी मैं निबटा लूंगी।” स्तुति हाथ धोकर बच्चों के साथ चली गई। स्तुति सीढि़याँ चढ़ रही थी तभी ज्ञानेश ने उसकी ओर इशारा करते हुए सुवर्णा से पूछा- “दीदी आपका इससे परिचय हुआ ?”
सुवर्णा- “हाँ चाय लेकर आई थी” तब रिचा ने कहा था- “अपने घर की ही समझो। अभी बाद में विस्तार से बताऊंगी।” वह तब से अपने काम में लगी है। बता नहीं पाई।
ज्ञानेश- “इसकी बड़ी लम्बी कहानी है। मैं आपको संक्षेप में ही बता देता हूँ।”
सुवर्णा- “सुनाओ।”
ज्ञानेश ने बोलना शुरू किया- “करीब छः महीने पहले की बात है। मैं दुकान बंद करने वाला था कि हमारे मौहल्ला कमेटी के चेयरमेन आए और बोले- “भैया एक पुण्य का काम है उम्मीद है तुम ना नहीं करोगे।”
मैं उनकी इज्जत करता हूँ बुजुर्ग हैं भले हैं। सो मैंने कहा- “आदेश करें।”
वे बोले- “तुम्हें एक कन्यादान करना होगा। कल घर में सलाह कर लो। परसों ही यह काम करना है।”
मैं जोर से हँसा और बोला- “लगता है भाई साहब आज आप गलत संगत में फस गए थे। पहली-पहली बार का नशा ऐसा ही होता है।”
वे बोले- “शहर में अभी कोई संगत ऐसी बनी नहीं है जो मुझे नशा करवा दे। मैं वास्तव में तुम्हें कन्यादान करने को कह रहा हूँ।”
“पर भाई साहब मेरी कन्या अभी दान के लायक नहीं है और मेरे पास इतना पैसा भी नहीं है कि मैं परोपकार में किसी की कन्या के दान में खर्च कर दूँ। तब आप मुझसे कैसा कन्यादान कराना चाहते हैं।”
“इस कार्य में न धन आपका लगेगा न कन्या। आपको सिर्फ पुण्य लूटना है। एक दिन लगाकर।”
मैंने कहा- “तो आप ही यह पुण्य क्यों नहीं लूट लेते?”
वे मायूस होकर बोले- “आज यदि तुम्हारी भाभी जीवित होती तो मैं इस काम को करने में अपना सौभाग्य समझता। परन्तु मैं अकेले यह कार्य करना नहीं चाहता हूँ।”
“अच्छा बताओ क्या करना है? हो सका तो कर दूंगा आपकी बात तो मेरे लिए मान्य है।” वे स्टूल पर बैठ गए। मैं समझ गया अच्छा समय लेकर आए हैं। मैं भी उनके सामने आसन जमाकर बैठ गया और नौकर को दुकान समेटने को कह दिया। 
चेयरमेन साहब बताने लगे मेरे एक मित्र हैं। उनके बेटे ने कोर्ट मैरिज की है। अब वे अपनी बिरादरी के सामने उसको सामाजिक रीति रिवाज से करना चाहते हैं। परन्तु लड़की का भाई और माँ तैयार नहीं है। उन्होंने लड़की को घर से निकाल दिया है। अब तुम्हें और रिचा को लड़की के माता-पिता के रूप में उसका कन्यादान करना है। खर्च मेरे मित्र पैसे-पैसे का देंगे। कल ही पैसा और पूरा सामान तुम्हारे पास आ जाएगा।
मैं सिर खुजलाता बोला- “सोचने का मौका तो दो।”
उन्होंने अधिकार पूर्वक कहा- “सोचना क्या है? अभी तो कह रहे थे आपकी बात मेरे लिए बड़ी है। फिर पुण्य लाभ में अधिक सोच विचार करना ठीक नहीं है।”
मैंने थोड़े टालने के मूड से कहा- “अच्छा यह तो बताओ लड़की कौन है? कहाँ की है? उन्होंने मुझे विस्तार से सब समझाया। इसकी पूरी कहानी सुनाई। ज्ञानेश ने चेयरमेन साहब से सुनी स्तुति की पूरी कहानी सुवर्णा को सुना दी। प्रभा और रिचा भी पूरे आनंद से सुन रही थी। जबकि उनके सामने यह कहानी बहुत बार दोहराई जा चुकी थी। यह वही कहानी थी जिसे चौके में काम करते हुए स्तुति अपने मन में दोहरा रही थी। वह इसकी अभ्यस्त हो गई थी। मन में चलती कहानी उसके दैनिक कार्यों में बाधा नहीं बनती थी। उसने बहुत कम लोगों को ही टुकड़े-टुकड़े यह कहानी सुनाई थी।”
ज्ञानेश बता रहे थे- “और फिर अगले ही रोज इसके ससुर यहाँ आ गए। एक ही दिन में कपड़ा, फर्नीचर, बर्तन, जेवर सब खरीद लिया गया। मानस ने पहले ही यहीं पास वाली धर्मशाला बुक करा ली थी और शायद हमें इसीलिए कन्यादान के लिए चुना गया था। अगले रोज ठीक दोपहर बारह बजे बारात आ गई। हम भी तैयार होकर पहुँच गए। नाश्ता, तिलक और खाने के बाद बारात विदा हो गई। मानस के एकदम करीबी आठ-दस लोग रूके रहे। तुरंत बाद फेरे की रस्म हुई। तुम्हारी भाभी भावुक हो गई। इसने भी अपनी ओर से पाँच साड़ी, पाँच बर्तन और बिछुवा पायल दिया।”
प्रभा बोली- “और भाई वह दीदी वाली बात भी बताओ।”
रिचा ने भी उसका समर्थन किया- “दीदी ने भी खूब शोर मचाया।”
सुवर्णा- “कौन दीदी?”
प्रभा- “अरे अपनी बड़ी बहन जी।”
ज्ञानेश- “बहन जी की बात बताए बगैर तो यह कहानी अधूरी ही है। वे अचानक ही शाम को आ गई। यहाँ यह सब तामझाम देखकर भड़क गई। सीधी धर्मशाला पहुँच गई। गनीमत थी कि कन्यादान की रस्म हो चुकी थी। पहले आ जाती तो हमारी हिम्मत न होती यह सब करने की। उन्होंने सबसे पहले मुझे और प्रभा को ही आड़े हाथों लिया। हमें एक तरफ बुलाया और सवाल पर सवाल करने और डाँटने लगी। जब तक हमें एक बात का जवाब भी न सूझता वे अगला प्रश्न खड़ा कर देती। एक बार तो मैं सच में घबरा गया और लगा कि मुझसे बड़ी भूल हो गई है। मुझे किसी से सलाह ले लेनी चाहिए थी। पर अब तो काम हो चुका था।”
सुवर्णा- “क्या कह रही थी दीदी?”
ज्ञानेश- “क्या कह रही थी?” उन्होंने ऐसे-ऐसे तर्क दिए कि सब कुछ उल्टा लगने लगा। बोली- “तुम जानते हो यह लड़की कौन है? पहले कभी इससे या इसके घरवालों से मिले हो? टी.वी., अख़बारों में हर दिन देखते नहीं कितनी ठग पार्टियाँ घूम रही हैं। कल को सारा जेवर-कपड़ा लेकर भाग जाए तो?” 
“पर जिसका जेवर कपड़ा है वही लड़की को लाया है। इसकी चिंता तो उसी को होनी चाहिए।”
“चलो माना कि लड़की की तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है। पर कल को यह लड़का ही लड़की को मार दे गायब कर दे और लड़की के घरवाले तुम्हारा जीना दूभर कर दें तब?”
“लड़की के घरवाले जब आए नहीं है तो झगड़ा कैसा?”
“यही तो तुम अभी नहीं समझते हो बेटा। जरा सी बात बिगड़ जाएगी तो माँ बाप सब पैदा हो जाएगें। तुमने कन्यादान किया है। तुम्हारे साथ इनकी फिल्म बनी है। तुम पूरी तरह जिम्मेदार होगे।”
प्रभा बोली- “उन्होंने मुझे भी डाँटा- “बड़ी बनने चली है। जरा सी भी समझ है तुझे। बाद में क्या-क्या झंझट हो सकता है। मुझे ही एक बार फोन कर लिया होता।”
रिचा बोली- “दीदी उस समय इतने गुस्से में थी कि हम में से किसी को भी बोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उस समय उनकी सारी बातें सही लग रही थी।”
ज्ञानेश- “फिर उन्होंने मानस, उसके पिता और चेयरमेन साहब को भी नहीं छोड़ा। उन पर भी हम बालकों को बहकाकर गलत काम कराने का आरोप लगाती रहीं। वे लोग हाथ जोड़कर माफी मांगते रहे।” मैंने बहन जी को शांत करने को कहा कि हमने तो इसे एक सामाजिक पुण्य का काम समझकर कर दिया है तो वे और भड़क गई। बोली- “ऐसा ही समाज सेवा का शौक है तो किसी समाज सेवी संस्था से जुड़ जाओ। पैसा भी मिलेगा और पुण्य भी। कम से कम अकेले तो न फंसोगे । दस लोग साथ होंगे। कल को ये ही लोग इल्जाम लगाने लगे कि तुमने इस काम में लाख दो लाख खाया है तब क्या करोगे?”
“उस समय बहन जी को शांत करने का एक ही उपाय था चुप रहना। मैं तो कुछ नहीं बोली और मैंने इन्हें भी इशारे से चुप करा दिया।” रिचा ने आहिस्ता से कहा।
सुवर्णा कहानी में पूरी तरह डूब चुकी थी। वह उसके अंत तक पहुँचना चाहती थी। इससे पहले कि सब उठ जाएं। उसने अपनी बात बढ़ा दी- “इस हंगामें में कन्या की बिदाई कैसे हुई?”
ज्ञानेश- “दीदी का रौद्र रूप देखकर मानस और उसके पिताजी की तो उनसे बात करने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। मैंने ही उन्हें शांत कराया और धीरे से कहा-अब इतना सब किया है तो लड़की बिदा तो हो जाए। वे जरा शांत हुई तो मैंने तुरंत मानस को इशारा किया। मानस और स्तुति सबको प्रणाम कर जल्दी से गाड़ी की ओर बढ़ गए और हमारा कन्यादान पूरा हो गया।” इतना कहते हुए ज्ञानेश उठ गए और उनके साथ बाकी सब भी। सोने की तैयारी होने लगी। रिचा ने धीरे से सुवर्णा से कहा- “अब दीदी खाली शादी के साथ ही तो मयके की जरूरत खत्म नहीं हो जाती हैं। ससुराल में चाहें जितना राज मिले लड़की का दिल तो मयके को भी तरसता है। इसीलिए जब इसका मन होता है दो चार दिन यहाँ आ जाती है। एक बार हम भी इसके यहाँ हो आए हैं। अच्छा घर, जमीन, कमाऊ लड़का सब मिला है, खुद भी कमाती है। इसे किसी के लेन-देन की जरूरत नहीं है। हमने तो इसे लड़की माना है। अपने से थोड़ा बहुत जो बनता है दे देते हैं। हमारे दिए से अधिक तो यह बच्चों पर खर्च कर देती हैं। अब इसे यहाँ जो सुख मिलता हो यह जाने। हमें तो ये अब घर के बच्चों जैसी हो गई है।” 


डॉ. (श्रीमती)  अपर्णा शर्मा ने मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ से एम.फिल. की उपाधि 1984 में, तत्पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि 1991 में प्राप्त की। आप निरंतर लेखन कार्य में रत् हैं। डॉ. शर्मा की एक शोध पुस्तक - भारतीय संवतों का इतिहास (1994), एक कहानी संग्रह खो गया गाँव (2010), एक कविता संग्रह जल धारा बहती रहे (2014), एक बाल उपन्यास चतुर राजकुमार (2014), तीन बाल कविता संग्रह, एक बाल लोक कथा संग्रह आदि दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साथ ही इनके शोध पत्र, पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं, कहानियाँ, लोक कथाएं एवं समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी बाल कविताओं, परिचर्चाओं एवं वार्ताओं का प्रसारण आकाशवाणी, इलाहाबाद एवं इलाहाबाद दूरदर्शन से हुआ है। साथ ही कवि सम्मेलनों व काव्यगोष्ठियों में भागेदारी बनी रही है। सम्पर्क -
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा, “विश्रुत”, 5, एम. आई .जी., गोविंदपुर, निकट अपट्रान चौराहा, इलाहाबाद (उ. प्र.), पिनः 211004, दूरभाषः + 91-0532-2542514 दूरध्वनिः + 91-08005313626 ई-मेलः <draparna85@gmail.com>

COMMENTS

Leave a Reply
नाम

अंग्रेज़ी हिन्दी शब्दकोश,3,अकबर इलाहाबादी,11,अकबर बीरबल के किस्से,62,अज्ञेय,37,अटल बिहारी वाजपेयी,1,अदम गोंडवी,3,अनंतमूर्ति,3,अनौपचारिक पत्र,16,अन्तोन चेख़व,2,अमीर खुसरो,7,अमृत राय,1,अमृतलाल नागर,1,अमृता प्रीतम,5,अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध",7,अली सरदार जाफ़री,3,अष्टछाप,4,असगर वज़ाहत,11,आनंदमठ,4,आरती,11,आर्थिक लेख,8,आषाढ़ का एक दिन,22,इक़बाल,2,इब्ने इंशा,27,इस्मत चुगताई,3,उपेन्द्रनाथ अश्क,1,उर्दू साहित्‍य,179,उर्दू हिंदी शब्दकोश,1,उषा प्रियंवदा,5,एकांकी संचय,7,औपचारिक पत्र,32,कक्षा 10 हिन्दी स्पर्श भाग 2,17,कबीर के दोहे,19,कबीर के पद,1,कबीरदास,19,कमलेश्वर,6,कविता,1473,कहानी लेखन हिंदी,17,कहानी सुनो,2,काका हाथरसी,4,कामायनी,6,काव्य मंजरी,11,काव्यशास्त्र,38,काशीनाथ सिंह,1,कुंज वीथि,12,कुँवर नारायण,1,कुबेरनाथ राय,2,कुर्रतुल-ऐन-हैदर,1,कृष्णा सोबती,2,केदारनाथ अग्रवाल,4,केशवदास,6,कैफ़ी आज़मी,4,क्षेत्रपाल शर्मा,52,खलील जिब्रान,3,ग़ज़ल,139,गजानन माधव "मुक्तिबोध",15,गीतांजलि,1,गोदान,7,गोपाल सिंह नेपाली,1,गोपालदास नीरज,10,गोरख पाण्डेय,3,गोरा,2,घनानंद,3,चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,6,चमरासुर उपन्यास,7,चाणक्य नीति,5,चित्र शृंखला,1,चुटकुले जोक्स,15,छायावाद,6,जगदीश्वर चतुर्वेदी,17,जयशंकर प्रसाद,35,जातक कथाएँ,10,जीवन परिचय,76,ज़ेन कहानियाँ,2,जैनेन्द्र कुमार,5,जोश मलीहाबादी,2,ज़ौक़,4,तुलसीदास,28,तेलानीराम के किस्से,7,त्रिलोचन,4,दाग़ देहलवी,5,दादी माँ की कहानियाँ,1,दुष्यंत कुमार,7,देव,1,देवी नागरानी,23,धर्मवीर भारती,8,नज़ीर अकबराबादी,3,नव कहानी,2,नवगीत,1,नागार्जुन,25,नाटक,1,निराला,39,निर्मल वर्मा,3,निर्मला,42,नेत्रा देशपाण्डेय,3,पंचतंत्र की कहानियां,42,पत्र लेखन,202,परशुराम की प्रतीक्षा,3,पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र',4,पाण्डेय बेचन शर्मा,1,पुस्तक समीक्षा,139,प्रयोजनमूलक हिंदी,37,प्रेमचंद,46,प्रेमचंद की कहानियाँ,91,प्रेरक कहानी,16,फणीश्वर नाथ रेणु,4,फ़िराक़ गोरखपुरी,9,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,24,बच्चों की कहानियां,88,बदीउज़्ज़माँ,1,बहादुर शाह ज़फ़र,6,बाल कहानियाँ,14,बाल दिवस,3,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',1,बिहारी,8,बैताल पचीसी,2,बोधिसत्व,9,भक्ति साहित्य,143,भगवतीचरण वर्मा,7,भवानीप्रसाद मिश्र,3,भारतीय कहानियाँ,61,भारतीय व्यंग्य चित्रकार,7,भारतीय शिक्षा का इतिहास,3,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,10,भाषा विज्ञान,17,भीष्म साहनी,7,भैरव प्रसाद गुप्त,2,मंगल ज्ञानानुभाव,22,मजरूह सुल्तानपुरी,1,मधुशाला,7,मनोज सिंह,16,मन्नू भंडारी,10,मलिक मुहम्मद जायसी,9,महादेवी वर्मा,20,महावीरप्रसाद द्विवेदी,3,महीप सिंह,1,महेंद्र भटनागर,73,माखनलाल चतुर्वेदी,3,मिर्ज़ा गालिब,39,मीर तक़ी 'मीर',20,मीरा बाई के पद,22,मुल्ला नसरुद्दीन,6,मुहावरे,4,मैथिलीशरण गुप्त,14,मैला आँचल,8,मोहन राकेश,13,यशपाल,14,रंगराज अयंगर,43,रघुवीर सहाय,6,रणजीत कुमार,29,रवीन्द्रनाथ ठाकुर,22,रसखान,11,रांगेय राघव,2,राजकमल चौधरी,1,राजनीतिक लेख,21,राजभाषा हिंदी,66,राजिन्दर सिंह बेदी,1,राजीव कुमार थेपड़ा,4,रामचंद्र शुक्ल,3,रामधारी सिंह दिनकर,25,रामप्रसाद 'बिस्मिल',1,रामविलास शर्मा,9,राही मासूम रजा,8,राहुल सांकृत्यायन,2,रीतिकाल,3,रैदास,4,लघु कथा,124,लोकगीत,1,वरदान,11,विचार मंथन,60,विज्ञान,1,विदेशी कहानियाँ,34,विद्यापति,8,विविध जानकारी,1,विष्णु प्रभाकर,1,वृंदावनलाल वर्मा,1,वैज्ञानिक लेख,8,शमशेर बहादुर सिंह,6,शमोएल अहमद,5,शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय,1,शरद जोशी,3,शिक्षाशास्त्र,6,शिवमंगल सिंह सुमन,6,शुभकामना,1,शेख चिल्ली की कहानी,1,शैक्षणिक लेख,57,शैलेश मटियानी,2,श्यामसुन्दर दास,1,श्रीकांत वर्मा,1,श्रीलाल शुक्ल,4,संयुक्त राष्ट्र संघ,1,संस्मरण,33,सआदत हसन मंटो,10,सतरंगी बातें,33,सन्देश,44,समसामयिक हिंदी लेख,266,समीक्षा,1,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,19,सारा आकाश,20,साहित्य सागर,22,साहित्यिक लेख,86,साहिर लुधियानवी,5,सिंह और सियार,1,सुदर्शन,3,सुदामा पाण्डेय "धूमिल",10,सुभद्राकुमारी चौहान,7,सुमित्रानंदन पन्त,23,सूरदास,16,सूरदास के पद,21,स्त्री विमर्श,11,हजारी प्रसाद द्विवेदी,4,हरिवंशराय बच्चन,28,हरिशंकर परसाई,24,हिंदी कथाकार,12,हिंदी निबंध,428,हिंदी लेख,530,हिंदी व्यंग्य लेख,14,हिंदी समाचार,180,हिंदीकुंज सहयोग,1,हिन्दी,7,हिन्दी टूल,4,हिन्दी आलोचक,7,हिन्दी कहानी,32,हिन्दी गद्यकार,4,हिन्दी दिवस,91,हिन्दी वर्णमाला,3,हिन्दी व्याकरण,45,हिन्दी संख्याएँ,1,हिन्दी साहित्य,9,हिन्दी साहित्य का इतिहास,21,हिन्दीकुंज विडियो,11,aapka-banti-mannu-bhandari,5,aaroh bhag 2,14,astrology,1,Attaullah Khan,2,baccho ke liye hindi kavita,70,Beauty Tips Hindi,3,bhasha-vigyan,1,chitra-varnan-hindi,3,Class 10 Hindi Kritika कृतिका Bhag 2,5,Class 11 Hindi Antral NCERT Solution,3,Class 9 Hindi Kshitij क्षितिज भाग 1,17,Class 9 Hindi Sparsh,15,English Grammar in Hindi,3,formal-letter-in-hindi-format,143,Godan by Premchand,10,hindi ebooks,5,Hindi Ekanki,19,hindi essay,420,hindi grammar,52,Hindi Sahitya Ka Itihas,105,hindi stories,677,hindi-bal-ram-katha,12,hindi-gadya-sahitya,8,hindi-kavita-ki-vyakhya,19,hindi-notes-university-exams,56,ICSE Hindi Gadya Sankalan,11,icse-bhasha-sanchay-8-solutions,18,informal-letter-in-hindi-format,59,jyotish-astrology,22,kavyagat-visheshta,25,Kshitij Bhag 2,10,lok-sabha-in-hindi,18,love-letter-hindi,3,mb,72,motivational books,11,naya raasta icse,9,NCERT Class 10 Hindi Sanchayan संचयन Bhag 2,3,NCERT Class 11 Hindi Aroh आरोह भाग-1,20,ncert class 6 hindi vasant bhag 1,14,NCERT Class 9 Hindi Kritika कृतिका Bhag 1,5,NCERT Hindi Rimjhim Class 2,13,NCERT Rimjhim Class 4,14,ncert rimjhim class 5,19,NCERT Solutions Class 7 Hindi Durva,12,NCERT Solutions Class 8 Hindi Durva,17,NCERT Solutions for Class 11 Hindi Vitan वितान भाग 1,3,NCERT Solutions for class 12 Humanities Hindi Antral Bhag 2,4,NCERT Solutions Hindi Class 11 Antra Bhag 1,19,NCERT Vasant Bhag 3 For Class 8,12,NCERT/CBSE Class 9 Hindi book Sanchayan,6,Nootan Gunjan Hindi Pathmala Class 8,18,Notifications,5,nutan-gunjan-hindi-pathmala-6-solutions,17,nutan-gunjan-hindi-pathmala-7-solutions,18,political-science-notes-hindi,1,question paper,19,quizzes,8,raag-darbari-shrilal-shukla,7,Rimjhim Class 3,14,samvad-lekhan-in-hindi,6,Sankshipt Budhcharit,5,Shayari In Hindi,16,skandagupta-natak-jaishankar-prasad,6,sponsored news,10,suraj-ka-satvan-ghoda-dharmveer-bharti,4,Syllabus,7,top-classic-hindi-stories,48,UP Board Class 10 Hindi,4,Vasant Bhag - 2 Textbook In Hindi For Class - 7,11,vitaan-hindi-pathmala-8-solutions,16,VITAN BHAG-2,5,vocabulary,19,
ltr
item
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: कौन जनम का नाता ?
कौन जनम का नाता ?
सुवर्णा घर से कुछ ही दूर आई थी कि घनी छाई काली बदली ने मोटी-मोटी बूँदें गिरानी शुरू कर दी। यही बदली कुछ देर पहले मन को लुभा रही थी, सैर सपाटे को उकसा रही थी और अब घर से निकाल कर मानों मुँह चिढ़ाने लगी। सुवर्णा के कदम उसी गति से तेज हो रहे थे जिससे वर्षा।
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiT8zyl9RWyjt-tBHK_ZqnNMoYFc4GeXYhY9Nf0m6exrA30m_VqPa0jCdcRy1hyphenhyphenNaxUE8QpkpZzX1_ieW9T1Yq4vBlKWgfb-ZO9DsfOH6xtBrDTQtl17RpVrGIGUrI_qnszv56peP9DHx3P/s200/Untitled.png
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiT8zyl9RWyjt-tBHK_ZqnNMoYFc4GeXYhY9Nf0m6exrA30m_VqPa0jCdcRy1hyphenhyphenNaxUE8QpkpZzX1_ieW9T1Yq4vBlKWgfb-ZO9DsfOH6xtBrDTQtl17RpVrGIGUrI_qnszv56peP9DHx3P/s72-c/Untitled.png
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
https://www.hindikunj.com/2016/05/bond-by-birth.html
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/2016/05/bond-by-birth.html
true
6755820785026826471
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका