परकटा आदमी

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काफी लम्बे अर्से के बाद मैं अपने गाँव लौट रहा था। कितने समय के अंतराल में, इसकी गणना मैं बर्थ पर लेटे लेटे घंटों करता रहा, अंधेरे में। पर गणना 15-16 वर्ष के बीच में गोते लगाती रही, पर किसी निश्चित आंकड़े पर नहीं पहुँच सकी।

परकटा आदमी
काफी लम्बे अर्से के बाद मैं अपने गाँव लौट रहा था। कितने समय के अंतराल में, इसकी गणना मैं बर्थ पर लेटे लेटे घंटों करता रहा, अंधेरे में। पर गणना 15-16 वर्ष के बीच में गोते लगाती रही, पर किसी निश्चित आंकड़े पर नहीं पहुँच सकी। मुझे न जाने कब नींद लग गई। रेल जिस झटके से रुकी उससे अहसास हुआ कि वह किसी स्टेशन पर ही रुकी है। मैंने खिड़की की शटर ऊपर की। सुबह की धूप में नहाता रेल्वे स्टेशन जाना पहचाना सा लगा। पर हिन्दुस्थान के सभी रेल्वे स्टेशन एक जैसे होते हैं मात्र जंक्शनों के अथवा महानगरियों के विशाल स्टेशनों को छोड़कर।
मुझे इसी स्टेशन पर उतरना था और फिर यहीं से चौदह किलोमीटर की दूरी पैदल चलकर ही तय करनी थी
अपने गाँव तक पहुँचने के लिये। कम्बख्त गाँव अनमने से इतनी दूर-दूर क्यूँ बसे होते हैं ? अच्छा होता गर सारे गाँवों को उखाड़कर सड़कों के किनारे क्यारियाँ बनाकर कतारबद्व रोप दिया जाता, खेत-खलिहानों से दूर। सड़कों के समानान्तर पीने के पानी की पाइप लाइन और बिजली के तार बिछे होते और सड़क पर चलती बसें सभी गाँवों को अपने सफर में पिरोती चलती। पर करोड़ों की आबादी अपने पलने में सुलाने वाले गाँवों को समेटना शायद उतना ही कठिन है, जितना आकाश के तारों को इकठ्ठाकर रात के लिये एक नया सूरज बना देना।
मैं प्लेटफार्म पर खड़ा कुछ देर यूँ ही आते-जाते विचारों से खिलवाड़ करता रहा। तभी मेरी नजर मेरे हमउम्र के एक नौजवान पर पड़ी। अपने हाथ में वह भी ठीक मेरे जैसा सूटकेस लिये खड़ा था। मैंने गौर से देखा क्योंकि वह जाना-पहचाना सा लग रहा था। यह तो ठीक मेरी तरह लगता था सूरत शक्ल में ही नहीं, बल्कि हावभाव में भी। ऐसा लगा कि वह भी मेरी तरह 15-16 वर्ष पुरानी यादों में खोया हुआ था। इसी स्टेशन पर मुझे छोड़ने मेरी माँ और छोटी बहन आयी थी। पिताजी नहीं आ सके थे। दो दिन पहले की बात थी, हल चलाते बैल बिचक गये थे। पिताजी की तो उस दिन जान बच गई वरना मैं उसी दिन अनाथ कहा जाने लगता। इसके लिये 15-16 वर्ष की कठिन तपस्या न करनी पड़ती। उस दिन भगवान ने उनके पैर की हड्डियाँ तोड़कर ही शायद तसल्ली कर ली थी। यह किस बात की सजा दी थी, भगवान ही जानता है। यह भगवान बोलता तो कुछ नहीं, बस किये जाता है अपने ऊटपटाँग काम। कोई अॅडिटर या इन्स्पेक्टर उनके हिसाब किताब के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ता। ये तो हम मानव हैं जो अपने किये का घंटों नाप तौल करते हैं। पश्चाताप करते हैं। कभी दूसरों पर दोषारोपण करते हैं। कभी खुद को धिक्कारते हैं। कुछ व्यवहारिक व्यक्ति भाग्य को कोसते हैं और इसके लिये भगवान को ही जिम्मेदार बना देते हैं। मैं शायद यह नहीं कर पाया था। अपने भाग्य के कारण तोड़ी-मरोड़ी जिन्दगी के लिये दोषी मानता रहा, अपने इस छोटे से परिवार के लोगों को।
उस कच्ची उम्र में मुझे शहर में पढ़ने भेजा जाना ही उनकी गल्ती थी। वह भी अकेला भेजा गया था मैं। मुझे पिताजी पहुँचाने वाले थे पर उनके पैर की हड्डियों को ऐसे ही समय टूटना था। मुझे याद है मेरी माँ और छोटी बहन की गीली पलकों ने चलती ट्रेन को देखा था। सारा स्नेह कोमल अश्रू की बूँदों में ही सिमट कर रह गया था। मैं भी रो पड़ा था हृदय से। उस उम्र में हर विचार कितनी मासूमियत लिये होते हैं। माता-पिता मुझे शहर भेजकर पढ़ाना चाहते थे। मुझे कुछ बनाना चाहते थे। गरीबी में भी माँ-बाप का हृदय अपनी विशालता को नहीं त्यागता। परन्तु वक्त की दुर्भाग्य से साँठगाँठ सारी महत्वाकांक्षा का पलीता बनाकर रख देती है। 
मैं जिस डिब्बे में बैठा था, वहाँ दो लड़के बैठे थे, जो पहले सिर्फ मुस्कराकर फिर अपनेपन का लचीला प्रदर्शन कर
भूपेन्द्र कुमार दवे
मेरे भोले मन को ठग लेना चाहते थे। उन्होंने मुझे या तो खाने में कुछ दे दिया था या कुछ सुंघा दिया, याद नहीं। पर इतना अभी भी याद है कि जब मेरी आँखें खुली तो मेरे माता-पिता की हिदायतों के साथ बड़े जतन से दिये पाँच सौ रूपये का बंटवारा करते उन्हें मैंने देखा था। मैं कहाँ था आँखें जानने की कोशिश    करती रहीं और जुबान पूछती रही। सच में, मनुष्य का अपने सगे संबंधियों से दूर होना, उसे कितना अपाहिज बना देता है। इसकी कल्पना मुझसा भुक्तभोगी ही कर सकता है।  उन लड़कों ने मुझे जिस ओर मोड़ा उसी तरफ बढ़े जाने के सिवाय कोई चारा मुझे उस उम्र में नहीं दिखा। लाख सोचा, पर गुनाह करना तो एक प्रकार का केंसर-सा होता है जो शरीर को नहीं बल्कि चरित्र का हनन किये बिना पीछा नहीं छोड़ता। भीख माँगने के स्वांग से लेकर छोटी-मोटी जेबकतरी, छोटी-बड़ी चोरी, डाके इत्यादि का शौकीन बना दिया गया था मैं। जेल की हवा खा आया था। मेरी उम्र पर सभी को तरस भी आया था। पर सजा मात्र केंसर के आपरेशन से ज्यादा कुछ नहीं होती। इससे से तो गुनाहों का केंसर और भी चौकन्ना हो उठता है। तब मनुष्य के व्यक्तित्व में चरित्र नाम की कोई चीज ही नहीं रह पाती।
मुझे खुशी हुई कि आज   वह आदमी जो मेरे जैसा हूबहू था शायद इन्हीं विचारों में उलझा गुमसुम खड़ा था, ठीक मेरी तरह। मैं उसका परिचय पाने उसके पास तक गया परन्तु उसने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया। अपनी पलकों की नमी को मुझसे छिपाने के लिये।‘ अरे यह तो रोता है,’ मैंने सोचा। औरतों की तरह रोने वाला कतई मेरे समान नहीं हो सकता। चरित्रहीन कभी आँसू नहीं बहाता। पश्चाताप का शब्द उसके शब्दकोष  में नहीं होता। भावुकता से अपने आप को दूर रखना गुनहगारों का प्रमुख कर्तव्य होता है। ‘ ये साला रोता है,’ मैं मन ही मन बुदबुदाया। उनके लिये आँसू बहाना, जिन्होंने उसे पंद्रह-सोलह साल पहले नर्क में धकेल दिया था ! इसके पास चरित्र नाम की कोई चीज ही नहीं है। इसके पास तो मात्र यादों के खोटे सिक्के होते हैं जो एक गरीब सड़क पर पड़ा देखकर कुछ देर तसल्ली कर लेता है कि वह कुबेर की टक्कर का हो गया है। 
‘ अबे, तू इन खोटे सिक्कों को लेकर क्या करेगा? जहाँ जायेगा वहाँ धक्के देकर बाहर निकाल दिया जावेगा।’ 
इस दुनिया में अच्छा भला आदमी बने रहने के लिये बहुत कुछ हकीकत की बातें छिपाई रखनी पड़ती है। उन्हें खुद की याददास्त के झरोखों में भी पनाह नहीं लेने देना होता है। मेरी इन विचार धारणा की तरंगें उसके पास तक पहुँची या नहीं, मुझे नहीं मालूम। मैं सूटकेस उठा आगे बढ़ा। देखा, दबे पाँव वह मेरे पीछे आ रहा था -- मेरे हमशक्ल का आदमी। वाह! क्या बढ़िया सीन था, जैसे शरीर आगे-आगे चल रहा हो और आत्मा पीछे-पीछे। मैं मन ही मन हँसता रहा। 
एक अंधी भिखारिन की कर्कश आवाज ने मुझे अपने विचारों की गुथियों से खींचकर जैसे जमीन पर धम्म से पटक लिया। देखा कि वह आदमी मेरा पीछा छोड़कर उसकी तरफ बढ़ रहा था। भिखारिन पर उड़ती नजर पड़ते ही मैं ठिठक गया।  ‘अरे, यह तो हूबहू मेरी माँ है।’ मैंने तो सोचा था कि मेरी माँ मेरे बिना घुट-घुटकर मर जावेगी। जो सोचा था वह सुना भी था कि मेरी माँ बड़ी मुश्किल से उम्मीदों से बंधी तीन बरस ही जी सकी थी। मेरे उन दो साथियों ने मुझे बताया था, ‘अबे, सुन, तेरी माँ साली मर गयी। अब तू तो बिल्कुल हम जैसा छुट्टा हो गया है।’ मुझे माँ और साली का समास बहुत कड़वा लगा था, उस समय। मैंने चाहा कि कह दूँ ‘ बाप तो जिन्दा है मेरा। जब की तुम्हारे बाप का नाम या पता तक तुन्हें नहीं मालूम।’ पर इस अभिमान का क्या नतीजा निकलता? दो-तीन खींचकर जड़े थप्पड़, पेट पर करारे घूसे और साथ में चार दिन भूखे रहने का उपहार। यह ख्याल आते ही चुप ही रहना पड़ा था, उस समय। 
वह आदमी भिखारिन के पास बैठा क्या बतियाता रहा मैंने जानने की कोशिश    नहीं की। सूटकेस लिये मैं अपने गाँव की ओर बढ़ गया। जेठ माह की तपतपाती धूप में शहरवाले के लिये गाँव की ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर चलना बड़ा दूभर होता है। मैं रास्ते भर गाँव की सुन्दरवादियों का वर्णन करने वाले लेखकों को कोसता रहा। आखिरकार किसी तरह चैदह किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। 
घर ढूंढ़ना  नहीं पड़ा। जहाँ बचपना गुजरा होता है वहाँ का हर चप्पा हमेशा के लिये याद रहता है। घर पहुँचा तो पिताजी घर पर ही थे। शायद सो रहे थे। छोटी बहन भी थी जो अब बड़ी हो गयी थी। शायद मुझसे भी बड़ी। वह मुझे पहचान नहीं पायी थी। शायद उसे पहचानना मेरे लिये भी असंभव था। वह दौड़कर पिताजी के पास गयी। पिताजी को मोतियाबिन्द था। धुंधला दिखाई देता था। मुझे हथेली से टटोलकर पहचानने की कोशिश करने लगे थे। पुलिस वाले भी इसी तरह मेरी तलाशी लिया करते थे। मैं मन ही मन खीज उठा था।
‘बेटा, अब तू आया है?’
‘क्या हो गया था, तुझे?’
‘ठीक तो था?’
‘खबर क्यूँ नहीं दी?’ 
इतने सारे प्रश्न एक साथ उभरे थे कि उनके उत्तर टालते-टालते मैं खुद से ही जैसे अपरिचित-सा हो चला था। बहन ने बताया था कि मेरे जाने के सदमे को माँ सहन नहीं कर सकी थी और चल बसी थी। सोचा, यह अच्छा हुआ। वह जिन्दा होती तो और भी न जाने कितने प्रश्न करती। माँ के पूछे प्रश्नों को टालना और भी कठिन होता है।
मैं तीन दिन गाँव में रहा। पहले से बनाये गये प्लान के मुताबिक सारे कागजात तैयार कर पिताजी से दस्तखत लेता रहा। उनसे कोई डर नहीं था। मोतियाबिन्द के कारण उन्हें वैसे भी कम दिखता था। शरीर भी इतना शिथिल और असक्त हो गया था कि सोचने समझने पर बल नहीं दे रहा था और भारत में तो पिताश्री अपने नौजवान बच्चों पर आँख मूँदे विश्वास करने के आदी होते हैं। डर था तो मात्र बहन का। वह प्रायः दीवार से सटी गुमसुम खड़ी रहती थी। अनपढ़, गवाँर, गाँव की छोकरी से दहशत खाना मेरे पुरुषत्व को चुनौती दे रहा था। फिर भी जमीन बेचने का काम कठिन न लगा। बस, अब माँ के जेवर और हथियाने थे। 
प्लान के अनुसार चुपचाप उठा। सभी सो रहे थे। संदूकची भी जानी पहचानी जगह पर मिली। इतनी सरलता से सब गहने बटोर सकूँगा, शायद मैंने नहीं सोचा था। टार्च जलाकर एक बार देखना चाहा कि संदूकची में कुछ रह तो नहीं गया। एक छोटा-सा पुराना लिफाफा बच गया था। पहले उसे छुआ नहीं पर तभी ख्याल आया कि इसमें कोई अमूल्य दस्तावेज तो नहीं है। देखा तो सच में अमूल्य दस्तावेज था -- मेरे बचपन की तस्वीर। वाह! क्या खूब जगह चुनी थी माँ ने मेरी तस्वीर के लिये। मुझे लगा कि ये जेवर माँ ने मेरे लिये ही रखे थे। अब तक लगा था कि जेवर की चोरी कर गुनाह कर रहा था। पर अब लगा कि वह तो मेरा अधिकार था। फोटो संदूकची में फेंककर मैं सूटकेस बंद कर ही रहा था तो देखा कि बहन सामने खड़ी सब देख रही थी। मैं क्षणिक झुंझला उठा, पर तुरन्त अपने आप में लौट आया। बाहर जाने को था कि बहन बोल पड़ी, ‘भइया, जा रहे हो तो एक बात सुन लो। माँ मरी नहीं है। मैंने पिताजी से बहुत कुछ छिपा रखा है। तुम्हारे लापता होने पर माँ बहुत दुखी हो गई थी। दुख ने उसे पूर्णतया विक्षिप्त कर दिया। बेचारी सड़कों पर घूमती रात-दिन हर किसी से पूछती रहती है,‘ मेरा बेटा कहाँ है?’ सभी उसे पागल समझने लगे। गाँव के लड़के उसे छेड़ते तो वह खिसिया उठती। बच्चे पत्थर मारते। ’ यह कहते हुए मेरी बहन रो पड़ी। ‘भैया, सिर्फ चिढ़ाने के लिये बच्चे पत्थर मारते थे। पर उन्हें नहीं मालूम था कि पत्थर उसकी आँख भी फोड़ देंगे -- उसे अंधा बना देंगे।’
मैं आगे और कुछ सुनना नहीं चाहता था। डर था कि कहीं मैं कमजोर न बन जाऊँ। आगे बढ़ने को था कि बहन ने मेरी कलाई पकड़ ली। ‘ भैया, एक बार माँ को देखना नहीं चाहोगे?’ 
‘ नहीं,’ मैंने कड़ाके से कहने का अभिनय किया। बहन को कैसे बताता कि मैं माँ को देख चुका हूँ। भिखारिन को माँ कहूँ -- वह भी बहन के सामने ! मैं चुपचाप स्टेशन की ओर चल पड़ा। पीछे मुड़कर देखा। घर के खुले दरवाजे पर बहन का धूमिल साया स्थिर दिखा था -- अभी तक की सारी गाथा को अपने आप में समाहित करता हुआ।
स्टेशन पहुँचा। सुबह होने वाली थी। गाड़ी आने को अभी वक्त भी काफी था। सोचा देख लूँ उस भिखारिन को -- क्या अब भी उसे मेरी माँ बने रहने का अभिमान है या नहीं। पर माँ को देखते ही मैं चौक पड़ा। मेरी हमशक्ल का वह आदमी अभी भी मेरी माँ के पास बैठा था। वह आदमी -- मुझे देखकर विस्मित नहीं हुआ। उसे विश्वास था कि मैं लौटकर वहीं आऊँगा। जैसे इसी इंतजार में वह बैठा हुआ था। मुझे सामने आते देख उसने हौले से माँ का सिर अपनी गोदी से उठाकर जमीन पर रखा। साड़ी के फटे आँचल से माँ के चेहरे को ढ़ाँककर वह पैरों पर खड़ा हो गया। मैं अपने को संभाल पाता इसके पहले गजब की फूर्ती से वह आगे बढा़ और मेरे हाथ से सूटकेस छीनकर गाँव की ओर दौड़ पड़ा। मैं चाहता तो उसका पीछा कर पकड़ लेता पर मैं अपनी आत्मा से त्यक्त, परकटे आदमी की तरह माँ की लाश के पास किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रहा -- मन में अजब-सी पीड़ा लिये हुए, शायद माँ के अनगिनत प्रश्नों के उत्तर अपने आप में खोजता हुआ .......।   

 यह कहानी भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ''बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.                                                                                       

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